नवगीत में यथार्थ की ख़ोज उपन्यास की तरह नहीं की जा सकती.
नवगीत में यथार्थ की ख़ोज उपन्यास की तरह नहीं की जा सकती- डॉ. इंदीवर प्रख्यात समीक्षक डॉ. इन्दीवर पाण्डेय से कल्पना मनोरमा की बेबाक बातचीत। कल्पना- कविता को किस आधार पर सार्थक माना जाए? कविता की आलोचना में सामाजिक यथार्थ की खोज क्या उपन्यास और कहानी की तरह हो सकती है ? इंदीवर- कविता में भाषिक संरचनाएँ उपन्यास और नाटक से अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। भाषिक संरचनाओं के विश्लेषण के अभाव मैं कविता की व्याख्या मुश्किल होगी। साहित्य के समाज विज्ञान मैं किसी कला कृति की उत्पत्ति की परिस्थितियों और उसके परवर्ती प्रभावों का ही विवेचन होता है। और कृति के अनुभव की उपेक्षा होती है। समाज से कृति के संबंध की खोज महत्वपूर्ण हो जाती है और कला वस्तु की सत्यता-असत्यता का बोध जगाने वाली अंतर्दृष्टि गौण। यह स्थिति सबसे दयनीय , दर्दनाक और संकुचित तब हो जाती है जब उसे कविता के सबसे अधिक कलात्मक रूप नवगीत पर लागू किया जाता है। जब नवगीत को सामाजिक यथार्थ की व्याख्या के नाम पर सामाजिक दृष्टि का दृष्टांत मान लिया जाता है या आलोचक की