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बहस के बीच बहस
प्रिय जिज्जी! बहुत दिन हुए, आपका हाल-चाल नहीं मिला। मन में बस एक उम्मीद बनाए रखती हूँ कि सब ठीक-ठाक होगा। मगर जब से सुना है—तेज़ बुखार में आपकी सुनने की शक्ति जाती रही। मन कच्चा-कच्चा बना रहता है। कान को लेकर बचपन से दुःखी रहीं आप। न अम्मा ने झापड़ मारा होता , न ही बधिरता की शिकार हुई होतीं…। आपके दाहिने कान से हमेशा पानी बहता रहा। जब आप माँ बनी , शरीर कमज़ोर हुआ। फिर तो पस बहने लगा। और अब दोनों कान ख़राब। कितना अच्छा होता , आप सुन सकती। हम चारों बहनें फोन पर मिलजुल बतिया लिया करतीं। पर अपने तो भाग्य ही हेठे हैं…। मेरा पत्र जब आप तक पहुँचेगा तो चौंकेगीं जरूर आप। क्योंकि चिट्ठी लिखने में आलसी लड़की चिट्ठी लिख रही है। लिख इसलिए रही हूँ ताकि आप बार-बार पढ़कर विचार कर सकें। अब इस उम्र तक आते हुए लगता है कि बार-बार किसी बात को क्यों आप पूछती हो। सच कहें—बाल की खाल उधेड़ने वाला रोग अब मुझे भी लग चुका है। जयंती और कुन्नी के साथ अक्सर बहस हो जाती है। जब बात समझ ही नहीं आएगी तो पूछना ही पड़ेग...
आत्मकथ्य
कल्पना मनोरमा का जन्म जून 1972 को उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में नाना श्री रामकिशोर त्रिपाठी के घर हुआ. लालन-पालन, बाबा श्री विजय नारायण मिश्र के घर हुआ. स्कूली शिक्षा मामा श्री रामविनोद त्रिपाठी जी के सानिद्ध्य में सम्पन्न हुई. ( हिंदी-संस्कृत) विषय में स्नातक, परास्नातक और बी. एड. की शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ कई अन्य शिक्षात्मक कोर्स करने के लिये कल्पना के पिता पी.एन. मिश्र ने और कुछ पति राजीव बाजपेयी ने उसे कानपुर विश्वविद्यालय से लेकर जम्मू विश्विद्यालय से लेकर भारत के अन्य शहरों में रहकर पढ़ने-पढ़ाने के अवसर प्रदान करवाए हैं. कल्पना का मानना है कि कुछ सीखते रहना मन को स्वस्थ्य बनाये रखना है . जैसे शरीर को स्वस्थ्य रहने के लिए सुबह की सैर करते हैं. यादें ताज़ा रखने के लिए उनको अपने मन से कभी अलग नहीं होने देते हैं. ठीक उसी प्रकार मन को जवान रखने के लिए कुछ सीखना ज़रूरी है..खैर...! इस सबके बावजूद भी ...
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