आदेश







साफ बोलने की कोशिश में
बोलती हूँ हमेशा
रुककर और समझकर

फ़िर भी
उलझ जाते हैं मेरे शब्द
शब्दों में

अकड़ने लगती है जीभ
जिसकी अकड़न की जद में आ जाता है 
मेरा आत्मविश्वास  

भरने लगती है गलफड़ों में
अतिरिक्त हवा
अटकने लगती हैं लघु-दीर्घ ध्वनियाँ 
दाँतों के मध्य

ये उल्झन नहीं होती है 
साधारण मेरे लिए 
इसलिए हैरान होकर अचानक
ढूँढने लगती हूँ कारण
स्वर अवरोध का
एक दिन

तो पाती हूँ चुप रहने के
अनेक आदेशों को
चिपका हुआ
अपने बचपन के होंठों पर 

घबराकर मूँद लेती हूँ आँखें 
अंतर्मन की 
जोड़ने लगती हूँ अपने शब्द 
जो उगे हैं बिना डरे 
अभी-अभी मेरे होंठों पर |



-कल्पना मनोरमा 

Comments

Popular posts from this blog

एक नई शुरुआत

आत्मकथ्य

बोले रे पपिहरा...