स्त्री: सभ्यता की सहेली
सभ्यता केवल इमारतों, तकनीकों या साम्राज्यों की भव्यता से नहीं, बल्कि उसका सच्चा रूप तब प्रकट होता है जब मनुष्य अपनी आदिम वृत्तियों, भय, स्वार्थ और हिंसा, से ऊपर उठकर करुणा, सहयोग और सृजनशीलता की ओर अग्रसर होता है। यही वह बिंदु है जहाँ सभ्यता मात्र बाहरी संरचना न रहकर संस्कृति का रूप लेने लगती है। इस विकास-यात्रा में स्त्री का योगदान मौन किंतु अत्यंत गहरा रहा है। स्त्री सभ्यता की केवल दर्शक नहीं, बल्कि एक सहेली, संवाहिका और उसकी आत्मा की तरह रही है। आदि काल से ही स्त्री ने जीवन को अपने कोमल स्पर्श से दुलराया है। शिशु की पहली मुस्कान में उसकी ममता झलकती है, घर की पहली किलकारी में उसकी गुनगुनाहट समाई है, समाज की पहली वाणी में उसकी लोरी की गूँज है। वह हर बार जीवन को दिशा देती आई है। कभी माँ बनकर सुरक्षा और पोषण प्रदान करती है, कभी साथी बनकर सहयात्रा और संबल देती है, तो कभी सृजनशील आत्मा बनकर नए विचारों, नए रूपों और नए संस्कारों का बीजारोपण करती है। स्त्री ने ही जीवन को अस्तित्व से अनुभव, और साधन से साधना तक की यात्रा कराई है। यदि हम इतिहास की पगडंडियों पर लौटें तो स्पष्ट दिखाई ...