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कैमरे की आँख

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  कैमरे की आँख होती है   बहुत ही चालू! अक्सर  कहते हैं  लोग  लेकिन देखा जाये तो   कहाँ पकड़ पाती है  वह बेचारी  हमारे सच्चे दुखों को   अनकही   खोखली मुस्कानों में  देखा है  सबने उसे  फँसते हुए!   दरअसल कैमरे की आँख के  भीतर  छिपकर  बैठा होता है  हमारा ही  दुःख   जो ख़ुशी की आँख बचाकर  हुंकारता है जब बेरहमी से   तो दुम दबाकर दर्द  सिलने लगता है   अपना पुराना गूदड़ जो मिला होता है विरासत में   दुनिया की हर स्त्री को मुस्कानें सेल्फी वाली   रचती होगीं  अल्पनाएं   पवन में उड़ते भोज पत्रों पर जो कभी नहीं आते हैं  हमारे गलियारों तक मुस्कान-ए-सेल्फी    किंचित छू   नहीं पाती है   दिलों को  और ऐसे  उस बेचारी से  छूट ही जाता है  हर बार कुछ न कुछ अनदेखा स्त्री की आँख में. ***