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लाओ रे डोली उठाओ कहार..!

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  बेशक आज हम जहाँ रहते हैं, वहाँ साधारणतया ऐसी छवियाँ देख पाना बड़ा मुश्किल का विषय बन गया है | लेकिन मेरे मन के एक गलियारे में मेरा गाँव अभी भी जिंदा है |   ज्यों का त्यों और ज़िंदा है, उसमें किल्लोनें करता हुआ मेरा सुआपंखी बचपन|  जहाँ धान की गदराई बालियों पर आज भी सूरज अपना दिल दे बैठता है|   हवा उसको चुटकी काटकर ऐसे इतराकर चलती है, जैसे उसने सूरज के जीवन का कोई बहुत बड़ा राज जान लिया हो  | उसके सारे रंगों की पोल-पट्टी पा ली हो | ये सब मेरे गाँव में अभी भी होता है | वहाँ से कंकरीट की काली पट्टी गाँव को काटते हुए नहीं निकली है | वैसे गाँव के चारों ओर से सड़कों ने उसे घेर तो रखा है, लेकिन भोलापन अभी पूरा बिका नहीं है | गाँव के किसानों के  धान के खेतों में खड़े बिजूके आज भी बच्चों के डर के सबब बन जाते हैं | वे बिजूके अपने बड़े-बड़े दांत काढ़ कर हँसते दिखाई पड़ते तो चिड़ियों के झुण्ड एक साथ ऐसे फुर्र होते, जैसे चाबी से चलने वाले पंछी हों  |  चारों ओर हरे रंग में मिला सुनहरा रंग जब छितराता तो तोती रंग की झुकी हुईं धान की बालियाँ ऐसी लगती मानो नगर-वधुएँ नत नयन किये खड़ीं हों।   रामभोग चावलों की भीनी-