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Showing posts from June 24, 2020

कुंडलिया छंद

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सेवा का व्रत हृदय ले,निकले हैं कुछ वीर ईश्वर उनको साधना, चुकें  न तरकश  तीर  चुकें न तरकस तीर, व्यधियाँ डरकर भागे जीवन जीते  जंग,मुकुट  सिर  सुंदर  साजे करते हैं  जो   काम, मिले  उनको  ही मेवा काँटों की  है  राह, करे  जो  नियमित सेवा।। -कल्पना मनोरमा

कविता मनुष्य की रागात्मक वृत्ति है

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दायें से पहले डॉ० विकल जी दूसरे  नवगीतकार  मधुकर अस्थाना जी और उनके साथ बैठे हैं नवगीतकार बीरेंद्र आस्तिक जी  कविता मनुष्य की रागात्मक वृत्ति है , यह कभी समाप्त नहीं हो सकती मध्य प्रदेश के सीधी जिले में जन्में और मध्य प्रदेश को ही अपनी कर्मभूमि के रूप में वरण किये हुए गीतकार (म.प्र. साहित्य अकादमी के श्रीकृष्ण सरल पुरस्कार से पुरस्कृत) डॉ. राम गरीब पाण्डेय ’ विकल ’ विगत लगभग पैंतीस वर्षों से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं। कविता की विविध विधाओं में अपनी लेखनी चलाने के साथ ही उन्होंने गद्य साहित्य की अनेक विधाओं में भी सहजता से लेखनी चलायी है। खुद को प्रचारित - प्रसारित करने की लालसा से परे डॉ. विकल मौन साधक की भाँति अनवरत साहित्य साधना में रत हैं। विगत दिनों उनके कानपुर प्रवास के दौरान कानपुर की उदीयमान कवयित्री - नवगीतकार कल्पना मनोरमा ने कविता के विभिन्न सरोकारों पर उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के प्रमुख अंश -- -------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- कल्पना- आज के युग में

एक कदम सहजता की ओर

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                                                                                          पाराशर संहिता के श्लोक ‘ जन्मना जायते शूद्रः , संस्कारात द्विजुच्यते। वेदपाठी भवेत विप्रः , ब्रह्म जानेति ब्राह्मणः। में इसका वाच्यार्थ निश्चित रूप से सीमित दिखता है , किन्तु इसके व्यंग्यार्थ का फलक व्यापक दिखाई देता है। यह श्लोक कर्म की प्रधानता का बोध कराता है। जो जैसा कर्म करेगा , वह उसी के अनुरूप जाना जाएगा। कर्म के क्षेत्र में गति किये बिना मनुष्य की सारी प्रतिभाएँ , सारी उपलब्धियाँ हवा - हवाई रह जाती हैं ,  जिनका कोई ठोस धरातल नहीं होता।   हमारी आज की भौतिक विकासवादी दौड़ में , हम अपनी जमीन से अलग होकर विकास के परचम लहराने की होड़ में लगे हुए हैं। कार्यालयीन वातावरण हो या बाजार का व्यापार - व्यवसाय , घर में परिवार जनों का आपसी व्यवहार हो या बच्चों की परवरिश और उनकी शिक्षा - दीक्षा , हर जगह कृत्रिमता का लबादा दिख जाता है। हमारे दैनिक आचार - व्यवहार , बोल - चाल यह