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Showing posts from September 13, 2020

ईश्वर कस्तूरी है जो हमारे होने में छिपा है

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  मनुष्य जिस धर्म में जन्म लेता है।   वह छोटी-बड़ी अनेक परम्पराओं वाली ऐसी नाव होती है जो भावनाओं की उत्ताल तरंगित लहरों पर सवार हो अविचल तैरती रहती है।  हम   चाहे-अनचाहे अपने जीवन में उन सारी मान्य परम्पराओं का अवगाहन करते चले जाते हैं जिन्हें जिस रूप में हमारे सामने प्रोस्तोताओं ने प्रस्तुत किया होता   है।   हम इतने भीरू स्वभाव के होते हैं कि उनके आगे एक प्रश्न तक नहीं करते और न ही हम परम्पराओं के मूल में क्या है? को पूरी तरह जान पाते हैं।   न ही हम उत्तर देने लायक होते हैं ।  और न ही प्रश्न गठित करने की हिम्मत जुटा पाते हैं।   हम तो बस उसे धार्मिक इकाई के रूप में आँख बंद कर अपना लेते हैं। हम इतने नासमझ होते हैं कि जो परंपरा हम अपनाने जा रहे होते हैं उससे फ़ायदा क्या होगा ? (फायदा का तात्पर्य यहाँ आत्मिक समझ और सबलता से है ।)  क्या जिन बातों और मान्यताओं को   हम आत्मसात कर रहे हैं , उनसे हमारा जीवन साफ़-सुथरा बन सकेगा ? क्या कभी भी हमें आत्मग्लानि से मुखातिब नहीं होना पड़ेगा ? जैसे प्रश्न पूछे बिना ही उन्हें अपनाकर अपना मौलिक जीवन स्वाहा कर देते हैं। भारतीय परम्पराओं में सिर्फ देवी-देवता