पाराशर संहिता के श्लोक ‘ जन्मना जायते शूद्रः , संस्कारात द्विजुच्यते। वेदपाठी भवेत विप्रः , ब्रह्म जानेति ब्राह्मणः। में इसका वाच्यार्थ निश्चित रूप से सीमित दिखता है , किन्तु इसके व्यंग्यार्थ का फलक व्यापक दिखाई देता है। यह श्लोक कर्म की प्रधानता का बोध कराता है। जो जैसा कर्म करेगा , वह उसी के अनुरूप जाना जाएगा। कर्म के क्षेत्र में गति किये बिना मनुष्य की सारी प्रतिभाएँ , सारी उपलब्धियाँ हवा - हवाई रह जाती हैं , जिनका कोई ठोस धरातल नहीं होता। हमारी आज की भौतिक विकासवादी दौड़ में , हम अपनी जमीन से अलग होकर विकास के परचम लहराने की होड़ में लगे हुए हैं। कार्यालयीन वातावरण हो या बाजार का व्यापार - व्यवसाय , घर में परिवार जनों का आपसी व्यवहार हो या बच्चों की परवरिश और उनकी शिक्षा - दीक्षा , हर जगह कृत्रिमता का लबादा दिख जाता है। हमारे दैनिक आचार - व्यवहार , बोल - चाल यह