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Showing posts from June 21, 2020

स्त्री

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जैसे धरती में होता है थोड़ा -सा आकाश आकाश में थोड़ी-सी धरती वैसे ही हर स्त्री के भीतर होता है टुकड़ा भर पुरुष हर पुरुष के भीतर होती है टुकड़ा भर स्त्री इस बात पर पक्का यक़ीन कर हे स्त्री ! तुम खिलना फूल भर चलना रास्ता भर बहना पूरी धारा भर उगना सूर्य भर क्योंकि जब भी आये वक्त तुम्हारा होने को अस्त तो तुम्हारे अपने सो सकें नींद भर तुम्हारे बाद भी । -कल्पना मनोरमा 

जल्दी

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वह रोई जब-जब लोगों ने लगाया अनुमान अपने अनुसार बिना सोचे -समझे रख दिया गया उसके रोने को ईर्ष्या ,जलन और प्रतिस्पर्धा के दूसरे पल्ले में और लगा कर जोर तौल दिया गया वह बावरी देखती रही डबडबाई आँखों से  शायद अब कोई पूछेगा उससे उसके रोने का कारण तो बताएगी वह रोने का सही कारण लेकिन ये क्या ? लोगों को पूछने की नहीं होती है जल्दी अपनी कहने की । -कल्पना मनोरमा 

घोंसले की बुनाई

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एक घोंसले की बुनाई में बुन देते हैं पंछी तिनकों के साथ -साथ अपने कई महीने ,दिन,घण्टे,मिनट और अपने पंख भी फिर भी नहीं देखते हैं उनके जाए हुए लाडले उन घोंसलों की ओर उनकी नजर में आती है  बस माँ की चुग्गे से भरी हुई चोंच वो भी तब तक जब तक कि हो नहीं जाती हैं उनकी अपनी चोंचें मजबूत फिर एक दिन शाम को लौटते हैं पंछी चुग्गे से भरी चोंच ले अपने घोंसले में डाली पर पसरी नीरवता देख वे होते हैं हैरान तलाशते रहते हैं कई दिनों तक अपनों को लेकिन बच्चे नहीं लौटते थक हारकर वे कर लेते हैं स्वयं को पुनः व्यस्त दूसरे घोंसले की बुनाई में और ऐसा करना आता है सिर्फ पक्षियों को । -कल्पना मनोरमा 

शब्दों का अधपका फल

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कुछ खो गया है  क्या खोया है ? ठीक से कह नहीं सकती  हाँ उसे पाने की तड़प इस कदर रह -रहकर तड़पा जाती है  किऔचक ही ढूँढने लगती हूँ अपना खोया हुआ समान  रंग,खुसबू और बनावट पहचानते हुए भी  बता नहीं  पाती फिर क्यों होता है खो जाने का एहसास  कैसी होती जा रही है हमारी सोच  फ़ैसला किया ही था कि नहीं ढूँढूँगी कोई भी खोया हुआ सामान  कि अचानक बढ़ने लगा पारा  स्मृतियों का  कुछ धुँधला-धुँधला उभरने लगता है   आँखों के सामने  जैसे साँझ होते चमकने लगते हैं  जुगनू रेत में  जैसे काजल भरी आँखों में चमकती है  नन्हें शिशु की मचलन भरी  मुस्कान  मुझे उल्झन में उल्झा देख  समझ ने दिखाई समझ  तो मन तोड़ लाया झट से सन्नाटे के वृक्ष से  शब्दों का अधपका फल  मैंने भी रख दिया जल्दी से उसे  धैर्य के अनाज में  जब कभी पकेगा तो बाँटूँगी सभी में  थोड़ा -थोड़ा । -कल्पना मनोरमा 

कविता

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कविता नहीं जानती  अंतर स्त्री और पुरुष में वह जानती है तो उद्भावनाओं के चर्म को कविता अपने समय का सौभाग्य रचती है या कि बचती है जटिलताओं से कविता विचारों का लबादा नहीं सूक्ष्म पड़ताल है धड़कते हुए सच्चे शब्दों की कविता मनोरंजन नहीं करती है व्यक्ति को सिरे से आक्रोशित या सिरे से स्पंदित कविता आंदोलन नहीं बल्कि आंदोलन केे बाद की कार्यबाही है ठेठ कविता उछल -कूद कर पा ही लेती है अपना उचित स्थान जैसे बिल्ली लाँघते-छलाँघते दिखा ही लाती है अपने बच्चों को सात घरों के कोने कविता पिता का शोरगुल नहीं माँ की समझदारी है कविता सम्मान पाने की सीढ़ी नहीं बेज़ुबानों की जुबान है कविता कवि का कौतूहल है कसमकश नहीं ,स्त्री या पुरुष की बेसुरे वक्त के साज पर कविता आवाज़ है  अपनी-सी । -कल्पना मनोरमा 

मरने के बाद नहीं

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मरना  एक शब्द नहीं नाम था गाड़ी भरडर का  थरथराहट का मेरे लिए  जब -जब कहा था माँ ने मत मचाना शोर नहीं रहे हैं फलाने बाबा गाँव में मन बन जाता था एकदम चट्टान लगने लगते थे पेड़ उदास धूप मुरझाई हुई लगती थी शामें डरावनी दीये की रोशनी में पड़ती अपनी परछाईं लगती थी जरूरत से ज्यादा बड़ी या सिकुड़ी हुई  हो जातीं थीं  जाने -अंजाने ही  प्रारम्भ प्रार्थनाएँ कुछ भी हो जाए ईश्वर  मेरी माँ को कभी मत बुलाना अपने पास उस दिन माँ अचानक लगने लगती थी प्यारी से भी बुहत प्यारी कीमती हीरा  फिर एक दिन माँ भी सभी की तरह चली गई बादलों को धकेलते हुए स्वर्ग की ओर किसी ने नहीं कहा मुझसे कुछ भी छोड़ने के लिए  किसी ने नहीं कहा कि शोर मत मचाओ  नहीं रही हैं .....माँ  फिर भी छूट गया सब कुछ मेरे हाथों और मन से  जो था मौत और माँ से जुड़ा हुआ साथ में छूट गया गाड़ी भर डर भी जानकर ये कि मौत  मरने के बाद नहीं  डराती है जिन्दा व्यक्ति को । -कल्पना मनोरमा 

रेत हो जाना

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दरिया के हाथों में नहीं दिखाई पड़ती है छैनी-हथौड़ी या तलवार किन्तु वह फिर भी काटता आ रहा है पत्थरों को महीन-महीन लगातार सदियों से दर्द की आगोश में रहकर भी नहीं निकलती है चीख़ पत्थरों के होठों से कभी भी क्या रेत हो जाना इतना सहज है  | -कल्पना मनोरमा 

खंडित मूर्ति

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सदियों से बुना जाता रहा है गीतों में नसीहतों के व्यापार को इस तरह  कि एक औरत दूसरी औरत को घुमा-फिराकर बताती भी जाये घुट-घुटकर मरने के टिकाऊ तरीके और बनी भी रहे नादान स्त्री की  टेसू-झिंझिया के खेल हों  या हो सरिया ,सोहर और ब्याहगीत बनाकर दीपक को साक्षी हमेशा गाया कम सिखाया ज्यादा जाता रहा है कोरे मन वाली स्त्री को  दमन को हँसकर स्वीकारने की कला बड़ी-बूढ़ी औरतें सीख को पिरोकर गीतों  में जब-जब  कहती -मुस्कुरातीं -झूमतीं  तो आँसू खो देते अपना आपा लेकिन स्थिर स्वर कहते रहते हैं लगातार  ओ स्त्री ! ससुराल में जब-जब  दुख तुम्हें घेरले तो तुम निराशा में भले ही डूब जाना किन्तु अपने मायके के लिए  मत भेजना संदेश अपनी उदासी या परेशानी का नहीं तो हो जाएगा अनर्थ तुम्हारे पिता गिर जाएँगे  खाकर पछाड़  डूब जाएगी माँ आँसुओं के समुंदर में भाई हाँक देगा घोड़ा अपना  अँधेरी रात में तुम्हारे पास आने को भाभी हँसेगी किबाड़े बंद कर  और ओ मेरी प्यारी स्त्री  ऐसे कष्ट नहीं देते कभी भी  अपनों को झिंझिया की मटकी में रखा दीपक

आदेश

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साफ बोलने की कोशिश में बोलती हूँ हमेशा रुककर और समझकर फ़िर भी उलझ जाते हैं मेरे शब्द शब्दों में अकड़ने लगती है जीभ जिसकी अकड़न की जद में आ जाता है  मेरा आत्मविश्वास   भरने लगती है गलफड़ों में अतिरिक्त हवा अटकने लगती हैं लघु-दीर्घ ध्वनियाँ  दाँतों के मध्य ये उल्झन नहीं होती है  साधारण मेरे लिए  इसलिए हैरान होकर अचानक ढूँढने लगती हूँ कारण स्वर अवरोध का एक दिन तो पाती हूँ चुप रहने के अनेक आदेशों को चिपका हुआ अपने बचपन के होंठों पर  घबराकर मूँद लेती हूँ आँखें  अंतर्मन की  जोड़ने लगती हूँ अपने शब्द  जो उगे हैं बिना डरे  अभी-अभी मेरे होंठों पर | -कल्पना मनोरमा 

पिता

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हम ने कहा पिता एक आवारा लड़के को वो ठिठक गया जमीन पर और ओढ़ लिया आसमान हमने बढ़ाये हाथ उठने को ऊपर उसने उठा लिया हिमालय अपने काँधों पर जिन पर रखी थी अभी तक मौज उसने हमने देख कर मुस्कुराया पिता बने उस लड़के की ओर जो अभी तक दे रहा था महत्व सिर्फ अपनी हँसी को वह भूलने लगा अपनी खुशी और घोलने लगा अपने दुःख हमारी हँसी में हमने तुतलाकर कहा बाबा वह जोड़ने लगा अपनी सीखी हुई तमाम इबारत हमारे टूटे-फूटे अक्षरों में हमने बढ़ाये क़दम जब बाहर की ओर वह करने लगा प्रार्थना उस दुनिया से जो अभी तक बेगानी थी उसके लिए हमने सम्हाली अपनी चाल वह बदलने लगा लाल कार्पेट में और बिछ गया वहाँ तक जहाँ तक हम चल सके हमने जब सँवारी अपनी टाई और चमकाए अपने बूट तो पिता बना वह आवारा लड़का चुपके, बिना आहट किये सजाने लगा दिन के वे कोने जो ओझल थे उसकी आँखों से अभी तक हमने बनवाई ब्रास की नेमप्लेट अपनी वह छिप गया हमारे नाम के पीछे और हँसकर कहा मैं इसका पिता हूँ। -कल्पना मनोरमा 21.6.2020