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Showing posts from August 12, 2024

असमानतामूलक समाज में सहजीवन की चाह

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                                                                                              जेंडर असमानतामूलक समाज में अवधारणाएँ निर्धारित करते हुए— स्त्री-पुरुष को सहजीवन , सहयात्री , प्रेमिल साथी के रूप में न देखते हुए , एक-दूसरे का विरोधी बताया गया। विरोध ऐसा जो कभी सुबोध न बन सका। कभी भी कटुता की वल्गाएँ किसी ने ढीली छोड़ी ही नहीं। ऐसी स्थितियों में एक बार जब विरोधी भाव पनप गया हो तो सद्भावना को प्राप्त करना दुष्कर होता है। फिर चाहे व्यक्ति हो , वस्तु हो या कुछ भी…।   विरोध में निर्माण की उम्मीद करना समुद्र में नदी खोजने जैसा उपक्रम ही है।       प्रकृति अपने प्रत्येक उपादानों में नर-मादा की परिकल्पना करते हुए , यथार्थ को बुनती है। नैसर्गिक हरी आँख नर-मादा में कोई भेद नहीं करती। प्राकृतिक निर्मितियों में सहजता से जीवन का आवाहन और विसर्जित होने का नाम ही संसार के साथ तादात्मीय भाव है। मनुष्य प्रकृति का अभिन्न साथी है। ऐसी सुंदर सृष्टि के निर्माण में सहभागी स्त्री-पुरुष को विध्वंस के मुहाने पर फिर किसने बैठा दिया ? किसने उन्हें एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया ? प्रश्न बार-बार उठत

स्त्री-पुरुष के जीवन युद्धों को संदर्भित करते कथा संग्रह

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    भावना प्रकाशन से प्रकाशित  हिंसक, हिंसक होता है...    भाषा संवाद को जन्म देती है और संवाद की प्रगाढ़ता में मानवीय संबंध फलते , फूलते , मुखरित होते हैं। फिर भी यह कतई ज़रूरी नहीं कि हर कोई संवाद स्थापित करने में माहिर हो , जो अपनी पीड़ाओं , जिज्ञासाओं , निराशाओं और कुंठाओं को उजागर कर सके। तो क्या! अगर कोई अपनी वेदना कहने में असमर्थ-असहाय है! तो क्या उसकी पीड़ा अलक्षित व अदृश्य रह जायेगी ? नहीं। ऐसे में जो कहने में समर्थ हैं , उन्हें आगे आना होगा और स्वायत्तता तथा संप्रभुता की लड़ाई में पीड़ित के प्रति अपनी भूमिका निश्चित करनी होगी। वैसे साहित्य में लेखकों ने इसके बाबत लोक का ख़ासा ध्यान खींचा है और विमर्श के रूप में न जाने कितने-कितने पीड़ितों-वंचितों की जुबान बने हैं।      मैंने भी अपने संपादन में पुरुष-पीड़ा को रेखांकित करने का प्रयास किया है तथापि मेरे कार्य का अर्थ कतई ये नहीं है कि भारतीय समाज में स्त्री-पीड़ा पूर्ण रूपेण समाप्त हो चुकी है अगर ऐसा रहा होता तो वर्तमान साहित्य स्त्री-पीड़ा की कहानियों से भरा न रहा होता और नारी स्वतंत्र चेता बनकर अपने दायित्यों के क्रियान्वयन में निरत

कितनी कैदें

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                                                                                                                                                                  वे पीले पत्तों वाले तुर्श दिन थे। उमानिकेतन गाल फुलाए बच्चे जैसा दिख रहा था।    कभी अम्मा और बाबू के साथ मोहन भैया, माधव, मिन्नी दीदी और मैं, उसके रहवासी थे। मोहन भैया इलाहाबाद पढ़ने चले गए। हम बहनों की शादी हो गई। माधव अकेले बाबू का घर गुलज़ार किए था। हम चार भाई-बहनों में… मोहन भैया और मैं, अम्मा की तरह से थे। दीदी और माधव ने बाबू की शक्ल, अम्मा का रंग पाया था, साँवला।     हम भाई-बहनों पर अम्मा का दाय, बाबू से अधिक था। पर इस बात से बाबू इत्तिफ़ाक नहीं रखते थे। वे कहते– “आदमी हो या औरत दिमागदार को ही मान-सम्मान मिलता है। और मिलना भी चाहिए।”      बाबू के हिसाब से अम्मा इस मामले में थोड़ी पिछड़ गयी थीं। हम लोगों में दिमाग बाबू की देन थी। अम्मा अक्सर कहती थीं। बाबू का दिमाग़दार होना,उन्हें ख़ासा मोहता था। सुख-सुविधाओं के अंबार के बीच, उनका माथा गर्व से उठा रहता। इस बात का कतई अफ़सोस नहीं रहा उन्हें कि—दिन का एक भी पहर वे अपने मन से ख़र्