एक कदम सहजता की ओर



                                                                                         
पाराशर संहिता के श्लोक जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात द्विजुच्यते। वेदपाठी भवेत विप्रः, ब्रह्म जानेति ब्राह्मणः। में इसका वाच्यार्थ निश्चित रूप से सीमित दिखता है, किन्तु इसके व्यंग्यार्थ का फलक व्यापक दिखाई देता है। यह श्लोक कर्म की प्रधानता का बोध कराता है। जो जैसा कर्म करेगा, वह उसी के अनुरूप जाना जाएगा। कर्म के क्षेत्र में गति किये बिना मनुष्य की सारी प्रतिभाएँ, सारी उपलब्धियाँ हवा-हवाई रह जाती हैंजिनका कोई ठोस धरातल नहीं होता। 
हमारी आज की भौतिक विकासवादी दौड़ में, हम अपनी जमीन से अलग होकर विकास के परचम लहराने की होड़ में लगे हुए हैं। कार्यालयीन वातावरण हो या बाजार का व्यापार-व्यवसाय, घर में परिवार जनों का आपसी व्यवहार हो या बच्चों की परवरिश और उनकी शिक्षा-दीक्षा, हर जगह कृत्रिमता का लबादा दिख जाता है। हमारे दैनिक आचार-व्यवहार, बोल-चाल यहाँ तक कि हमारे सोचने की पद्धतियों और वस्तुओं को देखने की दृष्टि में भी, यह बनावटीपना साफ-साफ दिखाई देता है। कई बार तो हमारा यह आचरण तब हास्यास्पद हो जाता है, जब हम अपनी छद्म  पहचान प्रस्तुत करने के फेर में, अपने विकृत होते जा रहे स्वरूप को भी भूल जाते हैं। यह एक अति गम्भीर और चिन्ताजनक विषय है, कि हम जो बात अपनी बोली-भाषा में सहज ढंग से कह सकते हैं, उसके लिए अपने आप को विशिष्ट सिद्ध करने की सनक़ में अंग्रेजी या अन्य माध्यमों का सहारा लेकर अनावश्यक बौद्धिक व्यायाम करते हैं।
दुनिया की कोई भी भाषा, बोलियों की नींव पर ही खड़ी होती है। हम अपनी भाषा से इतर भाषाओं का व्यवहार करते हुए यह भूल जाते है, कि यह सायास अपनाई जा रही भाषा भी बोलियों की नींव पर ही खड़ी है। फिर सोचना यह है, कि अपनी भाषा से ही दुराव क्यों? हमारी हिन्दी भाषा की शिराओं में भी, उसकी बोलियों की शक्ति संचरित हो रही है। बोलियों की सामर्थ्य के कारण ही हिन्दी साहित्य के इतिहास में, भक्ति काल को स्वर्णिम काल कहा गया है। सूर, तुलसी, कबीर, मीरा आदि कवियों ने हिन्दी साहित्य को जो माधुर्य दिया है, उसके मूल में बोलियाँ ही हैं। संस्कृत को सड़ता हुआ कूप जल कहने वाले कबीर ने, जगह-जगह भ्रमण करते हुए तमाम तरह की बोलियों को अपने काव्य का माध्यम बनाया, तो संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित होते हुए भी तुलसी ने अवधी को अपनी काव्य-भाषा के रूप में अपनाकर लोक व्यवहार, ज्ञान और भक्ति का परिपाक सहजता से ग्राह्य भाषा में दिया। आये दिन हम सिन्धी, बांग्ला, मराठी आदि क्षेत्रीय भाषा भाषियों को देखते है, कि यदि उनकी भाषा बोलने-समझने वाला व्यक्ति सामने हो, तो वातावरण स्थान कोई भी हो, वह बातचीत के लिए अपनी भाषा का ही प्रयोग करते हैं। 
दुनिया की भाषाओं में हिन्दी एक ऐसी भाषा है, जो अन्य भाषायी शब्दों को भी अपने में इतनी सहजता से समाहित करती है, कि वह शब्द हिन्दी का ही हो जाता है। इतना ही नहीं अनपढ़ से लेकर उच्च शिक्षित वर्ग तक, इसका व्यवहार कभी भी हीनता बोध नहीं होने देता। ऐसे में कृत्रिमता को त्यागकर यदि हम सहज और स्वाभाविक रूप से अपनी हिन्दी भाषा का व्यवहार करते हैं, तो यह केवल हमारे रोजमर्रा के क्रियाकलापों का संचालन सुगम करती है, अपितु हर क्षेत्र में हमारी उन्नति के मार्ग भी खोलती चलती है। हम अपने आप को कृत्रिमता के लबादे में कितना ही क्यों ढँक लें, ज्ञान, भावनाओं और विचारों की ग्राह्यता जितनी तीव्र अपनी खुद की भाषा में हो सकती है, अन्य भाषा में कदापि नहीं। इसलिए आज के परिवेश में इस बात की महती आवश्यकता प्रतीत होती है कि हम जिस भाषा में सुख और दुख की अनुभूति करते हैं, जिस भाषा में सपने देखते हैं, अपनी उस भाषा के प्रति ईमानदार हों, उसका सम्मान करें। कृत्रिमता से सहजता की ओर हमारा यह एक कदम, हमारे जीवन में प्रकाश का संचार करने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
                                                                              
    कल्पना मनोरमा                                                                                                                                                   

Comments

  1. सही कहना है आपका।

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  2. पनी उस भाषा के प्रति ईमानदार हों, उसका सम्मान करें। कृत्रिमता से सहजता की ओर हमारा यह एक कदम, हमारे जीवन में प्रकाश का संचार करने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है।,बिल्कुल सही है ,बढिया पोस्ट

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