लाओ रे डोली उठाओ कहार..!

 

बेशक आज हम जहाँ रहते हैं, वहाँ साधारणतया ऐसी छवियाँ देख पाना बड़ा मुश्किल का विषय बन गया है | लेकिन मेरे मन के एक गलियारे में मेरा गाँव अभी भी जिंदा है | ज्यों का त्यों और ज़िंदा है, उसमें किल्लोनें करता हुआ मेरा सुआपंखी बचपन| जहाँ धान की गदराई बालियों पर आज भी सूरज अपना दिल दे बैठता है| हवा उसको चुटकी काटकर ऐसे इतराकर चलती है, जैसे उसने सूरज के जीवन का कोई बहुत बड़ा राज जान लिया हो | उसके सारे रंगों की पोल-पट्टी पा ली हो | ये सब मेरे गाँव में अभी भी होता है | वहाँ से कंकरीट की काली पट्टी गाँव को काटते हुए नहीं निकली है | वैसे गाँव के चारों ओर से सड़कों ने उसे घेर तो रखा है, लेकिन भोलापन अभी पूरा बिका नहीं है | गाँव के किसानों के धान के खेतों में खड़े बिजूके आज भी बच्चों के डर के सबब बन जाते हैं | वे बिजूके अपने बड़े-बड़े दांत काढ़ कर हँसते दिखाई पड़ते तो चिड़ियों के झुण्ड एक साथ ऐसे फुर्र होते, जैसे चाबी से चलने वाले पंछी हों | चारों ओर हरे रंग में मिला सुनहरा रंग जब छितराता तो तोती रंग की झुकी हुईं धान की बालियाँ ऐसी लगती मानो नगर-वधुएँ नत नयन किये खड़ीं हों। रामभोग चावलों की भीनी-भीनी सुगन्ध गाँव के पूरे वातावरण को उसी तरह  महका देती थी, जैसे अम्मा की रसोई में नए चावलों की खीर बनने से घर का आँगन सुवासित हो उठता था। क्वार माह के नरम-गरम हवा के झौंकों में अन्न की खुशबू भर छलकती, तो जान पड़ता चौक पर रखे दीवाली के स्वर्ण-कलश से सगुन के अक्षत झर रहे हों | संध्या का सूरज उस कलश पर रखा, घी का दीपक होता जो अपनी रक्तिम आभा से दिपदिपा कर मन के अँधेरे कोनों को भी रोशन कर देता है | गाँव में साँझ अपनी साँवली चूनर लहराकर जब धरती पर उतरती है तो भास्कर की मुट्ठी खुलने से नारंगी रंग बरस पड़ता है | संध्या परी जिसको अपने पाँवड़े समझ मंथर चलते हुए सभी घर चली जाती है | उस समय पंछी अपने चुग्गे की आख़िरी चोंच भर रहे होते हैं | संध्या को स्थापित कर सूरज जैसे ही समुद्र में डुबकी लगाने चलता वैसे ही पंछी खेतों को उनके हाल पर छोड़, कतारें बनाते हुए आकाश की ओर उन्मुक्त उड़ान भरते |उन्हें देखकर जान पड़ता गोया नये युवामन नवजवान साइकिलों पर सवार होकर अपने घरों की ओर लौट रहे हों | मेरा मन बिना पंख के पखेरुओं की तरह तड़प कर रह जाता याकि आधी-पूरी मैं भी उनके संग क्षितज तक उड़ आती | ये सारे दृश्य मुझे मेरी घर की छत से साफ़-साफ़ दिखाई पड़ते थे | 

इस समय गाँव का मन पूर्ण संतुष्टि से भरा होता था। बच्चे यदि शैतानी भी करते थे तो वे कम ही डांटे जाते थे | किसी ने ठीक ही तो कहा है, खाली बर्तन ज्यादा बजते हैं| गाँव का भाईचारा देखने लायक होता था | न किसी से भेद-भाव न किसी से जलन | वह तो बस खुशियों के खील-बताशे बाँटते चलो वाली रौ में होता और मानो कहता चलता था,"कदम-कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाये जा,ये जिंदगी है कौम की तू कौम पर लुटाए जा।" जब खेत-खलिहानों में ऐसी मनमौजी धुनें गूँजने लगतीं, तो उसकी गमक आँगन तक भी पहुँच जाती | जनानी बैठिकी फिर भला कैसे पीछे रहेवहाँ भी,"लाओ रे डोली उठाओ कहार,पिया मिलन की रुत आई ।" जैसी धुनों में डूब कर जनानियाँ कभी पायल,बिछुए,चूड़ी और बिंदी आने की बातें छेड़तीं, तो कभी अपने बच्चों के नये कपड़ों की कल्पना मात्र से माँओं के मन तालाब में खिले कमल से हो उठते| गाँव की छोटी-छोटी जरूरतें और उन्हीं के अनुरूप उनकी खुशियाँ |

यहाँ पर ये कहा जा सकता है कि इन दिनों गाँव की छोटी-बड़ी सभी साधें खेत के चारों ओर दौड़-दौड़कर अपने पूरा होने का मानो जश्न मनाने लगती थीं। दूर-दूर तक नजर डालने पर भी मिट्टी का रंग दिखाई नहीं पड़ता था | चारों ओर हरियाली अपने पाँव पसारे दिखाई पड़ती और जब कोई उसे जीभर देखता तो उसके मन में हरीरी हिलोर उठे बिना न रहती | मेरी आँखों के गोल शीशे भी हरे पन्ने-से चमक उठते थे जितनी दूर तक मेरी छोटी-सी दृष्टि जा पाती, उतनी-उतनी दूर तक मुझे लगता किसी ने हरा कालीन बिछा दिया है | लगता था कि बड़े वृक्ष पृथ्वी पर यदि न होते, तो इतने बड़े नीले आसमान को कौन सम्हालकर ऊँचा रखता | मैं घर के पास वाले बाग़ में देखती तो महसूस होता कि आम के बागों में शान्ति की चादर ओढ़े पेड़ अपनी ही धुन में रमे होते थे | न कोयल के मीठे राग़ से उनके मन में विचलन होती है और न ही बच्चों के हाथ के छोटे-छोटे पत्थर खाने का कोई दुःख | उनके पास होतातो सिर्फ परमानन्द | वैसे ऐसे सुकून भरे पल जिन्दगी सभी को देती है | हाँ, कोई उनको महसूस कर लेता है और कोई जान भी नहीं पाता कि सुख के क्षण कब आये और कब चले गये गोया सुख होता ही है कपूर की तरहइन दिनों बेरी के पेड़ों की डालियों पर पत्तों के पास-पास बेर-फूल की कलियाँ अपने मुकुलित होने की खबरें सुनाने लगती थीं | बबूल के पेड़ों पर गोल-गोल आकार का हरा बौर आने लगता था जो मुझे छोटे बच्चों के हाथों के झुनझुने से कम न लगता था। बेरी-बबूल के फूलों की मिली-जुली खुशबू गाँव में कुछ अलग ही स्वाँग रचती थी | इस सबके बीच बया के घोंसले आकर्षण का केंद्र न बने, ऐसा कैसे हो सकता था! बया की जोंजें ( घोंसले ) हरी घासकास और धान के पौधों से लिए गये तिनकों से बनाये जाने का काम जब ज़ोरों-शोरों से चलने लगता, तो सारा जंगल मानों उसकी बुनाई में शामिल हो जाता था| बया एक चतुर बुनकर की तरह जब तिनके में तिनका फँसा कर, अपनी चोंच का सहारा लेते हुए उसे खींचती और फिर घोंसले में पिरोकर कसती, तो रजाई में डोरा डालती माँ अनायास ही याद आने लगती बया का लम्बा लौकीनुमा घोंसले या पीतल के लोटे के आकर के घोंसले मेरे बालमन को कई-कई बातों का ध्यान दिलाते थे | जैसे दिवाली की लौकी की बर्फी | उसके घोंसले से जुड़ी दूसरी छवि होती, शादियों में बजने वाली बीनें और उसकी मादक धुन पर नाचने वाले छोकरे जो अपने मुँह में रूमाल का एक कोना पकड़ नागिन बन नाचते थे। खैर..!

जिस बबूल पर बया अपने घोंसले बनाती मेरा मन करता कि मैं घंटों उसी पेड़ के नीचे खड़ी रहूँ | या उसकी को देखती रहूँ | लेकिन ऐसा करने की मुझे कतई अनुमति नहीं थी क्योंकि अच्छे घरों की लडकियाँ साँस भी मलमल से छान कर लेती हैं |खैर..! वैसे मैं सही कहूँ, तो बया मुझसे अच्छी थी | वह लड़की नहीं थी न! इसलिए उसका जब मन करता फ़ुर्र-फ़ुर्रकर जगह-जगह उड़ती फिरती और जब मन करता किसी डाली पर चिपक कर सो जाती | हवा उसपर दुलार से पंखा डुलाने लगती | ये देखते हुए मन इतना ललचा जाता कि उसी समय संतोषी माता से झटपट प्रार्थना कर लेती कि हे माँ! अगले जन्म मुझे चिड़िया ही बनाना | मैं देखती कि बया ची ची ची कर सूरज दादा को विदा कर अपने काम को विराम देकर इधर-उधर सर घुमाकर देखती, तब तक लगभग सभी पखेरू पेड़ों पर बसेरा ले चुके होते थे | लेकिन वह अपने घोंसले के द्वार पर बैठकर गहरे से अपने कार्यों का निरीक्षण करती | अपने कार्यों की समीक्षा करना जानती है बया | उसे ऐसा करते देख मुझे लगता कोई कुशाग्रार बुद्धि राजकुमारी अपनी अट्टालिका के झरोखे से प्रकृति को सुंदर बनने का नियम सिखा रही है और अगले दिन काम की रूपरेखा बना रही है | 

दुख की बात ये लगती है मुझे कि जब से शहर की काली-कलूटी भूतनी-सी सड़क ने गाँव की ओर रुख़ किया है; गाँव के मन में पलायनवादिता का जहर घुलने लगा है | लोग अपनी सौंधी मिट्टी की खुशबू छोड़कर धुंवा पीने शहरों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं| अपना भोलापन छोड़ इस्पाती सुविधाओं के गुलाम बनते जा रहे हैं | आज का गाँव कितना कोरा-भावुक बचा है? कहा नहीं जा सकता | हाँ, हम विश्वास जरुर कर सकते हैं कि एक न एक दिन फिर से मानवता के दिन बहुरेंगे | आशा है कि एक न एक दिन गाँव फिर से गुलज़ार होंगे और शहरों में सन्नाटा लोहा समेटता रह जाएगा |बया की तरह तभी मुझे ख़ुशी मिलेगी |

***

 

 

 


Comments

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 5 अक्टूबर 2020) को 'हवा बहे तो महक साथ चले' (चर्चा अंक - 3845) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. आपकी इस साहित्यिक पहल के लिए हृदय से आभारी हूँ |सादर

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  3. हर शब्द अंतस में उतरते सराहनीय अभिव्यक्ति।

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  4. बहुत सुंदर लेख ,आशा का दामन थामें सकारात्मक सोच।
    बहुत सुंदर।

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