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मौन के अँधेरे कोने

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सुख आया साथ लाया अहलदिली भूले-बिसरे परिजनों की आहटें  मित्रों के कहकहे देर रात तक चलने वाली बैठकें बेफ्रिकी की वे तमाम सौगातें   और बेबात की मुस्कानें जिनके साथ भोगते हुए सुख  हम भूलते गए खुद को और जीते गए संसार को फ़िर एक दिन दबे पाँव आया दुख हम आ गए रपटीले सन्नाटे में भूलने लगे मित्र हमको हम पुकारते रहे सभी को अपनी ओर  हवा खाती गयी हमारी ध्वनियाँ बीच में  सीखने लगे सगे-सम्बंधी हमें नजरअंदाज करने के हुनर और ऐसे हम होने लगे निचाट अकेले अपनी अवसादी चिंताओं के साथ उगने लगे हमारे चारों ओर मौन के अँधेरे कोने जिनमें दुबक कर हम खूब रोये लेकिन सुने नहीं गए  किसी अपने के द्वारा और धीरे-धीरे  दुख के साथ रह-रहकर हमने पहचाना ख़ुद को सीखा समय की तराजू पर रत्ती भर मेल-जोल किये बिना  अकेले तुलना  हम हो गये थोड़े-थोड़े बाग़ी  समय ने सिखाया हमें  सुख वस्तु नहीं है का  फ़ॉर्मूला  जिसे सीखा था किसी सिद्धार्थ ने यशोधरा को छोड़कर महलों में अकेला  लुम्बनी के एकांत में तब से लेकर आज तक बरगद  खड़ा है अविचल  नये गौतम बुद्ध की तलाश में| ***