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संस्कार : डर या आत्मविश्वास -स्तम्भ -6

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  स्वदेश का रविवारीय स्तंभ 6 #स्तम्भ_बालिका_से_वामा छह–सात वर्ष की बच्चियाँ जीवन का सबसे कोमल और रचनात्मक समय जी रही होती हैं। इसी उम्र में यदि उन्हें डर और आज्ञाकारिता के बोझ में ढाल दिया जाए तो उनका व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है। संस्कार का अर्थ भय नहीं, बल्कि विवेक और आत्मविश्वास है। परिवार यदि उन्हें भरोसा, सुरक्षा और संवाद न देकर उनका वस्तुकरण करने लगे तो वही बच्चियाँ जो आगे चलकर साहस, न्याय और संवेदना से समाज को बदलने की शक्ति बन सकती हैं, एक मामूली स्त्री में बदल कर खेद भरा जीवन जीन के लिए मजबूर हो जाती है। आज जब हम बार बार कह रहे हैं कि दुनिया बदल गई है। यकीन मानिए हमने बच्चियों की परवरिश मन से नहीं की और जब वही बच्चियां मां बनीं, तो उन्होंने अपनी औलाद में मानवीय गुणों को नहीं रोप पाया। बदलते वक्त को देखकर जो तुम्हें खुशी होती है, तो ये जानो कि जब सभ्यता के रथ पर सवार होकर समय चलता है, तब ये सब घटित होता है। स्त्री, सभ्यता की सहेली है और सृष्टि की धुरी। अब आप इस बात पर विचार करें...... संस्कार चूरन नहीं, जीवन का लेन देन है। कुसंस्कारी, कठोर और दुत्कारी हुई स्त्री सुसंस्कार...