छवियों की चित्र-गंध
मछलियाँ बेचैन हो उठतीं/ देखते ही हाथ की परछाइयाँ/ एक कंकड़ फेंककर देखो/काँप उठती हैं सभी गहराइयाँ। सच ही तो कहा है गीतकार महेश्वर तिवारी जी ने कि शांत झील में नन्हीं सी एक कंकड़ी उछाली नहीं कि गहराइयों में पड़ी सुस्त पत्ती में भी कम्पन हो उठता है। उसी प्रकार यादों की सुषुप्त झील में एक दृश्य हलचल मचाने को काफ़ी होता है। कुछ घटक होते ही ऐसे हैं जो हमारे समाने आते ही खुशनुमा यादों को पर लग जाते हैं। उनके साथ हम यूँ मचल कर उड़ान भरते हैं कि बेमौसम वसंत खिल उठता है।
जैसे आज़ ये
स्वेटर मेरे सामने पड़ा तो जहान भर की यादें मेरी स्मृतियों की खोह में सिमट आईं।
बिल्कुल ऐसी ही डिजाइन का स्वेटर मैंने भी कभी बड़े बेटे के लिए बुना था। स्वेटर बुनने से बहुतेरी
यादें जुड़ी हैं। एक बार मेरे बचपन में जब मैं पाटी और खड़िया से माँ के द्वारा
बनाये गये अक्षरों पर खड़िया फिरा-फिरा कर अक्षरों के आकार बनाना सीख रही थी। उस
समय माँ पास में बैठी मेरे लिए स्वेटर बुनती जा रही थी। उनकी एक आँख अपनी निटिंग पर रहती और
एक मुझ पर सो वे मुझसे बार-बार छोटे अ और बड़े आ में अंतर पूछ रही थीं और मैं उनके
हाथों को सलाइयों पर चलते देख मोहित हुई जा रही थी।
एक-दो दिन उनको चकमा देते-दिलाते बीत गये। कुछ वक्त निकल जाने के बाद फिर से माँ मुझे पढ़ाने बैठी तो मैं पहले से ही अपना इंतज़ाम करके गाँठ-गठीली ऊन की गुल्ली जो ताई की मदद से बनाई गयी थी और नारियल की झाड़ू की दो तीलियों की सलाइयाँ चटाई के नीचे छिपाकर बैठी थी। जब माँ मुझे क और ख सिखाने के गहन भाव में आईं तो मैंने उनसे यही कहा कि पढ़ना-लिखना तो फिर सीख ही लूँगी, पहले आप मुझे स्वेटर बुनना सिखा दो। और जैसे आपकी उँगलियाँ सलाइयों पर लगातार मटकती रहती हैं उन्हें मटकाना भी मुझे सिखाओ।पाटी किनारे पड़ी मेरी बातें सुन रही थी। वहीँ पास पड़ी खड़िया प्रतीक्षा में थी कब उसको उठाकर मैं कुछ नया लिखना सीखूँ।
खैर, मेरी वाचलता पर माँ हँसी नहीं उनको अच्छा ख़ासा गुस्सा आ गया। पहले तो माँ अपना सर पकड़ कर देर तक बैठी रहीं कि मेरा होगा क्या? पढ़ने की उम्र में ये दुनियादारी सीखने की बात इसके मन में आई कहाँ से। उड़ी-उड़ी दृष्टि से वे मुझे बहुत देर देखती रहीं लेकिन जब मेरी बालसुलभ चेष्टाओं ने उनके मन के किसी कोने को गुदगुदाया तो मेरे साथ हँसते-हँसते वे भी लोटपोट हो गयीं। फिर तो ये ऐसा प्रकरण बन गया कि सब आने-जाने वालों को बताया-सुनाया जाता रहा। मुझे तो बहुत समय तक माँ बेहद चाव और अपनत्व से भरकर मेरे द्बारा बोली गई तोतली भाषा में ही मुझे बोलकर बताया करती थीं।
समय बदला मेरे
जीवन की स्थिति बदली तो मैंने फिर कभी स्वेटर न ही बुना और न ही माँ से सिखाने के
लिए कहा। अब इस बात की माँ को भारी चिंता सताने लगी कि मैं अपने बच्चों को क्या
पहनाऊंगी। लेकिन जब मेरे जीवन में बच्चों का पदार्पण हुआ तो न जाने कितने प्रकार
के स्वेटर बुनने और बच्चों को पहनाने की जुगत भी आ गयी। मेरे बुने स्वेटरों को
देख-देखकर माँ भी खूब जुड़ाती रही थीं।
बच्चों के आने
के बाद लगभग ये समय मेरा ऊन और काँटा के साथ ही बीतता था। बुनाई और डिजाइन सीखने
की जद्दोजहद में सारा दिन कहाँ बीत जाता था पता ही नहीं चलता था। ऊपर से बच्चों की
चों चों में घर को व्यवस्थित भी रखना और उनके लिए गुनगुनाहट से भरे स्वेटर, मोजे, गैलिश वाले पैंट और तरह तरह के कंटोप बुनना।
क्या मजाल जो थकान पास होकर भी निकल जाती।
लेकिन बहुत दिनों तक मेरा अन्वेषी मन बुनाई में नहीं लगा। अब तो खैर कढ़ाई, बुनाई, सिलाई और पेंटिंग से दूर-दूर तक मेरा कोई नाता-संबंध नहीं है। हालांकि सलाइयाँ, क्रोसिया, कढ़ाई वाले अड्डे और ऊन सभी कुछ रखी है लेकिन मन उस ओर लोकता नहीं। सबकुछ यादों में सुरक्षित है। जब मन करता है तो यादों की संदूकची खोलकर घंटों उलझी रहती हूँ। लेकिन हमारे प्रिय कवि गिरजाकुमार माथुर कहते हैं-
छाया मत छूना मन
होता है दुख
दूना मन
जीवन में हैं
सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की
चित्र-गंध फैली मनभावनी;
तन-सुगंध शेष
रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों
की याद बनी चाँदनी।
अब उनको क्या बतायें कि मेरे जीवन के थके-हारे एकाकी मन के पास मुस्कुराने के अनमोल साधन के रूप में सिर्फ़ यादों की छायाएँ ही हैं जो वरदान जैसी लगती हैं। अस्तु!
***
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(११-११-२०२१) को
'अंतर्ध्वनि'(चर्चा अंक-४२४५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी!
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteहमारी पीढ़ी के दिल को सकूँ मिला होगा यह पढ़कर
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteवाह!बेहतरीन!
ReplyDeleteमन की उहा-पोह को शब्द दे दिए हैं ।
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत यादें संजोयी हैं आपने वह भी इतनी खूबसूरती से।...
ReplyDeleteआप सभी विद्वान सुधी साहित्य सेवियों को दिल से आभार!
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