मन के गाँव में पिता

हरिभूमि में प्रकाशित 10 जून 2025 पिता—कभी अनुशासन की छाया, कभी मौन की छाया, और अब डिजिटल दृश्यता की चमक में उलझी एक बदलती भूमिका।यह लेख उस यात्रा की पड़ताल है जहाँ पिता केवल पालनकर्ता नहीं, अब भावनात्मक सहभागी बनने की जद्दोजहद में हैं। इस समय-साक्षी लेख, अतीत, वर्तमान और भविष्य — तीनों में पिताओं को पढ़ सकते हैं। ‘पिता’ कोई छोटा-सा शब्द नहीं,भारतीय परंपरा में पिता को ब्रह्मा कहा गया है। नीली छतरी वाले के बाद पालनहार इसी व्यक्ति को माना गया है। इस सबके बाद भी समय की धुरी पर सभ्यता का रथ ज्यों-ज्यों घूमता गया, पिता की छवि बदलती गई। तब और अब के पिता में मुहर कौड़ी का अंतर आ गया है। पिता की भूमिकाएँ रिफाइन होती जा रही हैं। आज के पिता की तुलना में तब के पिता को याद करें तो एक ऐसा व्यक्ति याद आता है, जिसके गंभीर चेहरे पर ऊपर की ओर तनी भवें और आँखों के किनारों में आक्रोश का गुवार भरा हुआ दिखता था, याद आता है। हँसी-मज़ाक की बात पूछना-करना तो दूर, सीधी बात पूछने में भी बच्चों के आसन ढीले होते थे। फिर भी विगत सदी के परिवारों की रीढ़, पिता ही होते थे। माँ सहित बच...