असमानतामूलक समाज में सहजीवन की चाह
जेंडर असमानतामूलक समाज में अवधारणाएँ निर्धारित करते हुए— स्त्री-पुरुष को सहजीवन , सहयात्री , प्रेमिल साथी के रूप में न देखते हुए , एक-दूसरे का विरोधी बताया गया। विरोध ऐसा जो कभी सुबोध न बन सका। कभी भी कटुता की वल्गाएँ किसी ने ढीली छोड़ी ही नहीं। ऐसी स्थितियों में एक बार जब विरोधी भाव पनप गया हो तो सद्भावना को प्राप्त करना दुष्कर होता है। फिर चाहे व्यक्ति हो , वस्तु हो या कुछ भी…। विरोध में निर्माण की उम्मीद करना समुद्र में नदी खोजने जैसा उपक्रम ही है। प्रकृति अपने प्रत्येक उपादानों में नर-मादा की परिकल्पना करते हुए , यथार्थ को बुनती है। नैसर्गिक हरी आँख नर-मादा में कोई भेद नहीं करती। प्राकृतिक निर्मितियों में सहजता से जीवन का आवाहन और विसर्जित होने का नाम ही संसार के साथ तादात्मीय भाव है। मनुष्य प्रकृति का अभिन्न साथी है। ऐसी सुंदर सृष्टि के निर्माण में सहभागी स्त्री-पुरुष को विध्वंस के मुहाने पर फिर किसने बैठा दिया ? किसने उन्हें एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया ? प्रश्न बार-बार उठत