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निर्णय

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  लेखिका : शशि श्रीवास्तव जी  अगस्त महीने की तपती दोपहर है। कई दिनों से पानी लेने गये बादल अपने पीछे नमी और उमस छोड़ गये हैं। राम प्रसाद जी को तीन घंटे के बस के सफर ने थका दिया है , बुरी तरह से। पसीने से भीगी देह चीटियों का घर हो गई है जैसे। जल्दी से जल्दी घर पहुँच कर सबसे पहले वे जमकर नहायेंगे , सोच रहे हैं। घर तो वह भी है तुम्हारा। जहाँ से आ रहे हो। उनके ही अंतर ने मानो उन्हें याद दिलाया था।     “ नहीं , जब से छोटे ने उसे तोड़-फोड कर पूरा पक्का करवा लिया है तब से उस घर से कोई तारतम्य व पहचान कहाँ   बना पाता हूँ। लगता है किसी के घर मेहमान बन कर गया हूँ। ”     “ हाँ , मेहमान तो हो ही तुम उस घर के लिए , और छोटे का कहा मानकर अगर इस घर को भी बंदी के नाम कर दिया तो समझना इस घर में भी मेहमान बनकर ही रह जाओगे एक दिन। फिर तुम्हारा अपना कोई घर तो रह ही नहीं जायेगा। ”   उनके अंतर ने उन्हें चेतावनी-सी दी थी। उन्हे सहसा अपनी पत्नी की कही बातें याद हो आईं।     “ बेऔलाद दम्पति रिश्तेदारों के लिए लाटरी की तरह होते हैं , जिसे हर कोई अपने नाम खोल लेना चाहता है। ठीक है! बच्चे इंसान की बहु