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Showing posts from June 4, 2020

ये क्या हो गया

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जब खिली रातरानी ये क्या हो गया आ गया क्रूर माली , ये क्या हो गया | मंजिलों का पता पूछने की सजा, मिल रही मुझको गाली,ये क्या हो गया| जिंदगी सिलवटों में उलझती हुए, बन गई इक कहानी,ये क्या हो गया | रोटियों से कोई खेलता, है कोई- सो रहा पेट ख़ाली,ये क्या हो गया | पहले रोका नहीं, सोचा मासूम हैं बन गए जब मवाली,ये क्या हो गया | ढोल में पोल सबकी दिखे कल्प से सारी दुनियाँ सवाली,ये क्या हो गया |

रोशनी बे असर हो गई

आज सबको ख़बर हो गई, रोशिनी बे असर हो गई | हम रदीफ़ों में उल्झे रहे, काफ़िये में कसर हो गई | खो गए इस कदर भीड़ में, जिन्दगी दर-ब-दर हो गई | दर्द को ज्यों लगाया गले रात काली सहर हो गई | फूल बोते रहे उम्र भर क्यों कटीली डगर हो गई | साथ माझी का जैसे मिला साहिलों को ख़बर हो गई | ‘कल्प’ से यूँ ही चलते हुए हर किसी की गुजर हो गई |

प्रिय लेखिका चित्रा मुद्गल

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चित्रा मुद्गल जी से हुई मुलाकातों की स्मृतियों को लिखित रूप देना मुझे सुकून से भर रहा है | आखिर   कोई पहली बार आपसे इतनी सहजता से कैसे मिल सकता है , कैसे आपको देखकर आत्मीयता से मुस्कुरा सकता है | किसकी आँखों से प्रेममयी आश्वस्ति की धारा बह सकती है जो आपको सराबोर कर जाए , इतनी हाय हुज्ज्त वाले हाहाकारी समय में भी कौन तसल्ली की बाँह पकड़कर नित नए प्रेरणा के मार्ग बनाता चल सकता है , किसका हृदय करुणा-स्नेह से सदैव प्लावित रह सकता है | क्या आप जानते हैं ऐसे किसी व्यक्ति को ? मैं जानती हूँ , मेरी प्रिय लेखिका चित्रा मुद्गल जी को , जिन्हें लेखन की दुनिया के नामचीन सम्मानों से नवाज़ा जा चुका हैं लेकिन उनका मन अभी भी इंसान को इंसान कहना जानता है | उनकी वाणी में जितना अपनापन और सहजता है , उतनी ही उनकी मानवीय चेतना में स्त्रीपन की दृढ़ाता   और उसका सुदृढ़ स्वाभिमान भी गहरे से भरा जान पड़ता है | जिसे देखकर भला कौन उनका मुरीद न होगा | वैसे तो बच्चा जबसे अपनी याद सम्हालता है तब से साहित्य उसके साथ-साथ चलना आरम्भ कर देता है या यूँ कहें की वह स्वयं साहित्य का दामन माँ की लोरी हो या दादी की कहानिया

जिंदगी

जिंदगी का भले सख्त हो काफ़िया झोपड़ी के दिए को नहीं हारना | चाँद पूनम का हो याकि हो दूज का, सीख लेता गगन के नियम क़ायदा | तार चिट्ठी न कोई, मेरे नाम की, ऱोज गलियों में क्यों आ रहा डाकिया | ईंट पर ईंट को कुछ रखो इस कदर , बन सके सीड़ियों का सुखद बाक़िया | लोग लिखते रहे हीर की दांस्ता , ‘कल्प’ लेती रही अश्क का जायज़ा |

अंग्रेजी के सामने हिन्दी को हीन न समझें|

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बहुआयामी प्रतिभा के धनी और हिंदी लेखकों में अग्डॉरणीय .रामदरश मिश्र जी जिन्होंने हिन्दी की सभी विधाओं में अपनी सार्थक लेखनी चला कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है | विगत दो अक्टूबर दो हजार सत्रह को श्रीमान सुधाकर पाठक जी जो कि-हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी के सम्पादक एवं अध्यक्ष हैं और श्री मनीष चन्द्र पाण्डेय जी के सौजन्य से मिश्र जी के निवास पर उनसे मिलने का मौक़ा मिला | प्र स्तुत हैं कल्पना मनोरमा द्वारा डॉ.रामदरश मिश्र जी से की गयी ख़ास बातचीत के अंश |      कल्पना : आपके विचार से वर्तमान समय में हिन्दी की क्या स्थिति है ? क्या आप इस दौर से संतुष्ट हैं ? रामदरश मिश्र : अभी हाल ही में दैनिक जागरण पढ़ा था और अलग से भी उस पर चर्चा आई है कि- हिन्दी  की स्थिति इस समय क्या है ? तो हिन्दी अपने देश के तमाम प्रदेशों की मुँह लगी अपनी भाषा है और लोग हिन्दी बोल कर संतुष्ट भी हैं | जो अभिजात्य वर्ग है वो अपने स्तर पर हिन्दी को समझता हैं | जैसे हमारे देश का प्रबुद्ध वर्ग अंग्रेजी का गुलाम है , ऐसे ही सामान्य जन , आम जनता कौन सी भाषा में  अपना काम करती है , घूमती है , बातें करती है , सपने देखती है