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महोदय

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चित्र - अनुप्रिया  “ शादी , घर की हो या बाहर की , हज़ार काम लेकर आती है। क्या मिरचंदानी से खाते हुए चलें ? जल्दी सोयेंगे , तभी जल्दी घर से निकल सकेंगे। ” देवर की शादी के लिए शॉपिंग से लौटते हुए मैंने पति से कहा , उस पर आपने कहा। “ अरे यार! बाहर का खाना , नो - नो....। तुम चिंता मत करो , मैं मदद करूँगा , साथ में कॉफी पिएँगे और ढेर सारी बातें….छुट्टी पर हूँ न! ”     विश्वास मुझे करना था , सो कर लिया। फिर भी बंदा अगर एक चम्मच भी इधर से उठाकर उधर रख देता तो बुद्धू बनने का दुःख कम होता। ऊपर से ,” थकान ज्यादा है , इसलिए सोने जा रहा हूँ। वरना क्या मेरा साथ देते ?” नींद उड़ी आँखें और खिसियाया मन जब खर्राटों से विचलित होने लगा तो मैंने उनकी नाक दबा दी। आवाज़ से राहत तो मिली लेकिन थकी पलकें भीगती चली गईं। बेवक्त के हंगामें से नींद कोसों दूर छिटक गई। जल्दी से सॉरी बोलकर मैंने करवट बदल ली। साँसों का तूफान थमा तो सोने की कोशिश करने लगी। बहुत देर इधर-उधर करते हुए जब बिस्तर चुभने लगे तब घड़ी देखी ; सुबह के पाँच बज रहे थे। चुपचाप बालकनी में आकर बैठ गयी। झुँझलाहट भरी देह और सुबह की नरमाहट , बचपन की सुधियाँ