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Showing posts from May 26, 2020

उड़ान में अभिनय

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उड़ान  में  अभिनय  ऑफिस अब सब्जेक्ट टू मार्केट नहीं, सब्जेक्ट टू होम बन चुका था | कनिका की शिकायतें जब से कोरेंटीन हुईं तब से चाय के प्लाये टूटने पर, बेटियों को होमवर्क, कुत्ते को घुमाने, डस्टिंग-मोपिंग, सब्ज़ी काटने, कूड़ा फैंकने जैसे मुद्दों पर पति से माथापच्ची करने लगी थीं | आज सुबह से दोनों पति-पत्नी अपना-अपना ऑफिस खोले, वर्क-मोर्चे पर डटे थे और बेटियाँ पढ़ाई पर | घर शान्ति के कब्ज़े में था लेकिन शांति के दामन पर टपकतीं आरो की बूँदें  नगाड़े पर चोट-सी पड़ रही थीं | तंग आकर पति ने आदेश दिया-“ कनिका अपने आरो को शांत कराओ, नहीं तो मैं इसे अभी फेंक दूँगा |” “नहीं नहीं कुंदन प्यारे, हम प्यासे मर जायेंगे…|” कहते हुए पति के आदेश को मोड़कर उसने बच्चों की ओर उछाल दिया | माँ का फेंका हुआ आदेश सीधे बड़ी बेटी की किताब पर औंधे मुँह  जाकर गिरा |  अचानक हुए धमाके से पहले तो वह डरी लेकिन तुरंत ही उसने उसे कनू के ओर फेंक दिया | कनू तक पहुँचते-पहुँचते आदेश गेंद की तरह गोल बन चुका था इसलिए कनू ने अपनी रंग सनी तूलिका घुमा, छक्का लगा दिया और हिप-हिप हुर्रे कर नाचने उठी  |  कविता ने उसको

वसंत

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                                                                                         वसंत की आहट है  या शोर है पतझड़ का  कहना कठिन है   वैसे तो कर दिया है दिशाओं ने रँगना आरम्भ  अपने होंठों को भोर भी रचने लगी है अल्पनाएँ  क्षितिज की मुँड़ेर पर  किन्तु फिर भी  वृक्षों के खुशनुमा गलियारों से  आ रही है सन्नाटे की  अजीब आवाज़ें  क्या वृक्ष भी रोते हैं क्या  बिछुड़न की चोट से  वसंत के आदान -प्रदान  की ये रीति नहीं  आती समझ  नए जन्में पौधों को । -कल्पना मनोरमा 

लौट गए पैदल

गाड़ी में बैठ जो आए थे गाँव से लौट गए पैदल वे  आँसू ले आँख में। मिट्टी की देहरी पर  फूँस की छानी थी कर्जे की रोटी में  शाह की मनमानी थी यही सोच लेकर सब  महानगर आये थे शूरवीर ऐसे, लगा मेहनत के जाये थे। नापी थीं सड़कें जो दौड़ -दौड़ पाँव से  लौटाया खाली बस दुख देकर काँख में। देहाती बोली में याद लिए खेत की यादों की पोटली में  बात बची रेत की कभी नहीं सोचा था  जाएँगे लौटकर इसी लिए आये थे  घर-कुनबा छोड़कर काँप रहा गाँव जो साथ लिया छाँव से दौड़ चले देहाती  घाव लिए पाँख में ।।

कुण्डलिया छन्द

दीपक ,घी-बाती बनी,प्रतिपल बदला रूप। छाया  में लिखती रही, नारी  अपनी धूप।। नारी अपनी धूप , किया  रातों  को उजला। चुनती गई कुरूप ,नहीं  पथ अपना बदला।। कंकड़-मिट्टी धूल ,बनी  वह  सबकी रूपक। कुटिया हो या महल, सजाया बनकर दीपक ।।

दोहे

चला पथिक पथ मोड़कर,नज़रों के उस पार कर्म  गवाही दे  रहे,  था  जीवन  त्योहार ।। कविता बेबस गाय-सी ,हाँकें फिरते  लोग। मर्म न जाने काव्य का, ले  बैठे  हैं रोग ।। गांधी के सिद्धांत को,  वानर   रहे   सँवार तीन बुराईं छोड़कर,  जीत    रहे  हर वार || लघुता ने जब उचक कर ,की प्रभुता से बात  प्रभुता थोड़ी झुक गई, लख लघुता का गात।