बहस के बीच बहस



 प्रिय जिज्जी! बहुत दिन हुए, आपका हाल-चाल नहीं मिला। मन में बस एक उम्मीद बनाए रखती हूँ कि सब ठीक-ठाक होगा। 

    मगर जब से सुना है—तेज़ बुखार में आपकी सुनने की शक्ति जाती रही। मन कच्चा-कच्चा बना रहता है। कान को लेकर बचपन से दुःखी रहीं आप। न अम्मा ने झापड़ मारा होता, न ही बधिरता की शिकार हुई होतीं…। आपके दाहिने कान से हमेशा पानी बहता रहा। जब आप माँ बनी,शरीर कमज़ोर हुआ। फिर तो पस बहने लगा। और अब दोनों कान ख़राब। कितना अच्छा होता,आप सुन सकती। हम चारों बहनें फोन पर मिलजुल बतिया लिया करतीं। पर अपने तो भाग्य ही हेठे हैं…। 

     मेरा पत्र जब आप तक पहुँचेगा तो चौंकेगीं जरूर आप। क्योंकि चिट्ठी लिखने में आलसी लड़की चिट्ठी लिख रही है। लिख इसलिए रही हूँ ताकि आप बार-बार पढ़कर विचार कर सकें। अब इस उम्र तक आते हुए लगता है कि बार-बार किसी बात को क्यों आप पूछती हो। सच कहें—बाल की खाल उधेड़ने वाला रोग अब मुझे भी लग चुका है।

    जयंती और कुन्नी के साथ अक्सर बहस हो जाती है। जब बात समझ ही नहीं आएगी तो पूछना ही पड़ेगा ! दोनों चिल्ला पड़ती हैं—उमा दीदी..! शांती जिज्जी मत बन जाना…।” 

    शांती जिज्जी बनना क्या इतना आसान है…? इस जन्म में क्या..! अगले में भी न बन सकूँ…। आपका जीवन सदाशयता से भरा रहा। कहाँ शांती जिज्जीकहाँ उमा..! पाँव की धूल भी नहीं…।खैर!

     जिज्जी, मौसम बदल रहा है। ठंडी शुरू हो गयी है,आप अपना ध्यान रखना। नाती-पोते वाली हुईं आप। मन लगाने के लिए अच्छा साधन मिल गया है आपको। आशा है, बहुएँ भी खूब ध्यान रखती होंगी..? रखना ही चाहिए क्योंकि ऐसी अबोली सास धरी कहाँ..! आपके हर पक्ष-प्रतिपक्ष को समझती हूँ। मैंने जब भी पाया तब आपको अति संवेदनशील, सरल हृदय स्त्री के रूप में ही पाया। प्रेम-दया की बातें करने वाले सिर्फ करते हैं। मेरी जिज्जी ने तो इन गुणों को जिया है। बड़ा नाज़ करती हूँ आप पर…। 

बचपन की ओर जब कभी देखती हूँ तो एक प्रकार की विकल्पहीनता घेर लेती है। 

   हम लोगों ने बीए-एम ए किया जरूर लेकिन जीवन पंगु ही बने रहे। यहाँ सिर्फ अपना ही दुःख नहीं, लड़कियों के बाबत आज भी कुछ ज्यादा बदला नहीं..। थोड़ा-सा गाँव-देहात की ओर बढ़ जाओ— लड़कियाँ सरेआम मंडप के नीचे निपटा दी जाती हैं। बिना पूछे-बताये की गई शादियाँ लड़कियों की मृत्यु ही मानती हूँ। मवेशी मेले में जानवरों सरीखे जीवन, सजा-धजाकर भेज दिए जाते हैं, जहाँ मालिक पिता चाहे...! 

   लडकियाँ क्या चाहती हैं ? कितना पढ़ना चाहती हैं? शादी करना चाहती हैं..? या नहीं…? कोई पूछने वाला नहीं। कोई सुनने वाला नहीं

    आपको याद है न! अपनी जयंती को कॉलेज में एक लड़के से प्रेम हो गया था। जात-बिरादरी का होते हुए भी जयंती को हम दोनों ने शांत करवा दिया था। उसका साथ हम बहनों ने ही नहीं दिया तो कोई और क्यों देता..? जानती हो जिज्जी..! जयंती उस लड़के से ब्याह कर लेती तो ज्यादा खुश रहती। अच्छे तो आभास जी भी हैं, लेकिन उनकी पीने की लत ने जयंती को कुंद कर दिया है। 

    पति के संग जयंती जब बकरी-सी डोल गयी तो कुन्नी को तो दवाब में आना ही था। उसने भी कर ली शादी पिता के अनुसार। मगर एक टीस दोनों के भीतर समा चुकी है। नहीं जान पाती अगर जयंती और कुन्नी की आपसी चैट न पढ़ लेती। 

     आपको याद है न..! इंदौर वाली बिटोली बुआ के लड़के की शादी में हम सबको जाना था। आपकी बहू की डिलेवरी डेट नजदीक थी इसलिए आप नहीं आ सकीं। आपके बिना मजा तो नहीं आया लेकिन जिज्जी, वहीं अपनी बहनों के मन की बातें मैंने जानी। जयंती अपना मोबाइल पकड़ाकर कुछ पूजा-विधि में लगी थी। उसी समय जयंती की मित्र का फोन आया। मैंने मोबाइल बढ़ाया तो कहने लगी आप ही बात कर लो दीदी। जिज्जी, मैंने बात तो कर ली फिर न जाने क्यों उसका व्हाट्सएप खोल लिया—कुन्नी की चैट ऊपर थी। पढ़ने लगी—जयंती दीदी, आपने अब पूछा तो क्या पूछा ? पहले पूछ लेती तो बताती कि मेरे क्या अरमान थे। फैशन डिजायनिंग में एम.बीए करने का मन था। शादी– जब प्यार जैसा कुछ महसूस होता तो कर लेती। लेकिन मैं भूल रही थी कि हमारी बहनों से, मैं अलग कैसे हो सकती थी? मैं क्या सुनहरी परी हूँ…?” 

  सच कह रही हूँ जिज्जी, मैं तो दंग रह गयी थी। नहीं जानती थी, जयंती की तरह, कुन्नी भी एक क्षोभ लेकर जी रही है। बच्ची के अरमान कुचल कर तबाह हो चुके हैं।

   अच्छा जिज्जी ये बताना— क्या बुरे सपने अब भी आते हैं आपको..? मुझे लगता है— अनहील्ड चेतन मन ही स्त्री का अवचेतन मन बिगाड़ता है। गहरी नींद में सोते-सोते कैसे आप रोते-रोते उठ पड़ती थीं। रात-दिन का मौन–नींद में टूटता रहा था। 

   मेरी तो घिग्घी ही बंध गयी थी एक बार। याद है आपको..? उस दिन पुन्नो बुआ कैसे आठ कोने का मुँह बना कर अम्मा से बोली थीं—भौजी, शांती का अब ब्याह कय देव। सपने-अपने जड़ से पटा जअहें इनके।” 

    गुस्सा आपको आना था मगर बोली जयंती थी—एक स्त्री ही दूसरी स्त्री को नहीं समझ सकी तो पुरुष पिता हो या पति, क्या खाक समझेगा ? बुआ तो हद करती हैं। हर मर्ज का इलाज ब्याह नहीं होता।” 

   उसके बाद तो जयंती के माथे पर उद्दंड होने का टीका ही लग गया था मानो। पिता से लेकर किसने उसे बुरा-भला नहीं सुनाया था ? पुन्नो बुआ तो सालों जयंती से ठीक से नहीं बोलीं। खैर, छोड़ो, जाने दो उन बातों को। लिखने बैठी तो पुथन्ना भर जायेंगे मगर बातें खत्म नहीं होंगी। मुद्दे से और भटक जाऊँगी। 

    जिज्जी, एक दिन लगभग रात के ग्यारह बज रहे होंगे। रसुइआ साफ़ कर ही पाई थी कि फोन बज उठा। चश्मा लगाकर देखा–जयंती का था….। उसने कुन्नी को भी जोड़ लिया। पहले तो डर गई…लेकिन जल्दी ही जयंती हँसने लगी तो मन शांत हो गया। जयंती और कुन्नी अपने हक़ की बात कर रही थीं। बाबू के घर में मेहमान की तरह नहीं, अपने घर की तरह आना-जाना चाहती हैं। 

   देखो न जिज्जी! आप साठ के उस पार हुईं और मैं आप से सात साल छोटी,जोड़ लो…। मगर जयंती और कुन्नी अभी बहुत छोटी हैं। भाइयों के बाद की हैं न! इन दोनों का स्वाभिमान सबल रहना चाहिए। जैसे भाइयों का है। इनके अधिकार इन्हें जरूर मिलने चाहिए। जैसे भाइयों को मिले हैं। चाहे पति का घर हो या पिता का…। 

अचानक पत्र लिखने का कारण यही है। 

   जयंती की पड़ोस में एडवोकेट मिराली मजूमदार रहती है। देखने में सुंदर और नाजुक… मगर है तेज़तर्रार, सख्तजान औरत! जयंती की दोस्त बन चुकी है। बहुत बार देर-देर तक मिराली की बातें करती रहती है जयंती। मुझे कुछ समझ नहीं आता। दरअसल हम जैसी लड़कियों की चमड़ी अत्याचार और अवहेलना सहते-सहते इतनी मोटी हो चुकी है कि साधारण अपमान हम यूँ ही भुला देते हैं। हमें, न अपने अधिकार पता होते हैं और न ही सम्मान की बात हम सोच सकते हैं। इधर से हाँक लगाई, उधर की कहने लगीं। उधर से कुछ कहा गया तो इधर की हो लीं। मतलब रहना ओखली के भीतर ही है। ऐसा हम सोचते हैं। और सोचते रहेंगे...।

  जिज्जी, मिराली कहती है—एक स्त्री की पहली जरूरत—रोटी, कपड़ा, मकान के साथ शिक्षा है। इसकी जिम्मेदारी शादी के पहले और बाद में पिता देखे, समझे, सुने तो स्त्री को प्रताड़ित करना तो दूर आँख उठाकर भी कोई नहीं देखे। और ये भी कहती है कि—लड़की की परिवरिश ज्यादा सावधानी से होनी चाहिए। लड़कियाँ दो घरों को ही नहीं जोड़तीं बल्कि जीवन को आकार देती हैं। ये नहीं कि लड़की के जन्म से ही अच्छे घर-वर के सपने दिखा कर उसे बरगलाया जाए। जब पिता ही बेटी को अच्छी शिक्षा नहीं देगा, सपने पूरे नहीं करेगा तो पति या उसके परिवार ने क्या ठेका ले रखा है, उनकी बेटी के बाबत कुछ भी करने का ? जिस तरह एक पिता अपने पुत्र की पढ़ाई लिखाई और जीवन के लिए सोचता है, पुत्री के लिए सोचे। कम से कम अपनी औकात भर।

   वह ये भी कहती है—वैचारिक सख्ती अनायास किसी में नहीं फूटती। साहस जिस तरह लड़कों में भरा जाता है, उसी तरह लड़कियों को पालना पोषना होगा। यानी स्त्री को अनायास सुख हासिल हो जायेंगे, का ख्याल छोड़कर अपनी कार्य-प्रणाली को सुधार करना बचपन से सीखना होगा। क्योंकि सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर राजकुमार किस्से-कहानियों में आते हैं। सच में तो मिलते हैं—शराबी, जुआरी, औरतखोर, जल कूकड़े आदमी। प्रेमचंद की कहानीकफ़नके किरदार सरीखे घीसू-माधव। इनके साथ रहने और निर्लिप्त हो इनसे निपटने की बुद्धि स्त्री को आनी चाहिए। सिखाना होगा मां के द्वारा, आजी के द्वारा। यानी रिश्ते की हर स्त्री के द्वारा उस स्त्री को जो अबोध है, जो सीख रही है जीवन को देखना।

   मिराली कहती है—अब किसी प्रबुद्ध इंसान को मनु-स्मृति का पुनर्पाठ करना होगा। शंकराचार्य की पदवी पुरुष नहीं, किसी जागरूक तटस्थ स्त्री को लेनी होगी। अब इंसान स्मृति किताब लिखनी चाहिए— जिसमें देह के इतिहास-भूगोल की जगह मन का विवेचन लिखा हो…। विचारों के आदान-प्रदान की युक्तियाँ लिखी हों। बुद्धि और विवेक की बातें हों। स्त्री-पुरुष की समानता पर खुली डिबेट के फार्मूले लिखे हों। माता-पिता की देख-रेख किसी एक का दायित्व नहीं, बेटा-बेटी दोनों को समन्वय बनाकर करने की बात लिखी हो। फिर देखो—स्त्री कहाँ कमज़ोर पड़ती है…? क्या नहीं करती है स्त्री? और क्या नहीं कर सकती है स्त्री?

 

   साथ में ये भी कि—स्त्री के रखवालों को उनकी ड्यूटियों से अब बरी कर देना चाहिए। छुट्टी कर देना चाहिए क्योंकि उन बेचारों के पास अपनी खुदकी समस्याएँ हैं। अपनी जिन्दगी है। नशे की लतें हैं। आख़िर कब तक पिता-पति और पुत्र स्त्री की कस्टडी में जोते जाते रहेंगे? कब तक दिन-भर कुट-पिटकर एक स्त्री रात में पति के आगे हाज़िर होती रहेगी ? संभोग का सस्ता निबाला बनती रहगी ? उसकी अपनी देह है। अपना मन है। तो अपने निर्णय और नियम भी होने चाहिए। 

   स्त्री को खुद को महत्वपूर्ण देखना होगा। पुरुष कुछ कहे या करे, उससे पहले स्त्री को अपनी भूमिकाएँ निश्चित करनी होंगी। ये नहीं किसी ने हँसकर देख लिया तो पिघल गयीं। किसी ने रोकर कन्धा चाहा तो भी पिघल गयीं। इनफ इज इनफ! आकाश को बरसने के लिए माना की धरती का साथ चाहिए…। मगर उसे सम्मान तो करना पड़ेगा। स्त्री को भी इंसान समझना पड़ेगा। सुदृढ़ धरती पर ही सुंदर संसार की परिकल्पना सम्भव है। साझेदारियों वाला जीवन ही सुंदर हो सकता है

   बड़ी हिम्मती है मिराली! जयंती बताती है— अच्छे-अच्छे वकील उसके आगे पानी माँगते हैं। कुछ समय पहले सरकार ने लड़कियों को संबल मिल सके—एक नियम और लागू किया है। नए कानून के अनुसार पिता की वंशावली में बेटियों के नाम लिखे जायेंगे। 

वंशावली-प्रकरण पर शेरनी यानी मिराली का कहना है—

    “वंशावली में लड़कियों के नाम….? कुत्ते की पूँछ चाहे जितने दिन बोतल में बंद रखो,सीधी होने से रही। जो लोग परिजनों के शोक-पत्र में लड़कियों के नाम नहीं लिखवाते, ऐसे सत्ता के पुजारी वंशावली में क्या ही नाम लिखवाएँगे…? तमाम कानून के बीच जो मैं सोच रही हूँ—अगर लागू कर सके सरकार तो कुछ हो भी सकता है। यानी पिता पर बेटा-बेटी दोनों का अधिकार समान होता है। इस बात को पिता से ज्यादा माँ-बेटी को मानना होगा। रही बात सम्पत्ति में हिस्से की—देखा जाए तो लड़कियों को अचल सम्पत्ति न यहाँ चाहिए न वहाँ की। लड़कियों को चाहिए, ‘दैनंदिन भत्तायानी खाना,पीना, रहना, कपड़ा और साल में एक बार भ्रमण के लिए पर्याप्त ज़ेब खर्ची रकम। जो न शादी से पहले उसे मिलती है और न ही शादी के बाद। इस बात पर ध्यान देना होगा। तलाक के बादजीवन यापन करजब एक स्त्री पति से लेती है। तो एक बेटी पिता से अपना हक़ क्यों नहीं ले सकती। क्यों एक पिता बेटी की शादी कर उससे छुटकारा मान लेता है? मायके में लड़की की अनुपस्थिति मरों में क्यों स्थापित कर दी जाती है? जबकि पिता की वसीयत में साफ़-साफ़ लिखा होना चाहिए- जीवन यापन की रकम बेटी / बेटियों को तब तक दी जाएगी जब तक लड़की जिन्दा रहेगी। पिता के साथ भी और पिता के बाद भी। जब लड़की दुनिया से विदा हो जाये तोदैनंदिन भत्तासे मायका मुक्त कर दिया जाए।” 

  ‘दैनंदिन भत्ताबार-बार पिता को ये याद दिलाएगा कि उनकी अपनी बेटी से भौगोलिक दूरी भले हुई है, लेकिन जिम्मेदारियों का निपटान नहीं…। वहीं शादी के बाद मायके की जिम्मेदारियों से बेटी की भी छुट्टी नहीं हो सकेगी। वैसे जहाँ अपनापन होता है, वहाँ जुड़ाव स्वत: बना रहता है।

    मंदिर में हक़ मिलने के बाद गली के कंकड़ को भी लोग आदर से देखने लगते हैं, तो स्त्री तो जीती जागती इंसान है। इस पहल से लडकियाँ खुद को महत्वपूर्ण समझेंगी सिर उठाकर चल सकेंगी। माताएँ अपनी बच्चियों को समानधर्मा मानकर स्नेह तो करती हैं, मगर पुरुषसत्ता की बरगदी छाँव से मुक्त नहीं करा पातीं। न ही खुद खुले आसमान के तले साँस ले पाती हैं और न लड़कियों को लेने देती हैं। 

 

    सोचने-विचारने में सदियाँ चली गयीं। अब स्त्री को स्त्री के प्रति नजरिया और जीवन-शैली बदलनी ही होगी। अगर अस्तित्व और अस्मिता को सुदृढ़ होना है तो स्त्री को बोलना सीखना होगा। प्रश्न करने होंगे। सबसे ज्यादा तो—अपने को देह के ऊपर मानना होगा। नहीं तो सरकार भले पिता की संपत्ति में पुत्र और पुत्री के समान अधिकार के कानून बनाती रहे। वास्तविकता में अधिकार समान होने से रहे। साल में एक-दो जोड़ी सूट देकर फ़र्ज निभाते रहेंगे मायके वाले। इस तरह से कुछ भी अच्छा होने से रहा।

   इस बात पर जयंती कह रही थी—उमा दीदी, माना कि मिराली वकील है। सबके अधिकारों के लिए लड़ती है। ज्यादातर केस जीतती भी है। उसके तर्क बड़े धारदार होते हैं लेकिन जिसके लिए वह सोच रही है, वह तो बड़ा पेंचीदा मामला है। जाने कितनी मिरालियाँ मर-खप गईं होंगी अभी तक। क्या पुरुषसत्ता का झंडा झुका..? दूसरे वहदैन्दिन भत्ताकी बात कहती है। मुझे तो इसमें  दया या भीख जैसी ध्वनि आती हुई लगती है। जबकि लड़कियों को अब दया नहीं,अपना हक़ चाहिए। क्योंकि बहनें सगी तब भी नहीं होतीं, जब वे कुछ भी नहीं लेतीं…। तो अपने अधिकार लेकर कम से कम स्वाभिमान में जी तो सकेंगी।” 

    जिज्जी, मुझे भी मिराली की इस बात से एतराज है– वह कहती है— ज़ेब खर्ची मिलने के बाद लड़कियाँ मायके की ज़िम्मेदारी से उऋण नहीं होगीं या वे खुद को उऋण न समझें। आप तो जानती हैं– लड़कियाँ अपने मायके की जिम्मेदारी तब भी निभाती हैं, जब उन्हें मिट्टी के मोल भी नहीं समझा जाता है। अधिकार और सम्मान मिलने पर क्यों ही वे मायके को भूल जायेंगीं

  सोचना तो अब स्त्रियों को है। जब तक स्त्री– मादापन के चोले से बाहर नहीं निकलेगी, इसी तरह कमजोर समझी जाती रहेगी। माना करुणा की अधिकता होती है स्त्री में तो अपने लिए निष्ठुरता क्यों? करुण-धारा अपनी ओर से निकलनी चाहिए। खुद का आपा सिक्त होगा, तभी एक स्त्री, दूसरे के प्रति फ़र्ज अदा करने में सक्षम बन सकेगी।

    अब देखो न जिज्जी! सम्मान तो सबको चाहिए। हम दोनों को भी चाहिए। लेकिन खुद को महत्व देने की बात हमने कभी सोची ही नहीं। हम दोनों भले जिंदगी की ढलान पर हैं। लेकिन जयंती और कुन्नी उम्र की दोपहर के बीचों-बीच हैं। उमंग का ताप उनमें बचा है…। उनका जीवन चक्की में पड़े दानों जैसा न बीते। उनके दुखों, पीरों, कसकों, चीखों और रुदन को समर्पण के नाम परग्लोरीफाईन किया जाए। मैं ये चाहती हूँ….।


    जिज्जी,जब से मैंने होश सम्हाला…आपको मौन ही पाया। अब बोलने का वक्त आया है। तो मैं चाहती हूँ आप बोलो। आज भी मुझे याद है—रात में हारी-थकी अम्मा,नींद से उठाकर कुन्नी को आपकी गोद में डालकर सो जाती थीं। वैसे सच कहें जिज्जी..! हम पांचों भाई-बहन आपकी गोद में लोट-पोट बड़े हुए हैं। ये बात हमें छोड़,कौन याद रखेगा..हम चारों बहनों में आप बड़ी हैं। जो आप कहेंगी– वही मान्य होगा। वैसे तो अम्मा को भी इस बहस में जोड़ने का मन था। आख़िर वे भी तो किसी घर की बेटी हैं। उन्हें भी सम्मान मिलना चाहिए। लेकिन रवैया बड़ा ढुलमुल है उनका। कहेंगी कुछ, करेंगी कुछ इसलिए अभी स्थगित रखती हूँ…।

    मैंने, अपने मन की और उन दोनों के मन की सारी बातें लिख दी हैं। अब आप इस पेंचीदे मसले का हल निकालने का प्रयास करना जिज्जी। फिर बताना कि क्या सचमुच इस आवश्यता में अविष्कार छिपा है…? क्योंकि जयंती और कुन्नी का मन है कि इस बार हम चारों बहनें मिलकर पिता से अपने अधिकारों की माँग करें। मगर ये सब कहना, हो सकता, जयंती और कुन्नी के लिए आसान हो..। लेकिन सच में क्या भाइयों और पिता की अवहेलना वे दोनों झेल पाएँगी? बड़ा सवाल है। या हम दोनों बहनें, जिन्होंने पिता की कंडीशन अच्छी होते हुए भी सदा अभावों और अनदेखेपन में जीवन जिया, क्या अपमान सह सकेंगी

क्योंकि पितृसत्ता आसानी से झुकने की चीज़ नहीं…। जब अकेले खाने की आदत बन चुकी हो तो बांटकर खाना किसे रास आएगा? सत्ता के पलटवार से मिले आघात से अगर दोनों ने रास्ते बदल लिए तो हमारी तौहीनी हो जाएगी जिज्जी। माने आगे बढ़कर लौटने से तो मरना भला।

    अच्छे भले चलते जीवन में जयंती ने आग लगाई है। मन में एक अजीब तरह की हौल मची रहती है। कुन्नी को कई बार फोन कर चुकी हूँ। जयंती कुछ भी सुनने को तैयार नहीं। समझ नहीं आता करूँ क्या! लड़कियाँ सच में कभी मायके को छोड़ नहीं पातीं और मायके वाले अपना बनाकर कभी उन्हें स्वीकार नहीं पाते। बल्कि उनसे उचित व्यवहार, अधिकार और इंसान होने के मसले भी छीन लिए जाते हैं।

   जिज्जी, कसम से…सारे निर्णय आपकी हाँ के बाद ही लिए जायेंगे। मैंने कह दिया है दोनों से इसलिए इस पत्र को आप पत्र से बढ़कर समझना। पत्र लिखने में आलस लगे तो ख़बर भिजवा देना। मैं आपको अपने घर, बनारस बुलवा लूँगी। कुन्नी और जयंती इलाहाबाद में हैं, वे तुरंत आ जायेंगी। 

    एक बात बताना कहीं भूल न जाऊँ— जिज्जी! आपकी जयंतू ने अपनी बेटी के कॉलेज में पीएचडी के लिए एप्लाई कर दिया है। उसी की सलाह पर कुन्नी, फैशन डिजायनिंग में एमबीए करने के लिए मुंबई जा रही है। उसने भी अपने बेटे का एडमिशन बोर्डिंग स्कूल में करवा दिया है। अच्छा लगा मुझे भी सुनने में लेकिन दोनों ने फीस बाबूजी से माँगने का निश्चय किया है। जयंती और कुन्नी का कहना है कि,"हम दोनों को शिक्षित करना बाबूजी का जिम्मा था। तो चाहे वे तब करते या अब करें। दीपावली में जाकर फीस और ब्रोशर उन्हें थमा दूँगी।"

मैं भी अब यही कहूँगी जिज्जी! कि स्त्री को उसके स्वाभिमान भर हक़ ज़रूर मिलने चहिये शेष अगले पत्र में…। अपना ख्याल आपे रखना.. और खूब रखना..! 

अतिशीघ्र उत्तर की प्रतीक्षा में... 

आपकी उमा..!

 

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Comments

  1. "बहस के बीच बहस" कहानी पर Ila Singh जी की प्रतिक्रिया। धन्यवाद आपके अवलोकनीय मंतव्य के प्रति।
    "बहस के बीच बहस" कहानी स्त्रियों के अधिकार पर बात ही नहीं करती बल्कि बहुत गहरी और संवेदनशील विषयवस्तु सहेजे है, जो बार-बार सोचने पर मजबूर करती है।
    आपने स्त्री सशक्तिकरण के लगभग हर पक्ष पर कलम चलाई है। इस कहानी में किस तरह बचपन से स्त्री अपने पिता,भाई बाद में पति के अधीन रहकर अपनी अस्मिता को भूली रहती है। कहानी में एक बहन का दूसरी बहन को पत्र के द्वारा बहनों की आपसी बातचीत से नारी अधिकारों पर सशक्त ढंग से बात कही गई है। साथ ही पाठकीय रोचकता भी बरकरार रखी गई है।
    कल्पना मनोरमा की यह कहानी नारी सशक्तिकरण की बहस को निश्चित ही आगे बढ़ाएगी।
    कहानी बहुत सशक्त ढंग से आगे बढ़ती रहती है। पत्र के माध्यम से उमा ने समय समाज में प्रचलित रूढ़ियों पर उंगली रखी है। कहानी एक बड़े सवाल पर आकर रुक जाती है। कहानी का अंत प्रभावी है।
    मुख्य सवाल छोटी बहन जयंति ने अपनी सखी मिराली के प्रभाव में उठाया है। निश्चित ही जयंती के ये सवाल पाठकों पर असर छोड़ते हैं जो लम्बी बहस को जन्म देंगे।
    कहानी में सवाल जायज उठते हैं। वाकई में स्त्री जिंदगीभर पहले पिता, भाई फिर पति की छत्रछाया में पलती बढ़ती है।अपनी इच्छा से स्त्री छोटी सी इच्छा भी पूरी करने में असमर्थ है, बहुत जगह आज भी। पिता की सम्पत्ति में अधिकार दूर की कौड़ी है। मिराली की ओर से "दैनन्दिन भत्ता" का विचार भी विचारणीय है। मगर इसकी ध्वनि में दया का भाव छिपा है, ये बात भी जायज है।
    हालाँकि जहाँ तक मुझे लगता है सम्पति में बराबर का अधिकार ही एक ठोस विकल्प और उपाय होगा। दैनन्दिन भत्ते में भी मायके वाले भावनात्मक कार्ड खेलेंगे। रोज का तमाशा बन जाएगा। बदलाव एक झटके से होना चाहिए। क्योंकि जो कष्ट होगा मायके वालों को सम्पति में हिस्सा देने में वो एक बार में ही सध जाए।
    दैनन्दिन भत्ते में तो शायद यह रोज की तकलीफ बन जाएगी।लेकिन जो भी हो कहानी कमाल की बनी है। स्त्री अस्तित्व, अस्मिता के मानीखेज सवाल उठाती है।
    महत्वपूर्ण विषय पर कहानी लिखने के लिए कल्पना को बहुत- बहुत साधुवाद, शुभकामनाएं।

    इला सिंह

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  2. "बहस के बीच बहस" कहानी पर कानपुर की वरिष्ठ लेखिका और भाषाविद Sushma Tripathi जी ने अपना मंतव्य प्रकट किया है।आभार सहित उनकी टिप्पणी लगा रही हूं।

    कहानी नारी सत्ता की खामियों को उजागर करती हुई नारियों के हक़-हुक़ूक़ की बात करती दिखती है।बहस को तो नहीं;परन्तु लेखिका ने स्वयं को केन्द्र में स्थित कर एक सफ़ल वक़ील की तरह कथाक्रम को गति प्रदान की है।

    एक परिवार में पुत्री जन्म ही चिन्ता कारक माना जाता है।उस पर यदि चार-चार बेटियाँ हों,फ़िर तो कहना ही क्या?आज जब नारी व्योम की परिधि को नापती दिख रही है; तब भी परिवार में,समाज में उसे दोयम दर्ज़े ही हासिल हो सका है।संविधान में बेटे व बेटी को समान अधिकार प्राप्त हो गए हैं, लेक़िन वास्तव में कहीं नहीं दिखते।यही कहानी के मूल में है।हाँ!कहानी के अंत में दो बेटियों द्वारा कॉलेज फ़ीस जमा किये जाने और शिक्षा की ज़िम्मेदारी की बात कह कर लेखिका ने क्रांति का बिगुल अवश्य बजा दिया है।

    जैसा कि परिवार की बेटी यदि बड़ी हो तो वह अपनी माँ की सहयोगी मान ली जाती है। छोटे भाई-बहनों को पालने में तो वह माँ की भूमिका में आ जाती है। अतः स्वभावतः पिता से कुछ भी कह सकने की स्थिति में वह नहीं रह पाती।

    छोटी बहनें बड़ी बहन से बोलने की आशा रखती हैं। उनका सहयोग चाहती हैं। सपने देखकर उठकर रोने लगना असुरक्षित भविष्य का द्योतन करता है तो प्रेम जैसे भावपूर्ण विषय को जानबूझकर भुला देना या उसके प्रकटीकरण से बचना नारी के भयपूर्ण व्यवहार की घोषणा करते हैं।

    कल्पना जी नारी मन की कुशल चितेरी हैं।इसमें मतभेद नहीं। विशेष रूप से नारी की मूक वेदना को स्वर देने में माहिर हैं कल्पना जी।कहानी कोर्ट में होती बहस तो नहीं ;परन्तु हमारे घरों में व्याप्त बहस अवश्य है।

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  3. "बहस के बीच बहस" कहानी पर रक्षा गीता जी का मंतव्य आया है। जिसे मैं आदर के साथ यहां रख रही हूं।

    आपको बहुत बधाई 💐 यह बहस होनी ही चाहिए।
    स्त्री-पुरुष संबंधों या देह-मुक्ति प्रश्नों के बीच,यह कहानी स्त्री विमर्शों के बीच उस बहस को शामिल करने की बात करती है जिसे मामूली, घरेलू-से मामले माना जाता रहा है है अथवा समझा जाता है कि इन स्थितियों से तो आज की स्त्री उबर चुकी है जबकि माँ, बहनें और उनके बीच महिलाओं से जुड़े परस्पर संबंध स्त्री मुक्ति के अवरोधक तत्वों में सर्वाधिक रूप से शामिल हैं। जिन पर स्वयं आधुनिकता की चाहना में स्त्री लेखन में नजरंदाज किया जाता है । अभी फिलहाल तो मुझे ममता कालिया की 'बोलने वाली औरत' याद आ गई जहां सास बहू के संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान आकर्षित करते हैं। जहां घर-परिवार, पति और बच्चों में फंसकर एक काबिल महिला की अभिव्यक्ति के रौंदे जाने का सच बयां किया गया है।

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