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चार दिन की मेहमान

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एक बार फिर सरकार की तरफ़ से नया नियम-कानून पारित कर दिया गया है। उसके तहत लड़कियों की शादी की उम्र  18  से बढ़ाकर  21  वर्ष कर दी गई है। नहीं पता कितने इस नियम पर चलेंगे और कितने इसे तोड़ेंगे। हमेशा की तरह कितनी लडकियाँ अपना जीवन कुशलता से जी पाएँगी और कितनी अपनों के हाथों से ही हलाल कर दी जाएँगी ,  कोई नहीं जानता। क्योंकि नियम बनाने वाले ,  लोगों का नज़रिया नहीं बदल सकते। समाज की सोच तो वही रहने वाली है ," नियम बनते ही हैं तोड़ने के लिए।"   बहुत पीछे न जाकर सिर्फ तीन से चार दशक पीछे मुड़कर देखा जाए तब भी लडकियों की शादी की आयु भले  18  वर्ष की थी लेकिन कितनी लडकियाँ कच्ची उम्र में ब्याह दी गईं ,  किसके पास उसका हिसाब-किताब है। जिन छोटी-छोटी बच्चियों को अपना होना तक समझ नहीं आता था ,  उन्हें समझने के लिए ऐसे परिवारों का सिरा पकड़ा दिया जाता रहा जो पूरी तरह अंजान और उनकी दैनिकी से भिन्न होता था। जबकि घर वर ढूंढने की जिम्मेदारी जन्मदाता के पास सुरक्षित थी लेकिन अपनी आफत उतारने की जल्दी में वे सब ताक पर रखकर गंगा नहाकर फारिग हो जाते रहे और मजबूरी का नाम महात्मा गांधी ,  लड़कियों