एक दिन का सफ़र कथा संग्रह पर सुप्रिया जी की टिप्पणी
आज का दिन कल्पना मनोरमा द्वारा लिखित कहानी संग्रह ' एक दिन का सफर ' के साथ बीतने वाला है. कल्पना एक बेहद संभावनाशील कथाकार हैं जो अपनी कहानियों में अपना सामाजिक - सांस्कृतिक परिवेश ढूँढती हैं. बेहद सहज सरल भाषा और कथानक को चुनकर वो गंभीर विमर्श रचती हैं. यह उनके लेखन की विशिष्टता है. कठिन लिखना आसान होता है और सरल लिखना बेहद कठिन, इसलिए हमें प्रेमचंद की भाषा उनके करीब ले जाती है. कल्पना भाषा और कथ्य के शिल्प को रचते हुए इस भाव का बहुत ध्यान रखती हैं. बारह कहानियों के इस संग्रह में वे स्त्री जीवन के उन मुद्दों या अनुभवों को शामिल करती हैं जो उत्तर भारत के मध्यम वर्गीय स्त्री के जीवन में बार - बार घटित होते हैं. कितनी कैदें, गुनिता की गुड़िया, हँसों जल्दी हँसों, पाहियों पर परिवार, जीवन का लैंड्सकेप इत्यादि कहानियाँ स्त्री शिक्षा एवं सामाजिक गतिशीलता, स्त्री गर्भ के बाज़ारीकरण, मध्यम वर्गीय कामकाजी स्त्री के रोजमर्रे की दौड़ धूप और प्रकृति के साथ स्त्री के संबंधों की गहरी पड़ताल करती है. भारतीय स्त्री विमर्श की सांस्कृतिक ज़मीन की कई तहें हैं और समाज के हर तबके, हर वर्ग,...