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Showing posts from July 4, 2020

भीगती हूँ मैं

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भीगती हूँ मैं! बिना बरसात के भी मन की गहराइयों तक आये दिन  कभी-कभी लगातार जब देखती हूँ छोटी-छोटी आँखों को  झुर्रियों का भार उठाकर दो निवालों का  इंतजाम करते  चौराहों पर सन्नाटे की आगोश में सिसकते  उन बच्चों को देखकर भीगती हूं जिनके विरोध के बावजूद भी दिया जाता है नशा तरह तरह का और जब वे हो जाते हैं आदी नशे के तब तड़पाया जाता उन्हें नशे के लिए नशा देने वाले जानते हैं तड़पन की कीमत नशेड़ी बच्चे करते हैं उस तड़पन में वे सारे काम जिससे हो जाती है शर्मसार इंसानियत मैं भीगती हूँ देखकर खून के उन धब्बों को जो किसी चिड़िया के स्वयं का जीवन बचाने की जद्दोजहद में निकल कर गिरा होगा जमीन पर उसके नाज़ुक परों से सटे शारीर से मैं भीग-भीग जाती हूं हवाई अड्डे पर हाथ हिलाते उन बूढ़े बेबस  दम्पत्ति को देेखकर जिनको छोड़कर जा रहा होता है उनका कोई बहुत अपना उनसे दूर हां कभी-कभी भीगती हूँ मैं सावन की सुरमई बरसात में भी लेकिन ऐसा होता है ना के बराबर जब से छोड़ा है हाथ बचपन ने।

सुनो बसंत !

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सुनो बसंत तुम कहाँ से आते रहे हो हर बार इतनी ठंडी जमीन पर अनंत समय से शिशिर के जाने के बाद तुम्हारी मादकता में भूलकर करते हैं सभी रसपान लेकिन मेरी आँखें जब खोजतीं है तुम्हें हजार-हजार टहनियों पर न जाने मिलजाता है सूखे से भरा खेत कुनवे के उदास चेहरे में और मैं लग जाता हूँ पानी की जुगाड़ में भूल कर तुम्हें हे बसंत !! मैं खोना चाहता हूँ तुझमें इसका उदाहरण मेरी उदास बोझिल हँसी जिसे मैंने टांग दिया है करील के काँटों की खूंटी पर तुम्हारी खोज में कभी-कभी चिपका लेता हूँ अपने शुष्क होंठों के किनारों पर सुविधानुसार प्यारे बसंत !! मैंने सुना है कि तुम अपने ओज से भर देते हो ठूँठ में भी जीवन उसमें भी उभर आतीं हैं कलियाँ,पत्ते ,फूल और काँटे भी फोड़ कर कठोरता फिर क्यों बिसार दिया तुमने मेरा हृदय-ठूँठ जिसमें नहीं खिली है एक भी बसंती कली बसंत आने के बाद भी आज तक क्यों ?

देखतीं रहती हैं

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कभी देखा है  दीवारों को मुस्कराते हुए वे खड़ी हैं साधे मौन सन्नाटे में तब से जब से मानव का पुतला सभ्य हुआ है  तब से लेकर आज तक  दीवारों ने ही ढकी है बिना शर्त हर उस चीज को जो रहना चाहती सुरक्षित नारी की अस्मिता  बूचड़-खाने की मौन चीखें  दो निवाले जुटाने के लिए गैरों के सामने  देह परोसतीं बेबस लाचार  जड़वत महिलाएं को  ये दीवारें देखतीं रहती हैं टुकर टुकर हजारों अनदेखे उन चित्रों को भी जो रंग भरे बिना ही मिटा दिए गये सुनती रहती हैं अनगिनत भदेश कनाफूशियों को स्थिरता से तभी तो बन गया है उनका कलेजा पत्थर का लेकिन जब-जब गूँजती है किलकारी से उन पथरीली दीवारों में तो उनकी सूखी छाती में भी उतर आता है दूध खिलखिला उठतीं हैं वे सतरंगे गुलाब की तरह  पलकों में उत्साह लिए वे झुक झुक समेटतीं रहती हैं घुटनों के नीचे की धूल   तब दीवारों से घिरा आँगन खूब पसरता है हजारों किस्से लिए सोता-जागता रहता है नव दुल्हन सी शर्म ओढ़े  कलेजा तो तब दहल उठता है दीवारों का  जब वे देखतीं हैं किसी उम्रदराज दंपति को बंटते हुए काँपते

अँधेरी कारा

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नारी की नीरव अँधेरी कारा में रूढ़ियों की अल्पनाओं में फँसे उसके विलगित मन को उबारने की जिद्दोजहद में  चाँद आज खुद आया है  उजाला भरने अँधेरे में लिप्त अस्तित्व हीना  चौधिया गई  पाकर खुद को उजाले में  अधेरी कोठरी में जन्मी स्त्री  पूछ बैठी अबोले होंठों से , क्या ये भी मेरे जीवन का हिस्सा है पुरुषों की जमात से कुछ लम्हे  चुरा कर लाने वाला चाँद मुस्कुराया खुशी की चमकती कोर देख  स्त्री रूपी वस्तु ,खिल उठी  पीतल की थाली चमक उठी फूल की कटोरी सी सिर्फ वस्तु समझी जाने वाली स्त्री  तरस गई थी  अपने ही अस्तित्व से रु-ब-रु  होने के लिए जिसने जो बनाया वह बनती चली गई  मूक बधिरों की तरह ईंट के ऊपर रखी ईंट स्त्री ने देखकर आकाशी चाँद जल्द ही बना लिया अपना चाँद उस अँधेरी कारा के लिए जो मिली थी उजाले की गोद में अहिल्या को |