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Showing posts from January 29, 2021

जगत मिथ्या कहाँ होता...

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  जगत  मिथ्या  कहाँ  होता हमीं  उसको  बनाते  हैं।।   मिटाते   हैं  वही   रश्में बनी जो आग  की होतीं जुटाते हैं वही फिर-फ़िर जो बातें राग  की  होतीं   भटकती है नहीं बुलबुल हमीं उसको फँसाते हैं।।   नदी की  धार  में   बहता समय , किसने  उठाया है लगाया कब गले किसको गिरे को  फ़िर  गिराया  है   डूबता  है  कहाँ   कलशा हमीं  उसको डुबाते हैं।।   अबाबीलों   के   साये   में कहाँ  कोयल  कुहुकती है धरी  तलवार  पर  गरदन कहाँ गिरकर सम्हलती है   पलक उठकर कहाँ झुकती हमीं  उसको  झुकाते  हैं।। ***