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ठोकर

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  चित्र : श्लेष अलंकार जी   मिली जो जिन्दगी हमको बनी वह भीड़ का हिस्सा मनाया सुख उसी में घिर लगा फिर ज़ोर का धक्का लगी ठोकर हनक कर जब उछल कर जा मिली खुद से   हिलक कर रोई फिर गिरकर न पूछा भीड़ ने रुककर मिला एकाकीपन गहरा नहीं था अपनों का पहरा   साथ थे गर्म आँसू बस उन्हींने मन को मथ डाला धुला आकाश जब उर का खिली फिर जिंदगी उसमें सम्हाला आप ही ख़ुद को उजाले भी बुने बेहतर   सम्हलता देख कर मुझको पलट कर भीड़ फिर भागी लपट दौड़ी विचारों की गिराया जिसने था बढ़कर भरे बाज़ार में हमको   नहीं घुसने दिया उसको खोह खोजी थी जो हमने , अपने ही निजत्वों की बहाई मौन की सरिता   बने ख़ुद के सहारे भी , किनारे भी चलाईं बंसियां अपनी मछलियां भी मिली सुन्दर डोंगियां चिंतन की लेकर बहे जब-जब अकेले हम   भीड़ थी एक ओरी सब गले में डाले गलबहियाँ डिगे फिर भी नहीं थे हम तने थे अंबरी बनकर सुखद एहसास में हर पल   लगी थी ठोकर जो पहले रुलाती अब भी है हमको मगर आभार भी उसका बनी संबल वही दिखती |