प्रिय लेखिका चित्रा मुद्गल


चित्रा मुद्गल जी से हुई मुलाकातों की स्मृतियों को लिखित रूप देना मुझे सुकून से भर रहा है|आखिर 
कोई पहली बार आपसे इतनी सहजता से कैसे मिल सकता है,कैसे आपको देखकर आत्मीयता से मुस्कुरा सकता है| किसकी आँखों से प्रेममयी आश्वस्ति की धारा बह सकती है जो आपको सराबोर कर जाए,इतनी हाय हुज्ज्त वाले हाहाकारी समय में भी कौन तसल्ली की बाँह पकड़कर नित नए प्रेरणा के मार्ग बनाता चल सकता है,किसका हृदय करुणा-स्नेह से सदैव प्लावित रह सकता है |क्या आप जानते हैं ऐसे किसी व्यक्ति को ? मैं जानती हूँ ,मेरी प्रिय लेखिका चित्रा मुद्गल जी को,जिन्हें लेखन की दुनिया के नामचीन सम्मानों से नवाज़ा जा चुका हैं लेकिन उनका मन अभी भी इंसान को इंसान कहना जानता है |
उनकी वाणी में जितना अपनापन और सहजता है,उतनी ही उनकी मानवीय चेतना में स्त्रीपन की दृढ़ाता   और उसका सुदृढ़ स्वाभिमान भी गहरे से भरा जान पड़ता है| जिसे देखकर भला कौन उनका मुरीद न होगा |वैसे तो बच्चा जबसे अपनी याद सम्हालता है तब से साहित्य उसके साथ-साथ चलना आरम्भ कर देता है या यूँ कहें की वह स्वयं साहित्य का दामन माँ की लोरी हो या दादी की कहानियाँ या फिर स्कूल-कोलेज की किताबों के रूप में पकड़ लेता है| मेरे साथ भी बिल्कुल वैसा ही हुआ लेकिन जब से कविता ने मुझे चुना,उसमें रूचि उत्पन्न हुई तो साहित्य से मेरा अपनापन कुछ अधिक ही बढ़ने लगा | नतीजतन जैसे-जैसे अंतस में कविता अपनी परतें खोलती जा रही थी,वैस-वैसे साहित्यिक संगतियों का सिलसिला-सा चल पड़ा | यह मेरा सौभाग्य ही कहा जायेगा कि- मुझे हमेशा से ही अच्छे लोगों का सान्निध्य मिला,सीखने और सुनने का खूब मौक़ा मिला
इसी कड़ी में जब जानीमानी कथाकार दिव्या शुक्ला जी को उनकी कहानी “अग्नि गर्भा”को  “रमाकांत कथा सम्मान” देने की घोषणा हुई तो मन आनन्दित हो उठा, मैंने दिव्या दीदी को बधाई दी तो उन्होंने स्नेह बस मुझे उस सम्मान समारोह में आने के लिए कहा | मैं यह सोचकर गदगद हो उठी की जिसको मैं फेसबुक पर देखती और पढ़ती आ रही हूँ उनसे गले मिलकर उनका होना महसूस कर पाऊँगी| आखिर वो दिन आ ही गया और मैं अपने बेटे परीक्षित बाजपेयी के साथ गाँधी प्रतिष्ठान पहुँच गई |वहाँ कार्यक्रम की गहमागहमी चल रही थी |पत्रकार डॉ.विश्वनाथ त्रिपाठी जी से बातचीत कर रहे थे|मेरी आँखें दिव्या दीदी को ढूँढ़ रहीं थीं | इतने में मैंने देखा कि-एक भद्र महिला सुनहरे फ्रेम का चश्मा पहने माथे पर लाल रंग की बड़ी सी-बिंदी लगाए बड़ी सौम्यता से प्रतिष्ठान में प्रवेश करती है |कैमरे वाले सब उनकी और दौड़ने लगे बैठे हुए लोग खड़े होने लगे | सभी उनके साथ फोटो खिंचवाना चाहते थे |इस दृश्य को देखकर ये तो मैं समझ गई कि-ये कोई साधारण नहीं बल्कि लेखन की दुनिया का रेशमी सितारा है | मेरा छोटा सा मन रोमांच से भरता जा रहा था | बेटे ने कहा,माँ ! क्या हुआ ?कहाँ खो गई ? उसके कहने से मेरी चेतना वापस लौटी | मैंने बेटे से कहा जैसे ही मैं उनके पास जाऊं तुम फोटो खींच लेना क्योंकि मैं उन पलों को कैमरे में कैद तो करना चाहती थी किन्तु उनको असुविधा नहीं होने देना चाहती थी |डरते-झिझकते जब उनके पास पहुँची और अभिवादन किया तो उन्होंने प्रेम से मुझे देखा और मेरा हाथ पकड़ लिया | उनके हाथ का कोमल स्पर्श पाकर मन गमक उठा |इतने में कार्यक्रम का शुभारम्भ हो चुका था,उनको मंचासीन होने के लिए बुलाया गया|मंच पर चित्रा जी के साथ डॉ.विश्वनाथ त्रिपाठी जी,निकट पत्रिका की सम्पादिका प्रज्ञा पाण्डेय जी,कहानीकार दिव्या दीदी और भी माननीय जन मंच पर  बैठे हुए थे लेकिन मेरी दो आँखें चित्रा जी के चेहरे पर चिपकी हुईं थीं |उनकी हर एक गतिविधि और भावभंगिमाओं से मैं उनकी कहानियाँ आपका बंटी, झूठा सच,त्रिशंकु में आये किरदारों और शब्दों की नापजोख़ करती जा रही थी |फिर जब उन्होंने अपना वक्तव्य देना आरम्भ किया तो उनका नजरिया उनकी सोचने की विधि को सुन, मेरे मन में विचार आया कि-वास्तव में चित्रा जी लेखिका ही नहीं अपितु एक विचारक और चिंतक भी हैं  | उनकी अनुभूतियाँ हवा-हवाई न होकर समाज के चिकने-खुरदुरे धरातल से अपने समकालीन लोक से टकरातीं हैं तब आँवा और गिलिगुडु जैसे कालयी उपन्यासों का जन्म होता है |सम्मान समारोह सम्पन्न हुआ साथ में मेरी पहली और बिल्कुल नई-नई मुलाक़ात भी चित्रा जी से गले लगकर सम्पन्न हुई |
अब बात करती हूँ चित्रा जी से अपनी दूसरी मुलाक़ात की | हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी का कार्यक्रम,इंदिरा गांधी कला केंद्र का सभागार में बेला के फूलों की मनभावन खुशबू और मंच पर प्रतिष्ठित प्रबुद्ध जनों के बीच मेरी प्रिय लेखिका चित्रा जी की उपस्तिथि ने मुझे फिर से विह्वल बना दिया | भाषा,साहित्य,और शब्दों का महिमा गान सुनने में सदैव से ही मेरी रूचि रही है इसलिए मैं सभागार में बैठी खूब आनन्दित और लाभान्वित हो रही थी | कार्यक्रम का पहला सत्र सम्पन्न हुआ तो सुधी प्रसंशक-जन मंच पर सभी से मिलने के लिए पहुँचने लगे |मैं बहुत पशोपेश में थी-जाऊँ या न जाऊं चित्रा जी  क्या सोचेंगी,वगैरह-वगैरह| लेकिन दिल ने दिमाग को हरा दिया और मैं सीधे मंच पर पहुँच गई |मैंने झुककर जब उन्हें प्रणाम किया तो वे कहने लगीं - पाँव मत छुआ करो और मुझे गले से लगा लिया| मैं उनके हाथों को देखे जा रही थी कि-इन्हीं हाथों से दीदी समाज की उस वेदना को अपने शब्दों से रूप देतीं हैं,जिसे अनुभव तो हर कोई करता है पर कह नहीं पाता खैर .....|
सभी को जलपान के लिए नियत जगह पर भेज दिया गया|मौक़ा निकालकर जब मैंने उन्हें तसल्ली में देखा तो पूछ ही लिया कि-आप अपनी कहानी को कहानी कैसे बना लेती हो दीदी,क्या –क्या सोचती हो|वो  मेरी बात पर मुस्कुराकर बोलीं-कहानी लिखना कोई कठिन थोड़ी है,तुम भी लिखो लिखी जायेगी | मैंने कहा चित्रा दीदी अभी कविता लिखना थोड़ा-थोड़ा सीखा है लेकिन कहानी ....| उन्होंने बड़ी आत्मीयता से मेरी ओर देखा मानों मेरे अंतर मन को पढ़ रही हों | मैं झिझक गई फिर जैसे ही उन्हें मेरी झिझक का एहसास हुआ तो उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा,कल्पना तुम जब कविता लिख सकती हो तो कहानी भी अवश्य लिख पाओगी किन्तु पहले खूब पढ़ो और जब पहली कहानी लिखना तो मुझे भेजना,मैं पढूंगी तुम्हारी कहानी |वे कहती जा रहीं थी मैं आश्चर्य चकित होती जा रही थी कि-इतनी बड़ी रचनाकार होते हुए मुझ जैसी व्यक्ति जिसने अभी-अभी सहित्यिक गाँव में जन्म लिया हो ,उससे कैसे इतने स्नेह से बात कर सकतीं हैं |मैंने उन्हें बताया की-दीदी आपकी कहनियों में जो शब्द,लोकोक्ति या मुहावरे पूर्ण भाषा होती है वह मुझे बहुत अच्छे से समझ आती है,उन्होंने ने पूछा,तुम मूलतः कहाँ की रहने वाली हो |मैंने बताया कानपुर उत्तर प्रदेश| उन्होंने भी अपने जन्मस्थान के बारे में बताया कि उनके पिता का घर उन्नाव में है और मुझसे कहा, तो तुम “लकड़बग्घा” कहानी पढ़ो तुम्हें अच्छा लगेगी |
नियत कार्क्रम के अनुसार आयोजन सम्पन्न होना था,हो गया |इसी के साथ चित्रा जी से मेरी मुलाक़ात का वह स्वप्निल क्षण भी बीत गया | अधिकतर ऐसे अवसरों पर विदा लेते हुए हम खिन्नता बोध लेकर लौटते हैं किन्तु इसके ठीक विपरीत मैं एक अकथनीय तृप्ति और उर्जा से लबरेज होकर लौट रही थी |
अपनी हथेली और कन्धों पर चित्रा जी के आत्मीय स्पर्श की ऊष्मा अनुभव कर रही थी |कानों से सुने हुए उनके बोल कहीं गहरे हृदय में अपनी जगह बना चुके थे |उनके द्वारा मुझ जैसी नौसिखिये को आश्वस्त करने का तरीका एक साहस और उत्साह का संचार कर रहा था | यदि कोई मुझसे पूछे तो आज भी वह सब मेरे मन के पर्दे पर अपनी पूरी ताजगी के साथ मौजूद रहकर मुझे अह्लादित कर जाता है कि मैं भी मिली थी चित्रा मुद्गल जी से






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