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इत्ती-सी ख़ुशी

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चित्र : अनुप्रिया  सातवीं मंजिल से   मैं नीचे झाँक रही थी। कामायनी सोसायटी के पार्क का मनभावन दृश्य ,  धूसर हो चुकी मेरी आँखों के लिऐ भोर की नरम ओस जैसे लग रहे थे। सौन्दर्य का यह व्याकरण केतन के पिता के साथ देखती तो कितना सुंदर और लगता! नियति के आगे किसी की चलती नहीं । वर्तमान की खूबसूरती देखते- समझते हुए मैंने पलट कर अपनी ओर देखा तो मेरी गरीब चीज़ें बड़ी बदरंग और अनमनी लगीं। जल्दी-जल्दी उदास- पुरानी वस्तुओं को धकेलकर मैंने बाउंड्री के किनारे धकेल कर ढक दिया। दो-चार पौधों वाले गमलों को बालकनी की दीवार पर रख दिया ताकि आठवीं मंजिल से जब लोग हमारी ओर देखे तो हम उन्हें अच्छे दिख सकेंगे।  " बाहर से सुंदर दिखना ही आज का मूलमंत्र है, है न! "  विचारते हुए मैंने फिर से नीचे देखा।  एक महिला इंग्लिशी परिधान में लिपटी हुई लिफ्ट से निकलकर गाड़ी में बैठी और फ़ुर्र हो गयी । ये ज़रूर बाज़ार गयी होगी । दिवाली के दिन चल रहे हैं न!  " क्या मुझे भी धनतेरस कुछ खरीद लेना चाहिए ? वैसे तो न जाने कब से जिंदगी की मीनमेख ने मुझे कभी कुछ खरीदने नहीं दिया। पति की छोटी-सी नौकरी में बेटा पढ़-लिख गया वही क्