स्त्री-पुरुष के जीवन युद्धों को संदर्भित करते कथा संग्रह
भावना प्रकाशन से प्रकाशित |
हिंसक, हिंसक होता है...
भाषा संवाद को जन्म देती है और संवाद की प्रगाढ़ता में मानवीय संबंध फलते,फूलते, मुखरित होते हैं। फिर भी यह कतई ज़रूरी नहीं
कि हर कोई संवाद स्थापित करने में माहिर हो,जो अपनी पीड़ाओं,
जिज्ञासाओं, निराशाओं और कुंठाओं को उजागर कर
सके। तो क्या! अगर कोई अपनी वेदना कहने में असमर्थ-असहाय है! तो क्या उसकी पीड़ा
अलक्षित व अदृश्य रह जायेगी? नहीं। ऐसे में जो कहने में
समर्थ हैं, उन्हें आगे आना होगा और स्वायत्तता तथा संप्रभुता
की लड़ाई में पीड़ित के प्रति अपनी भूमिका निश्चित करनी होगी। वैसे साहित्य में
लेखकों ने इसके बाबत लोक का ख़ासा ध्यान खींचा है और विमर्श के रूप में न जाने
कितने-कितने पीड़ितों-वंचितों की जुबान बने हैं।
मैंने भी
अपने संपादन में पुरुष-पीड़ा को रेखांकित करने का प्रयास किया है तथापि मेरे कार्य
का अर्थ कतई ये नहीं है कि भारतीय समाज में स्त्री-पीड़ा पूर्ण रूपेण समाप्त हो
चुकी है अगर ऐसा रहा होता तो वर्तमान साहित्य स्त्री-पीड़ा की कहानियों से भरा न
रहा होता और नारी स्वतंत्र चेता बनकर अपने दायित्यों के क्रियान्वयन में निरत
रहती। जिस तरह स्त्री वर्ग पीड़ित-शोषित है,उसी क्रम में
पुरुष वर्ग की भी अनेक समस्याएँ हैं और ये आज का नहीं, सदियों
से चला आ रहा क्रम है। हाँ, ये
ज़रूर है पुरुष वर्ग की क्रूरताएँ इतनी ज्यादा मात्रा में थीं कि समानुपातिक दृष्टि
रखने वालों ने पीड़ित पुरुषों को प्रमुखता से नहीं देखा-सुना। वैसे देखा जाए तो
लेखक जब कलम उठाता है तो वह विमर्शों को ध्यान में न रखते हुए व्यक्ति की पीड़ा को
लिखता है। अगर ऐसा न होता तो ‘वापसी’ ‘और
कुत्ता मान गया, ‘चिरप्रतीक्षित’ जैसी
कहानियाँ तो बहुत पहले न लिख ली गयी होतीं। कहानी को विमर्शों में बाँटकर देखने की
आँख समीक्षकों और आलोचकों ने दी हैं। उन्हीं आलोचकों ने ‘विमर्श’
नमक शब्द वजूद में लाये। स्त्री-विमर्श और अब यदि पुरुष पीड़ा को
‘पुरुष-विमर्श’ में बाँधने का प्रयास हुआ तो
इसे मैं इजी-गोइंग एप्रोच ही कहूँगी, जिसने एक ओर कहानी को
उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य से वंचित रखा, वहीं दूसरी ओर लेखक
को एक बंधे-बंधाएँ दृष्टिकोण की परिधि में कसकर उसकी वैचारिक और शैल्पिक विविधता
को ठोस कर दिया गया।
उदाहरण के तौर
पर ‘स्त्री-विमर्श’ के दायरे में सिमटी ज्यादातर
कहानियाँ स्त्री की देह को मध्य में रखती हैं, जिसे पुरुषों
के द्वारा क्षति पहुँचाई जाती है। जबकि नर-पीड़ा की तरह नारी-पीड़ा के भी विविध
पक्षीय आयाम होते हैं, जिन्हें नज़रंदाज़ कर सिर्फ़ पुरुष के
हाथों पीड़ित नारी को ही नारी-विमर्श मान लिया जाता है। अब–जब पुरुष-पीड़ा मुखर
होने का दौर शुरू होने जा रहा है तो क्या उलट कर उसे भी “पुरुष
विमर्श” कह दिया जाए? क्या समाज में
स्त्री के द्वारा सताए पुरुष ही पीड़ित हैं? के इर्द-गिर्द
तक लेखन सीमित कर दिया जाए? नहीं।
1949 में सिमोन द
बोउवार की किताब दि सेकेंड सेक्स में लिखा है कि,”स्त्री
जन्म नहीं लेती बल्कि बनाई जाती है।” क्या ये तथ्य पुरुष पर
लागू नहीं होता? मैं तो कहती हूँ कि जिस तरह सिरज-सिरज कर एक
बालिका को कमज़ोर हृदय, दब्बू स्त्री में तब्दील कर दिया जाता
है, उसी तरह अनजाने में पितृसत्तात्मक तौर-तरीकों में निबद्ध
कर धीरे-धीरे फौलादी बनाने के जूनून में पुरुष को कठोर-हृदय, रूढ़िवादी एवं स्त्री-शोषक बना दिया जाता है। दरअसल रिश्तों के ताने-बाने
में उलझे स्त्री-पुरुष दोनों पीड़ित हो सकते हैं क्योंकि कुरीतियाँ, रूढ़ियाँ, वैमनष्यता और जड़ता किसी के भी प्रति हो उसे
उजागर होना चाहिए। स्त्री और लेखक होने के नाते जितनी परेशान मैं किसी स्त्री की
पीड़ा से होती हूँ, किसी अबोले जीव, प्रकृति,
पहाड़ की पीड़ा देखकर विचलित होती हूँ, उतना ही
समाज में पीड़ित-शोषित पुरुष वर्ग को देखकर भी होती हूँ।
शोषण किसी का भी
हो सकता है। शोषित कोई भी हो सकता है।
जब ये विचार मन में उठा तो एक प्रश्न सामने आया कि बेचारी स्त्री को हक़
दिलाने के प्रयास में जुटी दुनिया कहीं पुरुषों के पक्ष में संवेदनहीन तो नहीं
होती जा रही है? स्त्री की हज़ार-हज़ार बोलती समस्याओं के मध्य
उन मौन पुरुषों का दर्द कहीं अनसुना-अनदेखा तो नहीं छूट रहा है ? जो अपने घर, परिवार, रिश्तेदारों,
दफ़तर और अपनी औलाद के द्वारा तिल-तिल कुचल कर छोड़े जा रहे हैं और
उनकी कराह को सुनने वाला कोई नहीं है। क्यों ? क्योंकि
पितृसत्ता के अधिनायकों ने अपनी पुरुष क्रूर छवि को अपने ही हाथों गढ़ा है। लेकिन
हम ये क्यों भूल जाएँ कि सौ प्रतिशत कोई बुरा-अच्छा नहीं होता है।
भावना प्रकाशन से प्रकाशित |
इस बिना पर मानवता की मुकम्मल तस्वीर देखने के आकांक्षी जनों को मानवीय
तस्वीर का यह हिस्सा भी ज़रूर देखना चाहिए। यानी तस्वीर का वह भाग जो घृणा,भर्त्सना सहकर उपेक्षित होने को मजबूर है, या किया
जा रहा है। बदलते समाजिक विकसित समीकरणों के परिप्रेक्ष्य में ये असंतुलन कुछ
ज्यादा ही बढ़ता हुआ नज़र आने लगा है। आने वाले समय में और भी बढ़ने की भरपूर गुंजाइश
लिए हुए है।
एक तरफ मणिपुर की सिसकियाँ अभी भी बदस्तूर हृदय में कौंध जाती हैं। वहीं
दूसरी ओर अच्छे भले, सही रास्ते पर चलने वाले पति को पत्नी
के द्वारा पुलिस, थाना और महिला आयोग की धमकियाँ मिल रही
हैं। समय भौंचक है,अपनी ही विकसित उन्नत चाल पर। मानवता का
हमदर्द अगर मदद के लिए हाथ उठाए भी तो किसके लिए रोए और किसके लिए आक्रोशित हो ?
स्त्री-पुरुष यानी सिक्के के दो पहलू! संसार की दो प्रमुख इकाइयाँ! जिनके
द्वारा प्रकृति अपना उद्देश्य पूरा करती है। उन दोनों के समानांतर चलने से
घर-परिवार जैसी संकल्पना सधती है और हम सामाजिक प्राणी कहलाने योग्य बनते हैं।
शिव और
शक्ति की अपनी-अपनी सत्ताएँ हैं और होनी भी चाहिए। शिव, शक्ति
की सत्ता का अपहरण नहीं कर सकते तो शक्ति को भी चाहिए कि वे शिव की सत्ता क्यूँकर
छीने।
इस सबके बावजूद भारतीय समाज में ‘पितृसत्ता’ ने सदियों से ‘मातृसत्ता’ पर
जमकर कहर बरपाया है और आज भी बरपा रहा है। अमंगलकारी इसी असमता मूलक कुचक्र को
तोड़ने के लिए सरकारी-गैरसरकारी संगठनों ने स्त्री के प्रति सुरक्षा व्यवस्था कड़ी
कर उन्हें सहारा दिया और कई पुख़्ता कानून बनाए। दुखी, सताई,
ठगी अबला स्त्रियों को कानून ने खूब-खूब संबल देने के कदम उठाये।
यहाँ तक तस्वीर ठीक-सी लगती है। क्योंकि जो भी गुनहगार हो उसे सजा मिलनी ही चाहिए।
लेकिन कानून की धाराओं में बहकर कानून की धार को कोई अपनी तरह से पैना करने लगे तो
आगामी पीढ़ियों के लिए उचित नहीं होगा क्योंकि हिंसक, हिंसक
होता है, वह न स्त्री होता है और न ही पुरुष…!
हिंसा से घृणा करने वाली स्त्री आज कैसे हिंसा की पैरोकार बन गई? कैसा तो लगता है 'हिंसक' शब्द....!
कानून का सहारा लेकर अपने इर्दगिर्द रहने वाले पुरुषों को छोटी-छोटी चीज़ों के लिए
जैसे–गहने, कपड़े, गाड़ी,घर, पति के परिवार से विच्छेद आदि के लिए स्त्रियाँ
माँग करने लगी हैं। इसी के जद में आये और सताए पुरुषों से जब मैंने बात करना आरम्भ
किया तो एक नहीं, कई-कई पुरुष अवसाद में घिरे मिले, कुछ स्मृतिलोप के शिकार मिले तो कुछ हार्ट के मरीज़ होकर घबराहट में जीवन
गुजारने पर मजबूर मिले। इतना ही नहीं कुछ तो छोटी-छोटी आहट और तेज़ आवाज से
पसीने-पसीने होते हुए भी मिले।
अत्याचार शब्द
सब के लिए अशोभनीय है।
साहित्य
के पास विसंगतियों से निपटने के लिए अपना कोई हथियार नहीं, सिवाय
इसके कि साहित्यिक माध्यम से जागरूक लेखक इस ओर लोगों का ध्यान इंगित करें। सुधार
की मनोवृत्ति सबके लिए सबको बनानी पड़ेगी। बुराई से हम सबको लड़ना पड़ेगा क्योंकि
एक सुंदर समाज के लिए स्त्री-पुरुष दोनों का बराबरी पर खड़ा होना बहुत ज़रूरी है।
पहली बार ये बात तब और गहराई से मेरे मन में उपजी जब ‘दामिनी’
के साथ हुई दरिंदगी से निशब्द होकर दुनिया की स्त्रियाँ तड़प रही
थीं। उसी समय जहाँ मैं रह रही थी, पड़ोस के घर में बहू के
द्वारा दहेज़ लेने और अत्याचार करने का ममला पुलिस-थाने में दर्ज करवाया गया।
फाँसी पर लटकने वाली महिला का पति के प्रति आख़िरी बयान था कि उसका पति उसे हनीमून
पर नहीं ले गया और रोज़ ऑफिस से लौटकर उसे गोलगप्पे खिलाने नहीं ले जाता रहा था।
इन दो बातों को उस मरने वाली स्त्री ने इतनी बड़ी समस्या मान लिया कि उसने अपनी जान
ही दे दी। उसके बाद भी मसला हल नहीं हुआ। लड़की के पिता ने इकतरफ़ा संज्ञान लेते हुए
ससुराल वालों के खिलाफ़ दहेज का मामला दर्ज करवा दिया। इधर दिल्ली में स्त्री
संत्रास का तांडव मचा था, उधर उस परिवार में निशब्द कर देने
वाली चीत्कार के साथ छोटे-बड़े सभी जेल जा रहे थे। दूसरी बार मैं तब जड़ों से हिल
गयी, जब कॉलेज में पढ़ रहे एक युवक की गर्लफ्रैंड के द्वारा
सताए जाने या अति प्रेम किए जाने पर एक असहाय गरीब माँ ने अपने बेटे को पहले अवसाद
में जाते हुए देखा फिर दुनिया से......! बस उसके बाद मेरे मन में प्राणी मात्र के
लिए जो दर्द उमड़ा, वह अकथनीय पीड़ा में बदलता चला गया।
पहले
मेरा मन ‘सहमें हुए लड़के’ शीर्षक से
उपन्यास या कहानी लिखने का हुआ था, पर लिख नहीं सकी। कोरोना
काल में मैंने एक-दो मित्रों को आवाज़ दी कि क्यों न हम मिलकर ‘सहमे हुए लड़के’ विषय पर उपन्यास लिखें। लेकिन वह भी
संभव नहीं हो सका।
दीपिका नारायण
भारद्वाज एक जानी-मानी मेंस राइट्स एक्टिविस्ट,जर्नलिस्ट और
डाक्यूमेंट्री मेकर हैं। 2016 में उन्होंने अपनी पहली
डाक्यूमेंट्री ‘मार्टर्स ऑफ मैरिज’(Martyrs of
Marriage) प्रोड्यूस की थी, जिसमें लड़की और
उनकी फैमिली द्वारा क्रिमिनल सेक्शन 498A का दुरुपयोग दिखाया
गया है। ‘मार्टर्स ऑफ मैरिज’ के बाद
उनकी दूसरी डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘इंडियाज संस’ का प्रीमियर मुंबई में हुआ। इसी तरह के उदाहरणों ने उन्हें भी विचलित किया
होगा।
किसी भी विशेष कार्य के लिए जब अंतर प्रेरणा कार्य करती है, तब क्रियान्वयन के लिए समय विधि निर्मित कर
देता है। मेरे साथ भी वही हुआ और बहुत सोचने के बाद भी जिस काम को नहीं कर पा रही
थी, उसे 2021 में कृष्णा श्रीवास्तव जी
से पुरुष-पीड़ा की बात करते हुए मात्र उनके ये कह देने भर से कि,”आप आगे बढ़ें, मैं आपके साथ हूँ” – मैंने पुरुष पीड़ा पर कार्य करना शुरू कर दिया। इस क्रम में जब कहानियों की
खोज शुरू की तो सबसे पहले उषा प्रियम्वदा की कहानी ‘वापसी’,
सूर्यबाला जी की कहानी ‘सिर्फ़ मैं’,अवध मुद्गल की कहानी ‘और कुत्ता मान गया’ तक जब मामला पहुँचा तो पता चला कि नासिरा शर्मा जी ने भी इस विषय पर कहानी
लिखी है। मैंने उनसे संपर्क साधने की कोशिश की। नासिरा शर्मा जी ने सबसे पहले मेरे
विचार जानने चाहे कि मैं पुरुष पीड़ा को समझती कैसे हूँ? जब
मैंने स्त्री पीड़ा से होते हुए पुरुष पीड़ा की बात उनसे कही तो उन्होंने बताया कि
जिस कार्य को करने का मैंने मन बनाया है, उसे वे नब्बे के
दशक से कहती और करती आ रही हैं। मेरी उम्र और नासिरा शर्मा जी की उम्र में दो से
ढाई दशक का अंतर है लेकिन हमारी सोचने और चिंतनशीलता की दिशा एक-सी देखकर मुझे
सुखद आश्चर्य हुआ।
उसके
बाद मैंने उनके लेखन को पढ़ना शुरू किया तो देखा वे पीड़ा और दर्द की पैरोकार है,
स्त्री-पुरुष में भेद नहीं करती हैं। अपनी निबंधात्मक पुस्तक
‘मैंने सपना देखा’ में वे लिखती हैं, “समय को जब मैं यूँ गुजरते हुए देखती हूँ तो सोच में पड़ जाती हूँ कि एक
लेखक क्या बिना ‘वाद’ या ‘विमर्श’ के अपनी अभिव्यक्ति की शक्ति को कमतर आँकने
लगा है या केवल यही सोच रहा है कि वह कैसे अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करे?
क्या वह खुली आँखों से समाज की उन सच्चाइयों को नहीं देख पा रहा है
जहाँ औरत-मर्द दोनों शोषित हैं? क्या अपने तक सीमित रहने
वालों को यह नजर नहीं आ रहा है कि मर्दों ने कब और कहाँ औरतों का पक्ष लिया?
हर मर्द बलात्कारी, तेजाब फेंकने वाला अपराधी
प्रेमी नहीं होता है। वह नाकाम और बेचारा भी होता है।”
इसे पढ़कर मैंने
अपनी सोच में संबल महसूस किया।
जब उनसे दुबारा
बात हुई तो उन्होंने अपनी कहानी ’कभी न खत्म होने वाली प्रेम कथा’
के साथ एक लम्बा साक्षात्कार भी मुझे दिया। जिसमें मैंने
स्त्री-पीड़ा, पुरुष-पीड़ा, स्थान भेद,
भाषा भेद, लैंगिक असमानता की मूल वजहों पर
उनसे बातें की। उन्होंने मेरे सभी प्रश्नों को सामयिक मानते हुए उत्तर दिए।
ये हर्ष की
बात है कि जहाँ मुझे वरिष्ठ रचनाकारों का आशीष मिला, वहीं
साथी रचनाकारों की भी शुभकामनाएँ प्राप्त होती रहीं, चाहे
काहनी के तौर पर हो या किसी विचार,सुझाव या टिप्पणी के तौर
पर।
इस संकलन के लिए
कुछ कहानियाँ प्राप्त हुईं और कुछ लेखक मित्रों से आग्रह के साथ लिखवानी पड़ी।
इस संग्रह में
उषा प्रिम्वदा /अवध नारायण मुद्गल/ नासिरा शर्मा / सूर्यबाला/ बलराम / कामतानाथ/
कृष्ण बिहारी / सुनील श्रीवास्तव/ तेजेंद्र शर्मा / अरुण सबरवाल/ शशि श्रीवास्तव /
दयानंद पाण्डेय/ गिरजा कुलश्रेष्ठ / लक्ष्मी शर्मा/ सुधा ओम
ढींगरा/ गिरश पंकज/ सूरज प्रकाश / मनीष वैद्य/ सुषमा
मुनीन्द्र/ रजनी गुप्त / वंदना गुप्ता / वंदना बाजपेयी/ प्रगति गुप्ता/ आशा
पाण्डेय/ निर्देश निधि /प्रमोद भार्गव/ संतोष श्रीवास्तव / रश्मि रविजा/ पंकज
सुबीर/ नीरजा हेमेंद्र/ प्रेम गुप्ता मानी/ नीरज शर्मा/ रीता गुप्ता/ सरिता
कुमारी/ प्रियंका गुप्ता/ सुषमा गुप्ता/ सुबोध चतुर्वेदी/ राजेन्द्र सिंह गहलौत/
हरिदास/सत्या कीर्ति/ शामिल हैं।
मैं इन सभी
रचनाकारों के प्रति दिल से कृतज्ञ हूँ, जिनके सहयोग की वजह
से ही ये संकलन मूर्त रूप ले सके। कृतज्ञ मैं भावना प्रकाशन के कर्ता-धर्ता नीरज
मित्तल के प्रति भी हूँ, जिन्होंने इन्हें प्रकाशित कर
पाठकों तक पहुँचाया।
अब ये दोनों संकलन
पाठकों के हाथ में ……!
कल्पना मनोरमा
01 जनवरी 2024
आपने एक अति महत्वपूर्ण समस्या पर ध्यान आकर्षित किया है, शोषण किसी का भी हो सकता है
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