अनुष्ठान
अरे भोला! तू सुनता काहे नहीं है। बिना श्रद्धा किये कुछ मिला है किसी को ? कभी तो सिर झुका लिया कर |” भोला की माँ अपने बच्चे से आज़िज आ चुकी थी ।
वह दिन भर कहीं किसी का अनुष्ठान करती तो कहीं किसी का नाम जप लेकिन भोला घर में स्थित धार्मिक चिह्नों में से किसी के आगे न सिर झुकाता और न ही दो शब्द अनुनय-विनय के बोलता...लेकिन छोटे-बड़े कामों के लिए मन्दिरों में चढ़ावा-प्रार्थना करते वह अपने माता-पिता को बराबर देखता रहता और जैसे ही भोला के बचपन ने उससे विदा ली वैसे ही घर की परिपाटी को उसने नहीं, परिपाटी ने उस पर कब्जा कर लिया ।
माता-पिता ने अपनी असफलताओं की भरपाई के लिए भोला के हाथों में लाल, पीले और काले ताबीज बाँध दिए | हाथ की आठों उँगलियों में रत्न और अगूँठे में शनि महाराज की कृपा के लिए लोहे का छल्ला घारण करवा दिया ।
माता-पिता की कृपा से भोला भी अब बड़ा श्रद्धालु बन चुका था | घर में सुबह की चाय से लेकर रात्रि के भोजन तक भोला जो कुछ भी खाता-पीता पहले अपने पूजितों को भोग लगाता फिर ही मुँह में डालता |
जीवन यापन के लिए किये गये कार्यों की फल प्राप्ति के लिए वह उतनी मेहनत नहीं करता जितनी प्रार्थनाएँ करने लगा था लेकिन जीवन फिर भी बद से बद्तर होता जा रहा था।
जीवन यापन के लिए किये गये कार्यों की फल प्राप्ति के लिए वह उतनी मेहनत नहीं करता जितनी प्रार्थनाएँ करने लगा था लेकिन जीवन फिर भी बद से बद्तर होता जा रहा था।
परेशान होकर माँ ने एक दिन उसका हाथ ज्योतिषी जी को दिखाने का निश्चय किया। देखते ही ज्योतिषी महाराज बोल पड़े - "इसके हाथ में तो अधिकारी बनने का योग है | ताज़्जुब है ये अभी तक फक्कड़ बना क्यों घूम रहा है ।" सुनते ही भाव विभोर माँ ने उन्हें मनमानी दक्षिणा देकर संतुष्ट किया और ले-देकर उससे भी बड़े अनुष्ठान का आयोजन घर में रख लिया।
आज अनुष्ठान का आख़िरी दिन था | प्रसाद वितरण के लिए पिता ने भोला से कहा था, इसलिए वह सभी को विनीत भाव से झुक-झुककर प्रसाद देता जाता और अपने अधिकारी बनने के सपने पर मुस्कुराता जाता।
इतने में एक आव़ाज आई – “ भई हरिचरण सिंह, इससे अच्छा होता कि आप अपने घर में शांति-अनुष्ठान कर भोला को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते तो शायद आपकी मनोकामना शीघ्र ही पूर्ण हो जाती।”
“अरे फूफा जी आप, लीजिये प्रसाद खाइए, जल्द ही आप एक अधिकारी के फूफा जी बनने वाले हैं |” भोला ने उत्साह से भरकर उनके पाँव छुए और प्रसाद की कटोरी पकड़ा दी।
“तुम अधिकारी बिल्कुल बन सकते हो भोला ! लेकिन प्रसाद बाँटकर नहीं किताबें पढ़कर |मैं तो कहता हूँ थोड़े दिनों के लिए तुम अपने पिताजी के सारे भगवानों को एक डिब्बे में बंद कर कहीं छिपा दो और किताबों में रम जाओ।" इतना सुनते ही घर में इकट्ठा भीड़ ने भोला के फूफ़ा जी के साथ-साथ बुआ को भी अपने से पृथक कर दिया, मानो उन्हें छूत की बीमारी हो गई हो ।
-कल्पना मनोरमा
30.5.2020
30.5.2020
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