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बात नई किताब की ....

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  ओढ़कर अपना आत्मविश्वास   तुम बना डालो अपने   सबसे थके दिन को अमर जिंदगी का अभियान सालों में नहीं   प्रत्येक दिन में छिपा है सोचकर ये बना लो   जीवन की धूप से माँग टीका   सबसे ज्यादा ज़रूरी है  तुम्हें  अपने लिए सुहागिन बने रहना.   इस संग्रह की ज्यादातर कविताएँ स्त्री-सम्बंधी हैं। फिर भी मैं कोई नारेबाजी न करते हुए प्रचलित रूढ़ियों का विखंडन ही इनका स्थाई स्वर मानती हूँ। मैं चाहती हूँ कि अपनी मुक्ति की कामना के लिए स्त्री अपने जाग्रत अवस्था में स्वयं संघर्षरत रहे। वह किसी के प्रति किसी भी प्रकार की अपेक्षाएँ न करते हुए अपनी भूमिका लिखे। वैदिक या आदिकाल की स्त्री-भूमि को अगर देखा जाए तो स्त्री-पुरुष की जमीन साझी दिखती है। अनुभूति और अभिव्यक्ति के दायरे में खड़ी स्त्री कभी भी कमजोर नहीं हो सकती ,  बस उसे अपनी बात कहने में धैर्य और सहानुभूति की अभिलाषा का रुख अपनी ओर मोड़ना होगा। जिस तरह कविता को हमेशा विवेकवान , भावनात्मक , समन्वय-सक्षम , समाज-संरचना में दूरदर्शी दूरबीन सरीखी मानती आई हूँ ,  उसी तरह स्त्री की मेधा काम करे और वह अपने युद्ध अपनी दम पर पूरे विधान के साथ लड़े भी और जीते भी। कविता