बालिका: स्त्रीत्व का सबल बीज
स्त्री बनने से पहले हर स्त्री एक बालिका होती है। यह बात जितनी सामान्य प्रतीत होती है, उतनी ही गहरी और सामाजिक और परिवारिक तौर पर उपेक्षित भी। समाज, परिवार और संस्कृति अक्सर अबोध बालिका को स्त्री के "पूर्वरूप" के रूप में देखने के बजाय, एक तैयार की जा रही स्त्री की भूमिका में मान लेते हैं, जैसे वह मनुष्य नहीं, बल्कि एक ‘भावी बहू’, ‘संस्कारी बेटी’, या ‘सहनशील नारी’ के साँचे में ढलने वाली आकृति हो। इसी सोच के कारण बालिकाओं का बचपन, जो संवेदना और संभावना से भरा होता है, अक्सर बोझ, भय और प्रतिबंध की खोखली ज़मीन पर टिकता चला जाता है। जबकि एक बालिका में सबल स्त्रीत्व का बीज छिपा होता है। उसका बचपन बीज की तरह से होता है, छोटा, कोमल, लेकिन भीतर एक पूरे वृक्ष की संभावना लिए हुए। यह बीज यदि संवेदनशील मिट्टी में बोया जाए, यदि उसे पर्याप्त प्रकाश, संरक्षण और जल मिले, तो वह न केवल एक सशक्त स्त्री के रूप में विकसित हो सकती है, बल्कि समाज की दिशा बदलने वाली चेतना भी बन सकती है। परंतु इस बीज को अकसर उपेक्षा, न...