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मेरे दोस्त

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मैं कहता गया ,कहता गया कहता गया उससे की मत किया कर तारीफ़ इतनी, मेरी ! मेरे ही सामने मेरे दोस्त मुझे सच कहे, कड़ुवे शब्द सुनना भी जँचता है लेकिन वो नहीं माना करता गया , करता गया करता गया खर्च अपने कीमती शब्दों को हमारे लिए बनाने को काम अपना या सच में उदारता वश या उसे ज़्यादा बोलने की आदत है या वो मजबूर है अपनी जुबान से कहना मुश्किल है किन्तु बस एक बार जुटाकर हिम्मत मैंने भी आजमाया फॉर्मूला उसका ही, उसी के सामने और की मैंने भी तारीफ़ अपनी उसके ही कार्यों में  दिए अपने वक्त और मत के अवदान की वो बिदग गया सिरे से आवाज़ में आ गई तल्ख़ी उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे वाले दृश्य उभरने लगे मेरी आँखों के सामने और मेरा दोस्त बन गया बिल्कुल अजनबी भूल गया अचानक दुआ सलाम की रस्मों के साथ मेरा नाम लेना भी अब हाल ये है देखकर मुझको घुमा लेता है अपना मुँह, मेरा दोस्त मानो चुक गए हैं सारे शब्द तारीफ़ के उसके खुद के लिए भी ।। -कल्पना मनोरमा