त्रिशंकु
कहानी की लेखिका: शशि श्रीवास्तव जैसे-जैसे साँझ का सुरमई रंग गहराता जा रहा था , ड्राइवर बस की रफ्तार बढ़ाता जा रहा था। फतेहपुर आते-आते समूची कायनात का मुँह काला हो गया। जैसे– उसने जानते-बूझते इस तरह के वक्त का चुनाव किया था कि फतेहपुर पहुँचते-पहुँचते रात हो जा जाये। दरअसल वो सबसे पहले अपने मामा से मिलना चाहता था। दिन के उजाले में बस-स्टेशन से घर तक न जाने कितने जानने वाले मिलते और उसकी गुमसुदगी के बावत कई सवाल दागते जाते। एक ना चाहा हुआ व्यवधान उत्पन्न होता और घर पहुँचने में देर भी जाती। फतेहपुर के नाम पर वह अपने मामा से सीधे मिलने को बेचैन हो जाता है। उसका वश चले और सुविधा हो-तो वह हवा के परों पर सवार होकर सीधे मामा के पास पहुँच कर ही उतरे। और मामा उसे देखते ही पहले तो मुँह फेरकर बैठ जाएँगे फिर झूठा गुस्सा दिखाएँगे पर ज्यादा देर उनका गुस्सा टिक नहीं पायेगा । वे गुस्सा झटक कर उसकी ओर घूम जाएँगे । मामा का नकली गुस्सा , भीतर से फूटती मुस्कान को जबरन दबाएगा मगर वे प्रश्नाकुल निगाहों से उसकी ओर देखने लगेंगे। उस पर जब उन्हें ये पता चलेगा कि उनका सोमू जीवन की मुख्यधारा में शामिल हो गय