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Showing posts from November 8, 2021

छवियों की चित्र-गंध

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मछलियाँ बेचैन हो उठतीं/ देखते ही हाथ की परछाइयाँ/ एक कंकड़ फेंककर देखो/काँप उठती हैं सभी गहराइयाँ। सच ही तो कहा है गीतकार महेश्वर तिवारी जी ने कि शांत झील में नन्हीं सी एक कंकड़ी उछाली नहीं कि गहराइयों में पड़ी सुस्त पत्ती में भी कम्पन हो उठता है। उसी प्रकार यादों की सुषुप्त झील में एक दृश्य हलचल मचाने को काफ़ी होता है ।  कुछ घटक होते ही ऐसे हैं जो हमारे समाने आते ही खुशनुमा यादों को पर लग जाते हैं। उनके साथ हम यूँ मचल कर उड़ान भरते हैं कि बेमौसम वसंत खिल उठता है। जैसे आज़ ये स्वेटर मेरे सामने पड़ा तो जहान भर की यादें मेरी स्मृतियों की खोह में सिमट आईं। बिल्कुल ऐसी ही डिजाइन का स्वेटर मैंने भी कभी बड़े बेटे के लिए बुना था। स्वेटर बुनने से बहुतेरी यादें जुड़ी हैं। एक बार मेरे बचपन में जब मैं पाटी और खड़िया से माँ के द्वारा बनाये गये अक्षरों पर खड़िया फिरा-फिरा कर अक्षरों के आकार बनाना सीख रही थी। उस समय माँ पास में बैठी मेरे लिए स्वेटर बुनती जा रही थी। उनकी एक आँख अपनी निटिंग पर रहती और एक मुझ पर सो वे मुझसे बार-बार छोटे अ और बड़े आ में अंतर पूछ रही थीं और मैं उनके हाथों को सलाइयों पर चलते