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Showing posts from August 23, 2020

दस दोहे

  कौवा ठहरा बेसुरा, कोयल मीठे बैन ठगती वो ही प्रेम से, कौवा  के दिन-रैन ||   तकली निशदिन चाहती,धागे के संग नाच रुई बिनौरे में सुखी,दर्पण के संग काँच ||   आँख उजाला चाहती, या चाहे अँधियार मूरख मन उल्झा रहे,सुलझाने में तार ||   हम गायेंगे आपको,आप करो अनुवाद खुशियाँ गाने के लिए, रहे यार आवाद ||   लाँघी जब से नालियाँ,तब से हैं तैयार चलो सहेली घूमने ,गंगा के उस पार ||   दसबजिया को खाँदकर,रोपा तुलसी-साथ अकड़ सभी से कह रही, धरो चरण पर माथ ||   समय फिरंगी नाचकर,करता सबको दंग समझ न पावे जो इसे,चढ़ती माथे भंग ||   बुरा-बुरा सबको कहे, पगला आठो याम पानी जब दर्पण बना, पड़ा राम से काम ||   जड़-चेतन में बन सके,सबसे ऊँचा नाम होड़ा-होड़ी में छिना,मन के लघु आयाम ||   बंधन भी प्यारा लगे, जो हो उसमें नेह अधिकारों की डांट में,झरता नैनों मेह || ***    

दस दोहे

स्वर्ण बाँसुरी होंठ धर , दिनकर गाता गीत नाच-नाच मन मोर-सी,किरण सिखाती रीत ||   किरन परी उतरी नहीं,छोड़ पिया का गाँव लहरों पर किसने धरे, गेरू रंग के पाँव ||   धरती के सम्मान में,किसने छेड़ी बात दुश्मन है या है सगा ,कहो,न बीते रात ||   अहंकार के भाव को ,समझे अहमी जीव कुम्भकार माटी कहे, प्रेमी कहता पीव ||     समय न करता चाकरी,और न खोले फंद जो जागे सो ही लिखे , नये-नये नित छंद ||   चींटी को मोती मिला,चली उठाकर पाँत चखने बैठी जो उसे, टूटे जो थे  दाँत ||   घी खाने की चाह में, बदली सुथरी चाल रामधनी रोगी बना,जीवन हुआ हलाल ||   ख़ुद को नीचा समझकर,चलता कछुआ धीर कर देता ऊँचा उसे, नभ,धरती बलवीर ||   मेढक उछला प्रेम से, समझा कूप विशाल भेंटा सागर से पड़ा , पिचके फूले गाल ||   कौन कहे,किससे कहे,अंतर मन की पीर ढूँढा  फिर-फिर जान दे,मिला नहीं गम्भीर || ***    

दस दोहे

संध्या बोली नेह से , जाओ पी परदेश पौ फटते ही लौटना , निज गोरी के देश ||   अंधकार को पीसकर , करता स्वर्ण समान सविता के आलोक में , दिन है आयुष्मान ||   स्वर्णकार दिनकर बना , कूटे कालिख़ ऱोज फिर भी तन है ऊजरा , मन में रखता ओज ||   रजनी के संगी हुए , दीपक , जुगनू-चाँद पर्वत की तम घाटियाँ , आती निशदिन  फाँद   ||   दिन बनता जब यामिनी , तजता रूप उजास तारों के संग बिचरता , बन चंदा का ख़ास ||   जितने चाहो बार लो , दीपक स्वर्ण समान कण-कण रोशन हो तभी , निकले जब दिनमान ||   कलपुर्जों ने छीन ली , बच्चों की मुस्कान चाचा-ताऊ बन गये , नेह छोड़ शैतान ||   क़ागज कहता शब्द से , सुन रे मन की पीर छूती है मसि-कलम जब  , बनती तब तकरीर ||   कविता को कवि ढूंढ़ता , करता दिन-दिन ख़ोज कभी न मिलती वर्ष भर , कभी मिले हर ऱोज ||   समय सरौता हाथ ले , घूम रहा हर ओर हाथ-सुपारी गिरी जो , कतरेगा बिन शोर || ***      

पुल माटी के

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टूट रहे  पुल  माटी के  सब       उजड़ गये जो तगड़े थे || नई पतंगें  लिए हाथ में घूम रहे थे कुछ बच्चे ज्यादा भीड़ उन्हीं की थी थे जिन पर मांझे कच्चे   दौड़ गये कुछ दौड़ें लम्बी छूट गये जो लँगड़े थे ||   महँगी गेंद नहीं होती है होता खेल बड़ा मँहगा पाला-पोसा मगन रही माँ नहीं मंगा पायी लहँगा   थे  अक्षत, हल्दी , कुमकुम सब पैसे के बिन झगड़े थे || छाया-धूप दिखाई गिन-गिन लिए-लिए घूमे गमले आँगन से निकली पगडंडी कभी नहीं बैठे दम ले गैरजरूरी बने काम सब चाह त वाले बिगड़े थे ||   ***