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Showing posts from November 30, 2023

विकसित भारत की खूबसूरत तस्वीर....

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मुंबई थाणे    विकसित भारत की खूबसूरत तस्वीर.... फ्लैट कल्चर यानी उधार की संस्कृति। सभ्याता नकलची है। सभ्यता इतनी उत्साही और जुनीनी है कि बस पूछो ही मत! सभ्यता ने ही पराई संस्कृति को अपनाकर मनुष्य को अपने आपको प्राइवेट करना सिखाया। आत्मकेंद्रित प्रोग्रेसिव नज़रिया अख़्तियार करने को बाध्य किया। बात यहीं तक नहीं थमती। सेल्फ प्राइवेसी के भूत ने मां बाप से बच्चे छीन लिए और बुजुर्गों के आशिर्वाद , अनुभव और संवाद की तहजीब से बच्चों को वंचित कर दिया। " लोग क्या कहेंगे ?" आज भले इस वाक्य को रूढ़ी से जोड़ दिया गया है लेकिन गए वक्त में ये वाक्य उन व्यक्तियों के लिए चाबुक का काम करता था जो असामाजिक थे। वे सामाजिक नकेल "लोग क्या कहेंगे ?" के डर से ही सही , रास्ते से भटकने से बच जाते थे। आज का नारा "लोग जायें भाड़ में हमें जो पसन्द हम वही करेगें।" ये निर्भयता फ्लैट कल्चर ने दी और भारत में अकरणीय कार्य धड़ल्ले से किए जाने लगे। इतिहास गवाह है कि हड़प्पन सिविलाइजेशन के बाद वैदिक काल का आगाज़ हुआ था। ये कंप्यूटर काल चल रहा है। हो सकता है कि आदमी ऊब कर फिर

आने वाले परिवर्तन की कहानी - गुनिता की गुड़िया

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  इसी अंक में प्रकाशित कहानी  वनमाली कथा पत्रिका के अक्तूबर अंक में आई कहानी "गुनिता की गुड़िया" आज अंतर्राष्ट्रीय विश्व मैत्रीय मंच पर "दो कहानी , दो समीक्ष" कार्यक्रम में पढ़ी गई और उसपर चर्चा हुई। " गुनिता की गुड़िया" कहानी की समीक्षक थीं Shakun Mittal जी! हार्दिक आभार के साथ उनकी समीक्षा लगा रही हूं। ******* गुनिता की गुड़िया कहानी पर समीक्षा शकुंतला मित्तल जी कल्पना मनोरमा जी की कहानी "गुनीता की गुड़िया" तीन पीढ़ियों के संबंधों , चिंतन में आने वाले परिवर्तन या कहना चाहिए अंतराल और बदलती हुई सोच के ताने बानों से बुनी हुई नारी विमर्श की बहुत ही खूबसूरत कहानी है , जिसके पात्रों का गठन बहुत मनोवैज्ञानिक ढंग से और खूबसूरती से कल्पना मनोरमा जी ने किया है। यथार्थ धरातल पर स्त्री विमर्श का एक पहलू यह भी है कि स्त्री अपने बुनियादी रूप में न्यूनतम मानवाधिकार एवं अस्मिता के लिए जूझ रही हैं । कहानी में गुनिता ने कन्या भ्रूण हत्या में शामिल पिता और घर में अधिकारों से वंचित गूंगी बहरी बनी , घर में कैद प्रताड़ना सहती , न्याय से वंचित घुट घुट कर

प्रेम

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  बात हनुमान महाराज की नहीं , उन्हें तो पुराणों और भारतीय संस्कृति में अद्भुत और प्रणम्य बताया ही गया है। बात समूह की है , रोशनी की है , हरियाली की है , पादपों के एक जुटता की है। रोशनी के महत्व को दर्शाने , बढ़ाने , दिखाने में अंधकार के समर्पण की है। रात आने पर अंधेरा अगर मुकर जाए अपने अस्तित्व से तो क्या रात उतनी दयालु , सहनशील और एकाग्र हो सकती है ? सूरज का महत्व बड़ा हो सकता है ? तो बात अपने अस्तित्व में टिके रहने की होती है। अपने स्वरूप को सजाए रखने की होती है। रोशनी जब उतरती है आसमान से तो वह अंधेरे को चीरती नहीं बल्कि बहुत अपनेपन से उसके मस्तक पर अपना हाथ रखती है और अंधेरा उसके प्रेम में पिघल जाता है। जानते हो क्यों ? क्योंकि प्रेम क्रियाशीलता को द्विगुणित करता है। उसी तरह समूह के सौंदर्य को अगर देखा जाए तो आकाश में तारे , जंगल में वृक्ष , और हाथ में उंगलियों की एक जुटता शोभन है। सोचो अगर हमारे हाथ में उंगलियां न होती या उनमें एक दूसरे के प्रति लगाव न होता तो क्या होता ? बताने की जरूरत नहीं। बात एकता में शक्ति की है , समय के दयार में जीवित बने रहने के भरोसे की है

कलयुग की सीताजी

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  CP दिल्ली में कलयुग की सीताजी। कलयुग इसलिए कहा क्योंकि त्रिजटा का स्थान अब मोबाइल ने पूरी तरह घेर लिया है। त्रेता युग में जब जनकनंदनी एकांत में प्रेम और परिवार से दूर रहीं तब उनके एकांत और डरे हुए समय में त्रिजटा नामक राक्षसी उनके विश्वास और प्रेम को क्षय होने से बचाती रहीं। यानी आज भी एकांत के नाज़ुक चेहरे को हमारी क्रूर यानी भावनात्मक इंद्रियां त्रस्त करने के लिए उतावली रहती हैं। हर वक्त हमारे मनोबल को तोड़ने में जुटी रहती हैं। कहते हैं न जिसने अपना एकांत संवार लिया , समझो उसने अपने जीवन को उन्मुक्त और सही दिशा की ओर मोड़ लिया। तो मैं कह रही थी कि हमारी कुछ क्रूर यानी भावनात्मक इन्द्रियों में एक त्रिजटा नामक इंद्रिय भी होती है जो हमें सही गलत का बोध कराते हुए बाह्य और आंतरिक जीवन को सुरक्षा प्रदान करती रहती है , बस , मोबाइल ने उसी को मार गिराया है। अब हम बेहद अकेले और निरीह होते जा रहे हैं। रावणनुमा भावनात्मक दवाब पड़ते ही हम टूटने लगते हैं। चलते चलते थकने पर मुझे कहा गया कि मैं यहां बैठकर थोड़ा सुस्ता....!  

प्रेम पारखी

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  सुनो प्रेम पारखी इसकी-उसकी जिसकी आंखों में झांकना बंद करो कभी मिलो अपने आप से अकेले में बिल्कुल बेपर्दा होकर कि छिटक गए हो तुम ख़ुद से कहीं दूर जिन दृश्यों को तुम खखोलते हो दिन भर , दोपहर भर , रात भर प्रेम उनमें है ही नहीं प्रेम दृश्यों के पीछे बहता है तरलता लिए हुए तुम्हारी नज़र ठोस को ही तलाशती और पकड़ पाती हैं तुम्हें बेवजह प्रेम खोजने की आदत नहीं और वजह प्रेम को पसन्द नहीं समझे!  

धोखा

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  स्त्री संघर्षों से नहीं                          आडंबर और दिखावे से डरती है स्त्री कुप्यार से नहीं , किसी अपने की                               बेईमानी से सहम जाती है                           जो स्त्री धोखा सहन नहीं कर पाती                             ज़िंदा रहकर भी मर जाती है।  

रामजी की गउएँ

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  " रामजी की गउएँ " कहानी का कथांश.... स्वीकृत। सुनो बेटा! मुश्किलों से भागना नहीं , डटकर मुकाबला करना होता है। याद करो बचपन में पड़ोस की लता आंटी का कुत्ता हमारे पीछे पड़ गया था और हम भाग रहे थे। कितने डरे और सहमे थे हम , फिर अचानक एक विचार मेरे मन में आया था कि जब कुत्ता हमें काट ही लेगा तो क्यों न हम एक बार खड़े होकर उसकी ओर घूरकर देखें। जैसे ही ये मैंने ये किया , कुत्ता दुम दबाकर पहले खड़ा-खड़ा भौंकता रहा फ़िर उल्टा पाँव भाग गया।   इस से कुछ समझे , दुनिया बुरी नहीं , लोगों की नियत बुरी होती है। और सबसे बड़ी बात ये कि हम उन्हें सुधार तो नहीं सकते और न ही अपना रास्ता बदल सकते हैं। तो हम जो कर सकते हैं , वह , अपने आप में स्थिर हो सकते हैं।   और जो तुम परीक्षा में पास-फेल की सोच कर हल्कान होते रहते हो , ये भी कोई जीवित रहने का मानदंड नहीं है इसलिए तुम्हें जो सीखना है वह , किसी भी स्थिति में अपने मन की बात सुनने की आदत डालना है।   लेकिन ये तभी होगा जब तुम संवेदनात्मक रूप से सचेत और जागरूक होगे क्योंकि मन भी बहुत ढुल-मुल चीज़ है ये खुद अपने ऊपर कई कई परतें ओढ़ लेत