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Showing posts from June 3, 2020

कुण्डलिया छन्द

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मुकुलित मन को चाहिए,उजला घट आकाश नयन मूँदकर  भी दिखे , अंतर  नव्य प्रकाश अंतर नव्य   प्रकाश,   अँधेरा  कण-कण टूटे पूरे मन   की   आस , व्याधियाँ   तन से  छूटे नूतन हों   उद्गार ,हृदय   हो सबका सुकुलित जड़ता का हो अंत, नरमता हो उर मुकुलित।। -कल्पना मनोरमा   ३.६.२० 

कुण्डलिया छन्द

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अपना घर मन बाँधता, हर लेता सब पीर चाहे  संसारी   रहे , चाहे    रहे    फ़कीर चाहे   रहे    फ़कीर, चैन मन में भर देता देता है दिन-रैन, स्वयं,कुछ भी नहिं लेता कहे कल्पना सोच,जीव का सच्चा सपना जैसा भी हो रूप,मिले सबको घर अपना ।। -कल्पना मनोरमा 4.6.20

ध्वनियों के दाग

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“संयुक्त परिवार में दोपहर तक काम निपटाते-निपटाते औरतें थककर चूर हो जाती हैं.दिन के उस पहर के बाद उन्हें ये लगने लगता है कि उनके बच्चे भी उनके पास न आएँ. लेकिन वहीं पर वे ये भी चाहती हैं कि उनकी भावी पीढ़ी को प्राथमिक शिक्षा भी मिलती रहे” विनोद ठाकुर के परिवार की बहुओं में सबसे बड़ी नादान की ताई ने अपनी देवरानियों से कहा. बैठक से उठकर पानी पीने आये नादान के दादा जी विनोद ने ठिठककर उनकी सारी बातों को पहले सुना फिर गुना और कुछ सोच समझकर उन्होंने कहा.  “अच्छा ये बात है बहू, तुम्हें बताना था न! कल से दोपहर के बाद घर के सभी बच्चे लान में बड़े तख़्त पर, मेरे पास ही खेलेंगे.” अपने ससुर की बात सुनकर पहले तो सभी औरतों ने एक दूसरे की और चौंक कर देखा फिर सिर झुका लिया. लेकिन विनोद को समझने में देर नहीं लगी. उन्होंने कहा कि वे मज़ाक नहीं, सच कह रहे हैं. तो कोई खुलकर हँसा,कोई घूँघट में.  विनोद ने देखा वहीँ झूले में उनकी पोती झूल रही है. उउन्होंने अपनी छोटी पोती निहारिका को गोद में उठा लिया. नादान वहीं पास में खेल रहा था, वो भी उनके साथ चलने को मचल पड़ा तो उसको भी ले लिया. पोती को गोद लिए विनोद सीधे

कागा सब तन खाइयो

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बेटे की शादी के बाद नाती के जन्मोत्सव पर उषा और मंजुला फिर से मिल रही थीं ।  अचानक आई महामारी ने दोनों को एक जगह कैद कर दिया था। लाख न चाहने पर समधिन जी जैसे भारी भरकम संबोधन बहन जी में बदल चुके थे । एक दिन मंजुला बालकनी की रेलिंग पर कोहनी टिकाये अपनी पसंद का गीत गुनगुना रही थी । “कागा सब तन खाइयो ,मेरा चुन-चुन खइयो मास, दो नैना मत खाइयो मोहे पिया मिलन की आस ।" इतने में उषा भी चाय के दो प्यालों के साथ वहाँ प्रकट हो गई और चुटकी लेते हुए बोली । “बहन जी आज सपने में लवलीन के पापा जी आये दीखें हैं ?" “ना जी ना बहनजी , मैं तो उस सच्चे बादशाह की याद में हूँ ।” कहते हुए दोनों खिलखिला पड़ी । "जो पंछी कभी नहीं दिखते थे आजकल वे भी दिखने लगे हैं और कौओं को देखकर ही मुझे ये गीत याद आया।" मंजुला ने उषा को बताया। बातों ही बातों में बात पंछियों से होते हुए चुग्गा तक जा पहुँची । तो बेटे से बोलकर उषा ने खड़ा अनाज मँगवा लिया और दोनों सोसायटी के पार्क में जाने लगीं। वहाँ वे पंछियों को चुग्गा चुनातीं, वातावरण में फैली निर्मलता का कारण आदमियों का घरों में कैद होना सही ठ

भूली-सी पीर

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  “सब्जी की दुकान है या चौराहा? कमला झोला लेकर ज़रा मेरे आगे-आगे तो चलना।” मैंने अपनी गृह सहायिका को बोला ही था कि एक सज्जन ने घूरते हुए कहा,“मैडम सुना नहीं आपने,अपना काम अब खुद करने की आदत डाल लीजिए।” “क्यों भई ?” मैंने उनसे पूछा। “कोरोना जी का आदेश है की अपना काम स्वयं करो,नहीं तो मरो।” कहते हुए सज्जन ने ठठा कर हँस दिया। बेवक्त की हँसी ने मेरे मन को झुंझलाहट से भर दिया था।  “वैसे आपको बता दूँ कमला मेरे परिवार की सदस्य है।” सज्जन की ओर घूरते हुए कहा। “कमली तू बता न! घर में कौन-सी सब्ज़ी की जरूरत है ? लोगों को आदत होती हैटांग...।”  मैंने बुदबुदाकर मन को शांत किया। ”आप ही देख लो जिज्जी जो आप को अच्छा लगे उसी की जरूरत बन जाएगी।” कमला स्लेटी मसूड़े दिखाते हुए हँस दी। “अच्छा, तू मेरा मजाक बना रही है?”  “राम राम जिज्जी आपकी मजाक,मेरी जुबान ही कट जाए।”  “अच्छा ठीक है, बातें मत बना, झोला ठीक से पकड़।” “सब्ज़ी खरीदने का काम तुझे ही मुबारक हो कमली।” “जिज्जी आप बाहर चली जाओ, मैं ख़रीद लेती हूँ।” कमला को शायद मेरे ऊपर तरस आ रहा था। “कोई बात नहीं आज तो मैं ही।”  मैंने उससे कह तो दिया लेकिन चारों ओर तरह

अस्तित्व की यात्रा

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पुराने बरगद की खोह में बैठा बूढ़ा चमगादड़ , अपने बच्चों को लोरियों की जगह आपबीती और अनुभव की बातें सुना ही रहा था कि अचानक पेड़ के ऊपर से गुर्राता हुआ एक जहाज निकला । “देखो ...देखो, खुश इंसान उड़ता जा रहा है । इसने अपनी मुट्ठी में दुनिया को बाँधने का सपना देखा और सच भी रहा है ,और हमारे रंग-रूपों में भी अंतर होता जा रहा है | जानते हो क्यों ? बूढ़े चमगादड़ ने एक छोटे बच्चे को पुचकारते हुए कहा । "कहीं से आवाज आई "क्यों दादू ?" "क्योंकि सभ्यता हमारे तन-मन को लगातार परमार्जित करती जा रही है | लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम पथभ्रष्ट हो जायें और फल-फूल, कीट-पतंगो की जगह इंसानों को खाने लगें | पेड़ की खोह में हँसी गूँज उठी। ”लोरियों की मधुर स्निग्धता में खोई हुई खोह के एक कोने से फुफकारने जैसी आव़ाज आने लगी जैसे कोई अतिक्रोध में भरकर नाक से गरम हवा फेंक रहा हो | “कौन है उधर ? जिसका ठंडा मन, क्रोध की आग में जल उठा है |”बूढ़े चमगादड़ ने नजरें इधर-उधर उठाकर देखा तो अपनी अगली पीढ़ी का एक बच्चा मुट्ठियों को भींचे, दाँत पीस रहा था, देखा | “क्या हुआ मेरे प्यारे ? तुम, ऐसे तो कभ

मैडम कपूर

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घर में यदि किसी की अहमियत थी, तो वो था एक इम्पोटेड काला अनेक जेबों वाला पर्स और एक गोदरेज | पर्स में बैंकों के भांति-भांति के कार्ड रहते और गोदरेज में मैडम कपूर के मैंचिंग कपड़े और सेंडिल | इसके अलावा पूरा घर तरह-तरह के नौकरों के हवाले से चलता था | मैडम कपूर जैसे ही सोकर जागतीं, नौकरों में जैसे चाबी भर दी जाती | “फिर आज इनको क्या हो गया है जो सारे नौकरों की अचानक छुट्टी कर दी?” ड्राइंगरूम के पर्दे अभी फ़िश-टेंक में तैरती मछलियों से बातें कर ही रहे थे कि अचानक ज़ोर-ज़ोर से कुकर चिल्लाने लगा | उसका चिल्लना नहीं…… मैडम कपूर का रसोई की ओर दौड़कर जाना घर की हर वस्तु को अचंभित कर रहा था | “क्या हुआ बाबू को ?” मैडम कपूर ने दाल के पानी से नहाए कुकर को पुचकारा तो टाल पर रखे धूल खाये बर्तन भी उनकी ओर लटक-से पड़े | माँ का दिया, लस्सी का गिलास तो आँख मूंद, उनकी गोद में कूद ही पड़ा | उसे ऐसा करते देख सिंक में पड़ी कढ़ाही कराहने लगी | नई-पुरानी-झाडुओं में धक्का-मुक्की होने लगी | “किचन-गार्डन ” की खिड़की पर लटके रंगे-पुते अकड़े रूमाल फ़र्श पर गिर एढियाँ रगड़ने लगे | रसोई में रखी हर वस्तु मानो मैडम

भयाक्रांत रात

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रात अपने पूरे मिज़ाज में थी ।चारों ओर आम,नीम,और यूकेलिप्टस के वृक्ष भीमकाय भयानक -डरावनी बुत जैसे लग रहे थे ।सामने वाला 'फ्लाईओवर' जिसे चैन की साँस लेने की फ़ुर्सत नहीं थी, लेकिन आज आराम से पैर फैला कर सो रहा था । चारों ओर बजता सन्नाटा मेरे मन को भयभीत कर रहा था । बिस्तर पर लेटे-लेटे पीठ अकड़ने सी लगी तो चुपके से बालकनी का दरवाज़ा खोल वहाँ पड़ी कुर्सी पर जा बैठी। आसमान सितारों से हमेशा की तरह भरा था । चाँद अपनी चाँदनी को किस्से सुना रहा था ।चारों ओर की बिल्डिंगों की बालकनियों में बँधे तारों पर लटकते कपड़े हिल-हिल कर उन घरों के सहमें लोगों का पता दे रहे थे ।"कितना अकेला और निराश हो गया है महानगर ।" मैंने कल्पना में भी ऐसा नहीं सोचा था । सोचते हुए आँखें मूँद लीं । हवा की सरसराहट देह में झुरझुरी भर रही थी । मन लगाने की तमाम कोशिशें ध्वस्त हो चुकी थी। हारकर मैंने दिमाग को आदेश दिया । "भई कोई तो अच्छा विचार ले आओ, जिसमें ये परेशान रात कटे ।" दिमाग़ ने स्मृतियों को आदेश दिया तो पल भर में खुल गईं यादों की पोटलियां । यादों की सघन जद्दोजहद को कॉलोनी के आवारा कुत

अनुष्ठान

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अरे भोला! तू सुनता काहे नहीं है। बिना श्रद्धा किये कुछ मिला है किसी को ? कभी तो सिर झुका लिया कर |” भोला की माँ अपने बच्चे से आज़िज आ चुकी थी । वह दिन भर कहीं किसी का अनुष्ठान करती तो कहीं किसी का नाम जप लेकिन भोला घर में स्थित धार्मिक चिह्नों में से किसी के आगे न सिर झुकाता और न ही दो शब्द अनुनय-विनय के बोलता...लेकिन छोटे-बड़े कामों के लिए मन्दिरों में चढ़ावा-प्रार्थना करते वह अपने माता-पिता को बराबर देखता रहता और जैसे ही भोला के बचपन ने उससे विदा ली वैसे ही घर की परि पाटी को उसने नहीं, परिपाटी ने उस पर कब्जा कर लिया । माता-पिता ने अपनी असफलताओं की भरपाई के लिए भोला के हाथों में लाल, पीले और काले ताबीज बाँध दिए | हाथ की आठों उँगलियों में रत्न और अगूँठे में शनि महाराज की कृपा के लिए लोहे का छल्ला घारण करवा दिया । माता-पिता की कृपा से भोला भी अब बड़ा श्रद्धालु बन चुका था | घर में सुबह की चाय से लेकर रात्रि के भोजन तक भोला जो कुछ भी खाता-पीता पहले अपने पूजितों को भोग लगाता फिर ही मुँह में डालता | जीवन यापन के लिए किये गये कार्यों की फल प्राप्ति के लिए वह उतनी मेहनत नहीं करता जितनी