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पराधीन कौन

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स्वाभाविक आज़ादी का सूत्र माँझा जबकि धरती पर स्वतंत्रता एक शाश्वत बोध की तरह चर-अचर में व्याप्त है। फिर भी मनुष्य को उसके लिए तड़पते देखा जा सकता है। क्यों ? जब प्राकृतिक रूप से कोई किसी के दवाब में नहीं है तो बैचेनी किस लिए। पृथ्वी पर छोटे से छोटे कण की अपनी सत्ता है , तो फिर ये अमानवीय चीख-पुकार किस लिए ? जर्रा भी अपनी अखंडित विराटता में जन्मता और नष्ट होता है। फिर तो प्रकृति की शाश्वत स्वतंत्र अवधारणा में प्रत्येक जीव-जन्तु आज़ाद ही हुआ न ? सृष्टिकर्ता ने प्रत्येक जीव को एक आज़ाद त्रिज्या में प्रकटाया है और जीवन जीने का अधिकार दिया दिया है। साथ में एक श्राप कहो या वरदान भी दिया है– जब तक इंसान अपनी स्वाभविक परिधि को नहीं भूलेगा तब तक वह परम स्वतंत्र ही बना रहेगा। इसके इतर सोचकर भी क्या देखूँ और क्यों देखूँ ? विचार बार-बार मन में उठता-गिरता रहता है।   लेकिन जब स्वतन्त्रता का अमृत महोत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा हो तो अनायास ही ध्यान उस ओर खिंचा चला जाता है। अन्य जीव जंतुओं को छोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें स्वतंत्रता की इतनी परवाह नहीं जितनी इंसान को है। इंसान जितना अपनी आज़ादी खोने से डरता