कवि-कथानटी सुमन केशरी से कल्पना मनोरमा की बातचीत

 

सुमन केशरी से यह संवाद मात्र साक्षात्कार नहीं, एक रचनाकार की आत्मस्वीकृति है। सुमन केशरी एक ऐसी कवि हैं, जिन्होंने निःसंकोच अनेक विषयों पर कविताएँ रची हैं। वे रामायण-महाभारत के मिथकीय चरित्रों की मूल कथा को बनाए रख कर उनमें आधुनिक चेतना भर कर समसामयिक बनाने की कला में निष्णात हैं। इसी के साथ में ठेठ आधुनिक विषयों व संवेदनाओं की भी कविताएँ रचती हैं तथा कविताओं का विश्लेषण भी करती हैं। 'कथानटी' के रूप में वे न केवल कथा कहती हैं, बल्कि उसे जीती भी हैं। यह बातचीत स्मृति, संघर्ष, प्रेम, विचार और असहमति की कई परतें खोलती है। उनके लेखन में गहन सामाजिक दृष्टि, आत्ममंथन और स्त्री-स्वर की स्पष्टता है। साहित्यिक सत्ता से टकराते हुए वे अपनी मौलिकता बनाए रखती हैं। यह वार्ता हिंदी साहित्य में स्त्री की सजग, विचारशील और जिजीविषा-भरी उपस्थिति का दस्तावेजीकरण करती है। यह एक लेखिका के सतत संघर्ष और संवेदना की गाथा है। 

क.म. कल्पना मनोरमा ( संवादक  )
सु.के. सुमन केसरी    ( प्रतिसंवादक )



क.म. : आपने लिखना कब से शुरू किया? किसी की प्रेरणा से या स्वस्फूर्त। पहली कहानी/ कविता/आलोचना कौन-सी थी? आपने जब लिखना प्रारंभ ही किया था, वह दौर कैसा था? साहित्यिक, सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत तौर पर।


सु.के. : मनोरमा जी, लिखना और रचना, मेरी नजर में दो चीजे हैं। यूँ तो कोई भी लेखक लिखने से पहले मन ही मन रचता है,  किंतु मेरे संदर्भ में इस रचाव के साथ एक दूसरे ढंग की भी रचना हुई। लिखना शुरु करने से बहुत पहले से मैं कहानियाँ रचती और सुनाती थी, पाँच-छह साल की उम्र से ही। बात बात में कोई प्रसंग गढ़ लिया करती थी और कई बार तो ऐसी बात, जो सच जान पड़े, घटित जान पड़े। सच में बहुत मजा आता था। पर कागज कलम से पहली रचना मैंने 13-14 वर्ष की आयु में लिखी। वह एक कहानी थी, किशोरावस्था की प्रेम कहानी, जिसके पहले और एकमात्र श्रोता मेरे पापा थे। उस प्रेम कहानी का अंत मजेदार था, लड़का जिस लड़की के प्रति आकर्षित है, वह लड़की उस आकर्षण को भाई-बहन के संबंध में बदल देती है। जाने यह डर था या संकोच...या रचनात्मक फलांग की सीमा... उस लड़की के मन में शायद वैसा आकर्षण न था अथवा यह भी संभव है कि संभवतः वह सामीप्य का, आसपास बने रहने का, बोलने-बतियाने, खेलने का सबसे आसान, सबसे अपवाद रहित रास्ता था। उस कहानी का कोई ड्राफ्ट मेरे पास नहीं है, पर मुझे बखूबी याद है मानसिक जद्दोजहद का चित्रण। मुझे अपने नायक का नाम भी खूब याद है- मधुर। इसको लिखने की प्रेरणा स्वतःस्फूर्त थी। उन्हीं दिनों स्कूल मैगज़ीन के लिए लेख आदि भी लिखे।ये लेख अध्यापकों ने विषय देकर लिखवाए थे। तो ये एक तरह से अध्यापकों द्वारा, मुझे लिखने के लिए प्रेरित करने के प्रयास थे।  ये बातें 1971-72 की हैं। वह जमाना और उस जमाने की सोच भी कुछ अलग थी। फिर हम फरीदाबाद जैसी छोटी जगह में रहते थे, जहाँ माहौल बहुत कुछ परिवार जैसा था। हम गोया एक विशाल बहुरंगी संयुक्त परिवार में रहते थे। एक दूसरे के सुख-दुःख में हिस्सेदारी करने वाला परिवार।  मैं साहित्य खूब पढ़ती थी। बचपन में हमारे घर में पराग आता था। नंदन और चंदामामा मैं अपने दोस्तों के यहाँ से मांग कर पढ़ लेती थी। स्कूल में पुस्तकालय था और हमें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। मेरे दादा कहानियाँ सुनाने में बहुत निपुण थे। वे आसपास के सभी बच्चों को बैठाकर तरह तरह की कहानियाँ सुनाते थे। हमारे कुछ बड़े होने पर घर पर धर्मयुग व हिदुस्तान आने लगे। पराग आना जारी रहा। रीडर्स डाईजेस्ट और इलस्ट्रेटेड वीकली आते थे। इसी के साथ सोवियत भूमि भी। हमारे यहाँ पढ़ाई-लिखाई का माहौल था, इसलिए कई पुस्तकालयों से भी किताबें आ जाती थीं। पर साहित्यिक लोगों से मेरा कोई परिचय न था। हम फरीदाबाद में रहते थे- अपनी बावड़ी, अपनी बगिया में मस्त! 1974 में लेडी श्री राम कॉलेज में एडमीशन के बाद पहली बार साहित्यकारों से मिली। हमारे कॉलेज की हिंदी साहित्य सभा खूब सक्रिय थी। कई विद्वान बुलाए जाते थे। नामवर जी भी आए थे। और फिर हमारे अपने ही विभाग में सूर विशेषज्ञ डॉ. शकुंतला शर्मा जो भिक्खू जी की पत्नी भी थीं, मनोहर श्याम जोशी की पत्नी भगवती जोशी, भारत भूषण अग्रवाल की पत्नी डॉ. बिंदु अग्रवाल, डॉ. नगेन्द्र की पुत्री प्रतिमा कृष्णबल, नाटककार माधुरी सुबोध, डॉ. सुषमा भटनागर आदि का जमावड़ा था।



ये सभी लोग लिखने-पढ़ने के लिए प्रेरित करती थीं। वहाँ रहते हुए मैं साहित्य की राजनीति से बिल्कुल अनवगत थी। यानि कि राजनीति तो थी, किंतु मैं कतई गाफ़िल! साहित्यिक गुटों, गुटबाजी व राजनीति से मेरा परिचय जे एन यू आने के बाद हुआ। इसके बावजूद जे एन यू का माहौल ऐसा था, जिसमें हर तरह के साहित्य को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता था और बहसें भी खूब हुआ करती थीं। देश के विभिन्न भागों से, कॉलेजों-विश्वविद्यालयों से आए विद्यार्थी विभिन्न मतों के थे, अतः जानने-सीखने को बहुत कुछ था। जे एन यू ने मुझे हर तरह से समृद्ध किया। फिर व्यक्ति का अपना स्वभाव व ग्रहणशीलता होती है। मैंने खुद को बंधने नहीं दिया और हर तरह की रचनाएँ पढ़ीं। मेरे पढ़ने के विस्तार व गहराई को बढ़ाया, सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी ने। कोई भी विषय, कोई भी लेखक वहाँ अस्पृश्य न था। बल्कि जितना पढ़ें उतना बेहतर। मेरा पोस्टग्रेजुएशन चूंकि जे एन यू से था और उस समय के दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में जे एन यू लगभग अस्पृश्य था, अतः मुझे जे एन यू का होने और मेरे वंशवृक्ष का संबंध हिन्दी साहित्य लेखन अथवा हिन्दी प्रोफ़ेसरी से न होने के कारण मुझे लेक्चररशिप नहीं मिली। अपवाद थे...एक अपवाद तो पुरुषोत्तम अग्रवाल ही थे। उनका परिवार हिंदी साहित्यकारों का परिवार न था...वे अपने बूते किस तरह रामजस कॉलेज पहुँचें, इसकी कहानी भी रोचक है...पर यह भी सही है कि दिल्ली यूनीवर्सिटी के किसी कॉलेज के हिंदी विभाग में पहुँचने वाले वे जे एन यू के पहले विद्यार्थी थे। आज भी आप यूनिवर्सिटियों के हिंदी विभाग में पढ़ा रहे लोगों की लिस्ट निकाल कर देख लीजिए, ढेरों नियुक्तियाँ “खानदानी” हैं! जब मैंने जे एन यू में एडमीशन लिया था, तभी डॉ. बिंदु अग्रवाल ने कह दिया था, अब तुम दिल्ली यूनिवर्सिटी में वापस नहीं आ सकतीं। तब मुझे यह बात बिल्कुल समझ न आई थी। पी एचडी के दौरान मैंने तीन जगह इंटरव्यू दिए। बहुत खराब...लगभग अपमानित करने वाले अनुभव हुए। वहाँ डिस्क्वालिफ़िकेशन का मुद्दा आपका ज्ञान या अज्ञान न था, बल्कि यह कि नामवरसिंह को पढ़ाना आता भी है। क्या तो कोर्स बनाए हैं- मार्कसिस्ट एप्रोच टू लिट्रेचर, फ़ॉर्मलिस्ट एप्रोच टू लिट्रेचर...। ये सवाल मुझे भीतर तक कुढ़ा देते थे। इन्हीं सबके चलते मैंने आजीविका का रास्ता बदल लिया। साहित्य स्वांतःसुखाय पढ़ने-लिखने लगी।


उससे मुझे भला कौन रोक सकता था, सकता है?  मेरा काम सूरदास के भ्रमरगीत पर था। एक इंटरव्यू के दौरान सवाल का जबाब सुने बिना ही प्रो. निर्मला जैन ने बहुत हिकारत से कहा, “तो तुम क्या आ. शुक्ल और आ. द्विवेदी से आगे कुछ कहने जा रही हो?” मैंने कहा, “जी! मैं तथ्यों से साबित कर रही हूँ कि सूर की गोपियाँ जिस निर्गुण का खंडन कर रही हैं, वह निर्गुण, कबीर आदि निर्गुणपंथियों का निर्गुण नहीं है..!” मेरी बात खत्म नहीं हुई थी कि मुझे जाने के लिए कह दिया गया...” बस बस..जाइए मैं अपनी बात पूरी न कर पाई। बहरहाल मेरी मूल थीसिस पर आधारित लेख आलोचना (नए) के 36 वें अंक में “निरगुन कौन देस को वासी” शीर्षक छपा है। कोई चाहे तो भ्रमरगीत पर एक सर्वथा नई दृष्टि से सोचने-देखने का तरीका वहाँ पा सकता है। मुझे फ़ख्र है कि मैंने वास्तव में ऑरिजिनल रिसर्च किया है। मैंने इस लेख की कॉपी अनेक लोगों को दी, पर इस पर बात नहीं होती। दरअसल एकेडेमिया में एक तरह की जड़ता है और “अहो रूपम अहो ध्वनि का भाव” भी। विडंबना यह है कि यदि आप किसी भी विषय पर प्रस्तुत किए शोध प्रबंध को ध्यान से देखें तो सबसे पहले शोध निर्देशक द्वारा शोध के मौलिक होने का प्रमाण-पत्र दिया जाता है। अब सोचिए कि इंटरव्यू में मुझे आधा वाक्य कहने के बाद ही भगा दिया गया, क्योंकि मैं आ. शुक्ल और आ. द्विवेदी से कुछ अलग कहने की अपराधी थी। हम अपनी बनी बनाई धारणाओं से निकलने को तैयार नहीं। फिर अंकों का भी भय है कि यदि नई बात लिखेंगे तो पता नहीं अंक मिलेंगे भी या नहीं। यह किसी भी तरह के ज्ञान के विकास के लिए भयंकर स्थिति है। दुर्भाग्य से हिंदी में पिष्टपेषण की परंपरा बहुत गहरी व व्यापक है। नई बातों को हम स्वीकार नहीं करते क्योंकि हम अपने दिमाग को कष्ट देना ही नहीं चाहते। आप सभी ने कॉलेज अध्यापकों के नोट्स देखे होंगे। अधिकांश अध्यापक सालों साल एक ही सामग्री परोसते रहते हैं। उन्हें बोरियत न होती होगी, ऐसा करते हुए! गजब काहिली और जड़ता का माहौल है। हिंदी आलोचना का अधिकांश ऐसे लेखों से भरा रहता है, जिसमें बस कवि-लेखक का नाम बदल दीजिए और लेख तैयार। कुछ विचार-वाक्य और मुहावरे गढ़ लिए गए हैं और सारी आलोचना उस पर टिका दी जाती है। पता नहीं लोग सोचने से, नई बात कहने से इतना डरते क्यों हैं? और जो कहते हैं, उन्हें सुनना-गुनना नहीं चाहते। एक और बात कि वैसे तो लगभग हर जगह, पर हिंदी में सत्ता पूजन अपने चरम पर है। “आप मेरे लिए क्या कर सकते/सकती हैं” बातें इससे तय होती हैं। आप उच्च पद पर हों, आपके पास संपादन या प्रकाशन हो, आप पुरस्कारों के चयनकर्ताओं में हों, तो आपकी तूती बोलती है। इसमें अपवाद हैं, पर क्या अपवाद नियम को पुष्ट नहीं करते?और एक अंतिम बात। यह बात बहुत से लोग मुझसे कहते हैं कि पुरुषोत्तम अग्रवाल की पत्नी होने का खामियाजा मुझे भुगतना पड़ता है। लोग उनकी प्रचंड प्रतिभा व वाक्शक्ति के सामने तो चुप रहते हैं, पर बदला मुझसे निकालते हैं।...पहले मैं इस तरह की बातों पर ध्यान नहीं देती थी पर अब लगता है कि कहने वाले लोग सही हैं। क्या मैं गलत कह रही हूँ? नाम नहीं लूंगी, और उनकी साफ़गोई की प्रशंसा करूंगी कि कुछ लोगों ने मुझसे साफ़ कह दिया कि देखिए पुरुषोत्तम जी पर लिख दिया है, अतः आप पर नहीं लिखेंगे आदि.. कह सकती हूँ कि बड़े मजे के अनुभव रहे हैं...कभी गुस्सा आता है तो कभी हँसी..



लेकिन एक बात कहे बिना न रहूंगी। आप जानती ही हैं कि पुरुषोत्तम कुछ रिज़र्व रहते हैं और फिर उनका व्यक्तित्व। तो अकसर लोग उनसे बात करने के लिए मुझे ही एप्रोच करते हैं, कभी सीधे तो कभी घुमा फिरा कर। यानि कि पहले मुझे कविता पाठ आदि के लिए बुलाएँगे। एक संबंध-सा स्थापित करेंगे और फिर मेरे मार्फ़त पुरुषोत्तम से पहचान बनाएंगे। इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर होता यह है कि पुरुषोत्तम से पहचान होते ही वे मुझे इतनी सहजता से भूल जाएँगे, या इग्नोर करेंगे कि क्या बतलाऊँ। कई तो पहचानते ही नहीं। मुझे यह बात इतनी खलने लगी है कि क्या कहूँ। लोग कहते हैं कि मैं बहुत सरल-सहज व्यक्ति हूँ। मैं जानती हूँ कि कई लोग इन सुंदर शब्दों की आड़ में मन ही मन या आपस में हँसते हुए मुझे मूर्ख कहते हैं। पर इतनी गाफ़िल मैं भी नहीं। सब समझती हूँ। और अगर कोई इन वाक्यों को पढ़-सुन रहा/रही है, तो वो तो इसे जान ही लें कि मुझे सारी चाल समझ में आती है और मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ गूंजने लगती हैं-

“मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में

चमकता हीरा है;

हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,

प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में

महाकाव्य पीड़ा है,

पलभर में सबसे गुज़रना चाहता हूँ,

प्रत्येक उर में से तिर जाना चाहता हूँ,

इस तरह खुद ही को दिए-दिए फिरता हूँ,

अजीब है ज़िन्दगी !

बेवकूफ़ बनने के ख़ातिर ही

सब तरफ़ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ;

और यह सब देख बड़ा मज़ा आता है

कि मैं ठगा जाता हूँ...

हृदय में मेरे ही,

प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है

हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,

कि जगत्...स्वायत्त हुआ जाता है।“


आप तो जानती ही हैं कि मेरी रचना प्रक्रिया में किसी के मन में उतरना और उसके भावों को पढ़ना कितना महत्त्वपूर्ण है!


क.म. : बहुत सुंदर! फिर जब आप साहित्य में स्थापित होने लगीं तब का समय कैसा रहा था ? उसके मद्देनजर अब आपको क्या बदलाव महसूस हो रहा है?


सु.के.: मुझे नहीं मालूम कि साहित्य में स्थापित होना क्या होता है। अगर स्थापना के प्रतिमान पुरस्कार, फैलोशिप आदि हैं तो जान लीजिए कि मैं एक अनाम लेखिका हूँ। और अगर यह कि स्त्री-दर्पण मुझे इस लायक समझ रहा है कि मैं इस इंटरव्यू का हिस्सा बनूँ, तो समझ लीजिए कि दिल्ली बहुत दूर है...। मैं अपने सृजन व समझ का दायरा बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयासशील हूँ। अपने लेखन के विषय विस्तार व रचनात्मक गुणवत्ता से संतुष्ट हूँ, खुश हूँ...पर एक तरह की उपेक्षा की शिकार भी हूँ...किंतु मैंने ठान लिया है कि किसी भी स्तिथि में अपनी रचनात्मकता बनाए रखूँगी, अपने सोच की मौलिकता बचाए रखूँगी।नो कॉम्प्रोमाईज़!  आज मेरी स्थिति स्वांतःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा...की है... मैं लिखती हूँ, कहानियाँ-कविताएँ आदि सुनाती हूँ अपने रचनात्मक आनंद के लिए। पढ़े-लिखे बिना मेरी मुक्ति नहीं। स्वभाव से जिज्ञासु हूँ अतः नई बातें जानने की इच्छा, नया कुछ कहने की आकांक्षा मन में रहती है। लिखते-पढ़ते हुए मेरा आलोचक मन सदा सक्रिय रहता है। यह सब लिखते हुए भी स्वयं को देख रही हूँ। यह सबसे अच्छी बात है। अपनी पहली आलोचक मैं खुद होती हूँ और अपने प्रति बेहद निर्मम हूँ। पृष्ठ के पृष्ठ काट देने (डिलीट कर देने) में मुझे समय नहीं लगता। अपनी किसी भी रचना को बार बार पढ़ती हूँ, तब उसे छपने के लिए भेजती हूँ। 


क.म.:  आपके लेखन को प्रकाशित करने और करवाने में कौन कौन संपादक, प्रकाशक ने दिलचस्पी दिखाई और लेखन के प्रति प्रोत्साहित किया?



सु.के.: यह बहुत सुंदर सवाल आपने पूछा। मुझे लेखन के प्रति बहुत से अग्रज लेखकों, संपादकों व समकालीन लेखक कवियों ने निरंतर प्रोत्साहित किया। अब आप लोगों ने जो यह प्रश्नावली मुझे भेजी है, क्या यह स्वयं में एक कवि-लेखक के काम का स्वीकार नहीं है? मुझे स्कूल व कॉलेज के अध्यापकों से लेकर सभी ने पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया। घर पर भी परिवार जनों का बहुत जोर रहता है कि मैं निरंतर काम करूँ। अब कुछ विशेष लोग। आरंभिक दौर में ज्ञानरंजन एवं स्व. कमला प्रसाद जी ने लगातार लिखने को प्रोत्साहित किया। हाँ जब मैं कविताओं की ओर मुड़ी, तो ज्ञान भाई को लगा कि एक अच्छी आलोचक ने यह क्षेत्र क्यों त्यागा। वे सच में नाराज हो गए। लेकिन यह जानकर खुश भी कि भले ही मैंने कविताओं को वरीयता दी, किंतु समीक्षा को पूरी तरह नहीं त्यागा। “कविता के देश में” और अनेक अन्य निबंध इस बात के सबूत हैं। अगला नाम मैं विष्णु नागर जी का लूँगी, जिन्होंने सच में बहुत सम्मान पूर्वक मुझे लेखन से जोड़े रखा। स्व. राजेन्द्र यादव जी ने भी मुझसे लिखवाया। हाँ उनमें एक बात जरूर थी कि मैं उनके कहे अनुसार अपने विचार रखूँ, यानी कि डिक्टेशन लूँ, खासतौर से उस लेखिका के बारे में जिन्हें वे पसंद करते थे और स्थापित करना चाहते थे। मैं अपनी आलोचकीय दृष्टि व लेखकीय समझ से समझौता नहीं कर सकती। मुझ जैसी स्वतंत्रचेता के लिए यह मुश्किल था, अतः हंस में लिखना छूट ही गया। अब जब मैं कविताएँ व दूसरा लेखन अपने मन व समझ के हिसाब से करती हूँ, भले ही लोग आज के फैशन के मुताबिक मेरे लेखन को न पाते हुए उन्हें महत्त्व न दें, तो आलोचना मैं किसी के कलम पकड़ाने से कैसे लिखती भला? “आलोचना” पत्रिका में स्वयं नामवर जी ने आग्रहपूर्वक लिखवाया। सूरदास के भ्रमरगीत पर मेरा लेख (निरगुन कौन देस को वासी) उन्हीं के आग्रह पर लिखा गया था। वे स्पष्ट थे कि यह महत्त्वपूर्ण शोध आलेख उन्हीं के संपादन में छपे। रेखा अवस्थी व नमिता सिंह ने बहुत प्रोत्साहित किया।ओम् थानवी, लीलाधर मंडलोई, पंकज सुबीर, पंकज(पाखी वाले), भरत तिवारी सभी ने मांग कर आग्रहपूर्वक छापा। इसी तरह मधुमती के पूर्व संपादक ब्रजरत्न जोशी बहुत आग्रह व सम्मान के साथ लेख-कविताएँ मांगते रहे हैं। सो, इस मामले में मैं खासी सौभाग्यशाली रही हूँ।

बहुत आरंभिक दिनों में स्व. राजेन्द्र माथुर ने बहुत प्रोत्साहित किया। बाद में  चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय, जनसत्ता से जुड़े अशोक जी। तो अनेक नाम हैं, लिस्ट लंबी से लंबी होती चली जाएगी। यहाँ पर विमल कुमार का नाम लेना बहुत जरूरी है। उन्होंने “स्त्री दर्पण” से मुझे निरंतर जोड़े रखा है। वे तो लगातार आग्रहपूर्वक लिखवाते छापते रहे हैं। और दोस्तों की तो पूछिए ही मत! वे लोग तो मेरी नाव के खिवैया हैं...। वे एक तरह से मेरे सच्चे आलोचक हैं। उनकी खूब प्रेरणा रहती है। जब मैं अपनी कविताओं का पाठ करती हूँ और लोगों को मंत्रमुग्ध होता देखती हूँ, तो लगता है, लिखना चाहिए, और लोगों तक पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए।

 

क.म. : आप कविता और कहानी की विषय वस्तु कहाँ से लाती हैं? कहानी के किरदार कैसे बनाती हैं? कोई यादगार किरदार या काव्य नायिका नायक के बारे कहें जिसने आपको सोने नहीं दिया हो।


सु.के. : मैं मूलतः कवि हूँ। कुछ एक कहानियाँ लिखी हैं, जिनके पात्र मैंने बहुत आसपास से उठाए हैं। उनमें से कइयों को मैं बिल्कुल नहीं जानती। वे मुझे बसों में, रेलों में, बाजारों में दिखते रहे। न उनके नाम थे न चेहरे। वे आते, कुछ मिनट आसपास रहते और फिर कभी न मिलने के लिए गायब हो जाते। पर हाँ वे खास तबकों के थे, जिनके जीवन की बहुत सारी बातों से मैं अनजान थी। मैं स्वयं मध्यवर्ग से हूँ। बस एक बात मुझमें अजीब है। मैं किसी भी चेहरे को, उसके व्यक्तित्व को गौर से देखती हुई, उसकी आवाज या आँख के सहारे उसके मन में प्रवेश कर जाती हूँ और तब शुरु हो जाती है कवि-कथानटी की यात्रा, जिसमें किसी के जीवन का खाका तैयार हो जाता है तो किसी की मृत्यु का पूर्वानुमान। वह अबूझ व्यक्ति, मन ही मन पूरे कैरेक्टर में बदल जाता है। पर हाँ हूँ मैं मूलतः कवि। एक एक शब्द को चुन चुन कर प्रयोग करने वाली सचेत कवि। इस बात पर घनघोर रूप से विश्वास करने वाली- जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पर पहुँचे कवि!



हाँ कुछ चरित्र सच में सोने नहीं देते। कहानी “दिल चाहता है” के बच्चे, कहानी “गुलाब” की बच्ची...कहानी “डर” की मल्ली..माद्री, हिडिंबा और माधवी...और भी जाने कौन कौन...कई बार चरित्र आपके व्यक्तित्व को बदल डालने की शक्ति रखते हैं...द्रौपदी व सावित्री ऐसे ही चरित्र हैं। मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित किया हिडिंबा के चरित्र ने। बहुत दम है उस चरित्र में। अपने में यूनीक है वह। इन सब पर लिखते हुए  मैं अकसर खुद से पूछती हूँ- लिखोगी या सोचोगी भी? शब्द केवल शब्द रहेंगे या अक्षर भी बनेंगे। सच कहूँ तो मैं इन्हीं शब्दों की निर्मिति हूँ...मेरी एक कविता है- “उसके मन में उतरना”। यह कविता “मोनालिसा की आँखें” की पहली कविता है। दरअसल किसी भी चरित्र के भीतर उतरे बिना, उसके घात-प्रतिघात को जाने बिना साहित्य रचा ही नहीं जा सकता। “गांधारी” लिखने की प्रेरणा मुझे इस प्रश्न से मिली कि आखिर उसने अपनी आँखें क्यों बांधी होंगी...क्या उसका दम न घुटा होगा, सब ओर अंधकार देखकर? यह प्रश्न लगातार मेरे मन को बींधता रहा, जब तक कि मैंने नाटक  लिख न दिया। इसी तरह हिडिंबा व सावित्री का प्रेम मेरे लिए सतत जिज्ञासा का विषय बना रहा। अब भी मैं कई बार हिडिंबा और सावित्री से संवादरत रहती हूँ। स्त्रीमन को बूझने का प्रयत्न करती हूँ। मनुष्य मन अकूत संभावनाओं का घर है। यह मन ही है जो मौका निकालने के लिए प्रेरित करता है। प्रेरित करता है, साँप को रस्सी समझ कर मंजिल तक चढ़ जाने  के लिए।   हर तरह की बाधा को पार करने के लिए। पहाड़ खोद नदी बहा देने के लिए। मैं मनुष्य की इस संभावना पर बलिहारी जाती हूँ। मुझे लगता है कि जैसे ये सारे चरित्र मेरे आस पास हैं या मैं उन्हीं में से कोई एक हूँ... 



क.म. : बेहद व्यक्तिगत प्रश्न है। चुंकि साहित्यकार का जीवन खुली किताब की तरह होता है। उसी नाते आपने कभी किसी से प्रेम किया? कॉलेज  या उससे पहले या बाद में....? अब और तब के भारतीय समाज में प्रेम की जटिलता सफलता असफलता को आप कैसे देखती हैं?


सु.के. : कोई भी किताब कैसी भी खुली क्यों न हो, पढ़ने वाले उतना ही पढ़-समझ पाते हैं, जितने की उनकी समझ होती है। अतः सच कहें तो किसी का भी जीवन खुली किताब की तरह नहीं होता...बहुत से पन्ने सटे होते हैं, काटने पर कई वाक्य भी संग में कट जाते हैं।फिर पढ़ने वाले के पूर्वग्रह। साहित्यकार भी इसी समाज का हिस्सा है। हाँ! मेरे जीवन की किताब बड़ी हद तक खुली किताब कही जा सकती है।खासतौर पर प्यार वाला हिस्सा। मैंने इस पर कहा भी है और लिखा भी। बहुत से लोग हमें जानते भी हैं। 

हाँ! मैंने प्यार किया है। अब भी करती हूँ। कई पुरुषों के प्रति मन में हल्का फुल्का आकर्षण भी रहा है। कई पुरुषों के  मन में भी अपने प्रति आकर्षण व उससे आगे का कुछ देखा है। पर मैं मानती तो हूँ ही, जानती भी हूँ कि प्रेम करना एक अद्भुत अनुभव है और इसी के साथ बेहद जिम्मेदारी भरा भी। प्रेम के साथ “वह मेरा है, केवल मेरा” का भाव भी आता है। पर प्रेम करने वाले सभी जानते हैं कि ऐसा हो नहीं पाता। वह जो मेरा है, उसका भी कोई अपना हो सकता है...पर इस बात को कोई स्वीकारना नहीं चाहता। भय की अनुभूति होती है। खो देने का भाव पैदा होता है, जो मृत्यु सरीखा दुखदाय़ी होता है। पर सच तो यही है। इस बात को जानना, समझना और फिर स्पेस क्रिएट करना एक बहुत बड़ी चुनौती भी है और मरजीवा बनना भी है...प्रेम कई अर्थों में वास्तव में प्रेम करने वाले को मरजीवा बना देता है...कुंदन बना देता है...पर बिना तपे (सही अर्थों में)सोना कुंदन नहीं बनता! वह जो दिखता है, उसके नीचे अदिखा भी है। पानी कितना भी साफ़ हो, तल दिख रहा हो ...



पर तल के नीचे का जल....प्रेम कुछ कुछ ऐसा ही होता है। प्रेम एक जटिल प्रक्रिया है। मन के तारों को निरंतर सुलझाना पड़ता है...उसे कसना भी पड़ता है, तभी सुर-ताल को पकड़ा जा सकता है...राग को उत्पन्न किया जा सकता है। आपने देखा है न संगीतज्ञों को...एक ही कन्सर्ट में वे कितनी ही बार तार कसते हैं। गायक भी गाने से पहले जाने कितना रियाज़ करता है। ऐसा कभी न समझे कि प्रेम हो गया, तो वह कायम भी रहेगा...वह रोज रोज रियाज़ की मांग करता है...प्रेम साधना है...निरंतरता की साधना...उसके अपने सोपान हैं...साधना चक्रों की तरह.. ऊपर चढ़ना जितना कठिन है, नीचे गिरना उतना ही आसान। प्रेम की शर्तें नहीं होतीं। हर प्रेम एक सरीखा दिखता हुआ भी अपने में बहुत अलग होता है। लगभग अपरिभाषेय...मेरे लिए प्रेम ऐसा ही कुछ है..कबीर के सहज सा...सहज सहज सब कोई कहे, सहज न बूझे कोई...क्या कोई इस सहज को परिभाषित कर सकता है? प्रेम का कोई एक पल नहीं होता वह तारों भरे आकाश की तरह होता है...अनगिन...अब अगली बात। जिस समय हम जवान हो रहे थे, उस समय की फ़िज़ा में कुछ ज्यादा रोमैंटिसिज़्म था। कुछ कर दिखाने, कुछ कर गुजरने का भाव। हम केवल प्रेम नहीं करते थे। समाज के दुःख-दर्द को जानना और उसके लिए कुछ सार्थक करने का भाव हममें था। हम कॉमरेड की तरह थे जो घर और बाहर सड़क पर हाथ थामकर चलने में ही अपने होने की सार्थकता को ढूंढ रहे थे। हम जाति, धर्म, भाषा की दीवारों को तोड़ मनुष्यता की प्रगति का सपना देख-बुन रहे थे। हमारा प्रेम समाज से परे न था, उसके भीतर था, उसे साथ लिए हुए था। परिवार की जिम्मेदारियाँ भी हमारी अपनी थीं और किसान मजूर की भी। जात-पांत से हमारा समाज कभी उभरा नहीं तो भी उस दौर में उसे नज़रअंदाज करने का भाव कहीं अधिक था। एक खुलापन, विश्वास भरा भाव, जो अब कम दिखाई पड़ता है( तो भी लोग प्रेम तो कर ही रहे हैं!)  हाँ अब समाज व संबंध दिनों-दिन जटिल से जटिलतर हो रहे हैं..पर मनुष्य तरीका तो ढूंढ ही लेगा- ऐसा विश्वास मुझे सदा रहेगा और लोग प्रेम करते रहेंगे, प्रेम के लिए मरते रहेंगे!




क.म. : विवाह संस्था और विवाहेत्तर प्रेम, अब लिव-इन के खुले मुद्दे। आपकी राय क्या है इन के बाबत? क्या सहजीवन(लिव-इन) की इस शैली को आप पाश्चात्य से संचालित मानती हैं?


सु.के.: मेरी दृष्टि में लिव-इन कतई पाश्चात्य नहीं है। युगों युगों से यह बात जारी है। स्त्री-पुरुष जाने कब से तो विवाह किए बिना साथ साथ रहते रहे हैं। हाँ अब इसका प्रचलन ज्यादा हो गया है।कानूनी अधिकार आदि की बात आ गई है। इसीलिए यह सवाल उठाया गया है। पर भारत में कम से कम यह देखा गया है कि लिव-इन में भी भारतीय पुरुष, मर्द की तरह ही व्यवहार करते हैं। वे अपनी जिम्मेदारियाँ उठाने से कई बार बचना चाहते हैं। बराबरी की बात वैसी रह नहीं पाती, जिसकी अपेक्षा की जाती है। हाँ ऐसे संबंधों में कानूनी दांवपेंचों के बिना अलग हो जाना आसान होता है। पर हमारा समाज अकसर ही शादी व सेक्स को जोड़ कर ही देखता है। समाज का चित्त बदलने में और ऐसे संबंधों को खुले दिल से स्वीकारने में समय लगेगा। अभी तक तो विवाह संस्था ही ठीकठाक सफल होती दिखती है। विवाहेतर संबंध में अगर छल का दंश दिए बिना कोई संबंध बना ले तो मैं उसे सलाम करूँगी। किंतु झूठ और छल विवाहेतर संबंधों के लिए हवा-मिट्टी-जल का काम करते हैं। झूठ में जो थ्रील का एलीमेंट है, उसके क्या कहने! पर मेरा कहना है- प्यार किया तो डरना क्या... हिम्मत है तो भई खुल के सामने आओ। अपने पार्टनर को विश्वास में लो। उसे भी फ़्रीडम दो कि वह चाहे तो किसी और से आप ही की तर्ज पर संबंध बना ले। आपने मन में एक बाल न आए और सबकुछ ज्यों का त्यों चलता रहे।...तो भई हम मान लें आपको!


क.म. : आपकी नज़र में स्त्री विमर्श की क्या दिशा और दशा होनी चाहिए?


सु.के. : एक  शब्द में कहूँ तो- सम्यक । यह भी जोड़ूंगी कि जब तक हम स्त्री मुद्दे को वर्ग व जाति के व्यापक मुद्दों से जोड़कर नहीं देखेंगे, तब तक हमारी दृष्टि एकांगी रहेगी। दरअसल ये सारे मुद्दे गहरे में सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक प्रक्रियाओं से जुड़े हुए हैं। यह वस्तुतः समाज में वर्चस्व के सवालों से जुड़ा मुद्दा है, जो बहुत जटिल हो गया है। इन दिनों प्रतिगामी शक्तियाँ बड़ी तेजी से मानस को बदल रही हैं। संस्कार मानवीय व्यवहार के दायरे से छिटक कर धर्म के शिकंजे में जकड़े जा रहे हैं। मूल मानवीय गुण यानि कि व्यक्ति सत्ता, बराबरी, करुणा, जिज्ञासा व सहज प्रश्नाकुलता के स्थान पर हमारे धर्म में क्या मान्यताएं हैं, उन पर बल है। अब मेरी इच्छा का निर्धारण इससे होने लगा है कि मैं कहाँ से आई हूँ। ये प्रश्न मुझे विचलित करते हैं। इन पर सवाल उठाना, सोचना जरूरी लगता है। दूसरी बात जो मुझे स्त्री विमर्श के संदर्भ में कहनी है, वह है स्त्रियों के दुःख, उनके संघर्ष।


हमें सचमुच में कदम कदम पर याद करवा दिया जाता है कि हम औरत हैं। बीमार हों, तो हम उस तीमारदारी से अकसर वंचित कर दिए जाते हैं, जो घर के पुरुष को उपलब्ध होती है। “अरे ये तो जीवन भर की रोगी हैं”, ये वाक्य हम सब सुनते हैं, बिना यह समझे कि कोई स्त्री बार बार बीमार क्यों होती है। क्या उसे समुचित पौष्टिक भोजन, आराम व महत्त्व दिया जाता है कि वह खुद को इंसान माने। मर खप कर रोटी बनाएगी, बच्चों को देखेगी और अगर पति की जरूरत हो, तो उसे भी पूरा करेगी। तो इन दुःखों का, संघर्षों का चित्रण जरूरी है। किंतु इसी के साथ यह भी कहूँगी कि  स्त्रियों की स्थिति इन दशकों में बदली है, तो उसकी खुशी हम क्यों नहीं मनाते। हम सफलताओं में भी संघर्ष ही क्यों खोजते हैं। हाँ संघर्ष तो है ही पर क्या केवल दुःख से ही हमारा जीवन परिभाषित होता है? क्या सच में हम स्त्रियों के जीवन में हर्ष के पल इतने कम हैं?

इसको न देखना भी अपने साथ अन्याय करना है, अपने संघर्षों को नकारना है। 

 



क.म. :स्त्रियों के खिलाफ बढ़ रही हिंसा और कुछ स्त्रियों की ओर से  हिंसात्मक पहलकारी पर आपकी टिप्पणी क्या होगी?


सु.के. :  जब भी कोई दमित अस्मिता अपने महत्त्व का रेखांकन करेगी, उसे रोकने के लिए उसके खिलाफ़ हिंसात्मक रवैयों में वृद्धि होगी। यथास्थितिवादी सत्ताएँ अपने वर्चस्व में हस्तक्षेप नहीं चाहेंगी। इसीलिए कई बार जरूरत पड़ने पर दमित अस्मिताओँ को हिंसा का सहारा लेना ही पड़ता है, पर वह कोई दूरगामी बदलाव लाएगा, इसमें मुझे संदेह है। हिंसा अधिक हिंसा को जन्म देती है। जैसे हम अपने लिए सुरक्षात्मक उपाय खोजते हैं, वैसे ही यथास्थितिवादी भी अधिक हिंसा के उपायों से लैस होकर आएँगे। तब? दरअसल समाज में हिंसा का इतना बोलबाला हो गया है कि उससे आगे कुछ सूझता ही नहीं। एकल की बजाय सामूहिक दुष्कर्मों के कारणों पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि समाज को एक समग्र दृष्टि की जरूरत है। सेक्स के प्रति उत्सुकता का शमन कैसे हो, सेक्स की जरूरत को कैसे पूरा किया जाए। स्त्री-पुरुष एक दूसरे को कैसे अधिक से अधिक जाने कि औरत केवल सेक्स की वस्तु न रह जाए। हर आयु वर्ग के लोगों की इच्छाओं का सम्मान कैसे हो। ब्लू फ़िल्मों को कैसे रेगूलेट किया जाए। घर का माहौल कैसा हो। बहुत से सवाल हैं। इन पर ठहर कर विचार करना जरूरी है। गालियाँ भी तो सेक्सुअल ग्रैटीफ़िकेशन का माध्यम बन जाती हैं। एक समाज के तौर पर क्या हम इन मुद्दों पर सोच रहे हैं? हमने तो नैतिकता के सारे मानदंड इसी के इर्दगिर्द बना डाले हैं। सेक्स शब्द से हम सिहर उठते हैं। घरों में, गलियों, स्कूलों में लड़के-लड़कियों में जितनी दूरी होगी, उतनी परेशानियाँ होंगी। ये लंबी लड़ाई के मुद्दे हैं। वैसे सुधार घर से ही शुरु किया जा सकता है। कक्षा में मॉरल साइंस की क्लास सुनते ही हँसी छूटती है। पैचवर्क का कोई काम नहीं।


क.म. : पृथ्वी पर हर चीज़ समय के आधीन है। वक्त ने निरंतर मनुष्य को चौंकाया है। उसी के बाबत 2014 के बाद के समय पर आपकी राय क्या होगी ? साहित्यिक सामाजिक अकादमिक और मानवीय सरोकारों के तहत…..|



सु.के. ; यह सही है कि वक्त ने कई कई बार मनुष्य को चौंकाया है, क्योंकि समय की गति सर्वदा एक सी नहीं रहती। किंतु 21वीं सदी जिस रफ़्तार से बढ़ रही है, उसकी कल्पना असंभव नहीं तो दुष्कर अवश्य है। जब तथ्य और सत्य की मैन्युफ़ेक्चरिंग होने लगे, जब विचार ऐसे रखें जाएं कि कोई प्रश्न मन में उठे ही न, जब सबको लगे कि वह अकेला ही अपना सलीब उठाए है और कोई नहीं साथ, जब अविश्वास के बादल अहर्निश छाए रहें और हिंसा को ही शांति का एकमात्र उपाय समझ लिया जाए तब पौराणिक मुहावरे में कहूँ तो कलियुग अपने चारों पैरों पर खड़ा है। सब ओर निराशा की धूल उड़ रही है, आँखें खुल नहीं पा रहीं। यह समय हर तरह के अतिवाद, अविश्वास और आत्मरति का समय है ...मनुष्यता के लिए बेहद घातक...प्रकृति व पर्यावरण को नष्ट करने वाला समय है। तो मन पूछता है- क्या कोई उपाय नहीं? रोशनी का कोई माध्यम नहीं बचा? तब एक आवाज अंदर से गूंजती है- ...हमें सचेत होना चाहिए, साहसी भी.. अब अगर चुप रहे, तो स्वयं को कभी माफ़ न कर पाएंगे। मैं अपने लेखन, अपनी प्रतिबद्धता और विचार से खुद को जाग्रत रखने का यत्न करती हूँ। इस प्रयास में मैं अकेली नहीं हूँ। मुझ जैसे हजारों-लाखों लोग हैं, जो मुझसे भी अधिक मेहनत से जुटे हुए हैं। आशा की किरण उन्हीं के कामों से उगती दिखाई पड़ती है। अंधेरी सुरंग लंबी और दमघोंटू जरूर है, पर हर सुरंग की तरह उसका समाप्त होना निश्चित है, कब और कैसे, यह अभी भविष्य के गर्भ में है, पर है! मेरे कविता संग्रह “पिरामिडों की तहों में” पहली कविता अगर शीर्षक कविता है तो अंतिम कविता है-"अब गुफ़ा का द्वार खुल रहा है धीरे-धीर”। पहली, दूसरी और तीसरी कविताएँ लोभ, भय, अवसरवादिता आदि के चलते गुफ़ा में बंद होकर मणि-माणिक्य पाने की छटपटाहट है। वहाँ भाषा अपना अर्थ खो रही है। यह आज के समय की सच्चाई है। अंतिम कविता में शब्द अर्थों से मिल रहे हैं और सार्थकता पा रहे हैं। ये संकलन एकदम उपेक्षित रह गया। मुझे ताज्जुब तो होता ही है, उससे कहीं ज्यादा दुःख होता है। इस संकलन की कुछ ही कविताएँ स्त्री विषयक हैं, और तमाम कविताएँ व्यंजनाप्रधान भी हैं, तो इस सपाटबयानी के समय में और क्या उम्मीद रखी जाए? 

किम् आश्चर्यम्! 


क.म. : क्या साहित्य में आपसी संवाद को आप निरस्त होते हुए पा रही हैं? अगर नहीं तो आप लेखक और लेखन को कैसे देख रही हैं ? इस बात पर प्रकाश डालिए।


सु.के. :संवाद हैं, पर क्रमशः कम होते दिख रहे हैं। गुटबाजी और रेवड़ी अपनों को बांटने की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह किसी भी साहित्यिक-सामाजिक गतिविधि को हानि पहुँचाने वाली बात है। पर हाँ खूब लेखन हो रहा है, तरह तरह का लेखन हो रहा है और इसीलिए  सबकुछ ध्यान से पढ़ते हुए मन्तव्यों को भांप लेने की क्षमता को विकसित करना बेहद जरूरी है। पढ़ते-रचते हुए उनके दूरगामी प्रभाव को आंकते रहना बेहद जरूरी हो गया है। 


क.म.: साहित्य का भविष्य कैसे और कैसा देख रही हैं आप? आपके रचनात्मक जीवन में कोई यादगार क्षण, व्यक्ति, मित्र, लेखक, किताब के बारे में कहें। व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, कथेतर कोई किसी भी प्रकार की संतुष्टि....।




सु.के.: जिस तरह से सोच में सरलीकरण व एकांगीपन बढ़ा है, मेहनत न करके बने बनाए फ़ॉर्मुलों पर लिखने का प्रचलन दिखाई पड़ रहा है और सचमुच के शोध के प्रति लापरवाही बढ़ी है,  उसे देखकर कभी कभी मैं हिंदी साहित्य के भविष्य के प्रति निराश होने लगती हूँ। पर इन दिनों बहुत लिखा जा रहा है, सो एक उम्मीद की किरण भी जगती है।साहित्येतर विषयो, विज्ञान, मानविकी आदि पर हिंदी में जितना मौलिक लेखन होना चाहिए, उतना नहीं हो रहा। विषयों की एकरूपता भी विकास को बाधित कर रही है। हमें अपने सोच के धरातल को विकसित करना होगा। इन दिनों इसकी कमी बहुत खल रही है। राजनैतिक सोच हमारे लेखन पर हावी है। यहाँ साहित्य किसी खास मकसद के लिए लिखा जा रहा है। सारी क्रांति व बदलाव का ठेका गोया लेखक ने उठा लिया है। साहित्य की अपनी स्वायत्तता, उसका अपना गुण खतरे में है। “जे एन यू में नामवरसिंह” और आर्मेनियाई जनसंहार पर पुस्तक के जरिए मैंने कुछ कोशिश की है। इसी तरह मेरे कविता संग्रह “पिरामिडों की तहों में” की कविताएँ कई विषयों का अनुसंधान करती है, पर सबसे दुःखद यह कि लोग उसकी इस कविता को ही पढ़ते- उद्धृत करते हैं- निष्कासित तो स्त्री ही होती है आदि। मुझे चिढ़ होती है कि उस किताब में भी जिसमें राजनीति पर इतनी दमदार कविताएँ हैं, मुझे जेन्डर तक सीमित करके रख दिया गया है। किताब पंसारे, गौरी लंकेश दाभोलकर, कलबुर्गी और बांग्लादेशी ब्लॉगर अभिजित को समर्पित है और अभिजित से लेकर बुद्ध, किसान आत्महत्या, बिल्लियाँ आदि अनेक विषयों पर इसमें कविताएँ हैं। पर स्त्री अंततः स्त्री ही रहेगी, व्यक्ति तो बनेगी नहीं! ये कम्पार्टमेंटलाईजेशन सचमुच जानलेवा है। क्या मैं संतुष्ट हूँ , इस पर सोचते हुए कभी लगता है कि हाँ मैंने वैसा ही लेखन किया जैसा चाहा। किसी तरह से दबाब में कोई काम नहीं किया। सो सर्जनात्मकता के धरातल पर खुशी होती है। पर आप ही बतलाएँ कि क्या यह कहा जा सकता है कि मैंने ऐसा सब लिख लिया है कि आगे न भी कुछ लिखूँ तो चलेगा? नहीं कतई नहीं! 


क.म.: सुमन जी, आपने अपने लिए 'कथानटी' जैसा विशिष्ट उपनाम चुना है जो न तो पारंपरिक है, न ही केवल सौंदर्यात्मक। यह नाम लेखन के साथ-साथ एक आंतरिक अभिनय, एक गहरे आत्मविलय की ओर भी संकेत करता है। क्या आप बताना चाहेंगी कि 'कथानटी' कहे जाने के पीछे आपकी वैचारिक और रचनात्मक प्रेरणा क्या रही?  क्या यह नाम स्त्री-अनुभवों को उनके सम्पूर्ण भावबोध के साथ कहने की आपकी जिद का रूप है, या कुछ और?


सु.के.: कोविड के दिनों में गहरी उदासी और शासन-तंत्र द्वारा मृत्यु की वास्तविकता को नकारने से उत्पन्न बेबसी व क्रोध के पलों में मेरा चित्त बहुत वेग के साथ अध्ययन की ओर मुड़ा। लगा कि जिन कहानियों-कविताओं को मैं पढ़ती हूँ, उन्हें अपने मित्रों व दीगर लोगों के साथ साझा किया जाए। शुरुआती दौर में मैं शनिवार को कविताएँ पढ़ती व उनका विश्लेषण करती थी और रविवार को कहानी।लोगों ने मेरे इन पाठों को बहुत पसंद किया। उन दो दिनों की तैयारी मैं पूरे सप्ताह किया करती थी।कविताएँ मैं खूब मन से पढ़ाती थी। मैं यहाँ सुनाना नहीं कह रही- सुनाती तो कहानियाँ थीं, उसमें भी कई बार अंत बदल देती थी, उसे समसामयिक बना देती थी। मसलन पंचतंत्र की कहानी- “संजीवक बैल की कथा” और सुदर्शन की कहानी- “हार की जीत”...मैंने अपनी खुद की विधा तैयार कर ली थी। आप जानती ही हैं कि मैं अकेले ही अनेक पात्रों के संवाद पढ़ती हूँ, पूरे हाव-भाव के साथ। तभी यह प्रसंग उठा कि इस नाट्य विधा को क्या कहा जाए और मुझे क्या नाम रखना चाहिए। अनेक नाम आए। “कथानटी” शब्द दिया, कथाकार गीताश्री ने। यह उपनाम सच में उस विधा को व्यक्त करता था, जिसका प्रचलन मैंने किया! कहानी पढ़ना मेरी जिद है। और अब तो मैं कहानियों के अलावा बहुत कुछ पढ़ती हूँ। मेरा यू-ट्यूब चैनल- कथानटी सुमन केशरी में आप देखेंगी कि कई तरह की प्रस्तुतियाँ हैं। केवल स्त्री-अनुभव नहीं हैं वहाँ। रचनात्मक अनुभवों की समग्रता पर बल है। वहाँ जणगण सिंह श्याम पर अखिलेश के लेख भी हैं , तो यात्रा वृतांत भी, राग वागेश्री पर निबंध है तो जयंत विष्णु नार्लीकर के जीवनी के अंश भी! मेरे जीवन का लक्ष्य ज्ञान का अनुसंधान करना है। अगर चाहूँ भी तो अपने को एक मुद्दे तक सीमित नहीं रख सकती।कभी कभी लगता है कि पूरा विश्व ही मेरा कुटुंब है। मेरे इस काम  को सराहना भी खूब मिली। इतनी कि लोग मुझे कथानटी कह देते हैं, पर मैं यहाँ पुनः रेखांकित करना चाहूँगी कि मूलतः मैं कवि हूँ। कवि होना अत्यंत चुनौतीपूर्ण काम है, भाषा के साथ भावबोध की साधना! 



क.म.: डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल के कबीर पर किए गए शोध और लेखन को आपने बहुत करीब से देखा और जिया है। एक रचनाकार पत्नी और एक साक्षी के रूप में, उस यात्रा में आपकी भूमिका क्या रही? कबीर को लेकर आपकी निजी दृष्टि और अनुभूति क्या कुछ भिन्न है?


सु.के.: यह प्रश्न तो एक लेख का विषय हो सकता है। कबीर से मेरा बहुत पुराना नाता है। दरअसल सूरदास के भ्रमरगीत के निर्गुण-सगुण विवाद  पर काम करते हुए, अन्य भ्रमरगीतों को पढ़ने के साथ साथ मैंने निर्गुण भक्तों को भी सविस्तार पढ़ा। सबसे ज्यादा कबीर को। तो कबीर हमारे जीवन में समानान्तर चलते रहे।मुझे नहीं लगता कि मेरी निजी दृष्टि व अनुभूति में कोई खास फ़र्क है।  कबीर की नारी दृष्टि पर जितनी आपत्ति मुझे है, उतनी ही पुरुषोत्तम को भी। । अब तो हम किसी भी विषय पर  निरंतर बातचीत करते हैं। विद्यार्थी जीवन में अपनी अपनी तैयारियाँ और व्यस्तताएँ होती हैं। नौकरी की भागदौड़ होती है। पर बाद में मैंने देखा कि हमारी एकेडेमिक बातचीत और सामाजिक सक्रियता में साझेदारी बढ़ती रही है। हम निरंतर विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करते हैं। एक सक्रिय रचनाकार की पत्नी होना खासा चुनौतीपूर्ण काम है। पुरुषोत्तम मूलतः पढ़ने-लिखने व सोचने वाले व्यक्ति हैं। सही अर्थों में विचारक। उनसे बात करना अद्बुत अनुभव है। नई से नई किताबें व शोध से वे जुड़े रहते हैं। हमारा सौभाग्य है कि हम न केवल पति-पत्नी हैं, बल्कि पढ़ने-लिखने वाले साथी हैं।हममें खूब बहसें होती हैं। किंतु ये बहसें हमारी सोचने-विचारने की क्षमता बढ़ाने वाली होती हैं। हम बहसों को अहं का मुद्दा नहीं बनाते, बल्कि इसका स्वागत करते हैं। 


क.म.: जब पति-पत्नी दोनों साहित्य में सक्रिय हों तो रचनात्मक संवाद एक संपदा बन सकता है, पर क्या कभी वैचारिक मतभेद या टकराहट भी महसूस हुई? आप दोनों के बीच कोई ऐसा प्रसंग जो लेखन और जीवन दोनों में यादगार हो?



सु.के.: हमारा संवाद सचमुच में रचनात्मक संपदा कहा जा सकता है। बहसें भी बहुत होती हैं, पर जानने की तलब, अपनी बात को ऊँचे रखने से कहीं ज्यादा रहती है। हम दोनों ही एक दूसरे के अध्ययन व चिंतन के प्रति संवेदनशील हैं और सम्मानभाव रखते हैं। पुरुषोत्तम का अध्ययन सचमुच में बहुत विस्तृत व गहरा है। तो पुरुषोत्तम का मानना है कि मेरी इंट्यूटिव समझ गजब है और पढ़ाई के साथ साथ आसपास को देखने समझने की क्षमता भी। मुझमें यस सर कहने की प्रवृत्ति कतई नहीं है, सो उन्हें बात करने में मजा आता है। क्योंकि किसी भी बात को बिना सवाल किए न मानने से तर्क मजबूत होते हैं। तो एक तरह से तो हम अब भी सहपाठी ही हैं। मनोहर श्याम जोशी की कसप मुझे पसंद है तो पुरुषोत्तम को कुरु कुरु स्वाहा। इस पर खूब बहस होती है। मुझे लगता है कि अज्ञेय का उपन्यास नदी के द्वीप बहुत ओवर रेटेड है। वे ऐसा नहीं मानते। मुझे निर्मल वर्मा यूरोपीय संवेदना के ज्यादा निकटजान पड़ते हैं, भले ही वे भारतीयता की बात करें। तो अनेक सवालों पर हममें खूब बहसे चलती हैं। फ़िल्मों को लेकर भी। 


क.म.: आपने “एक तरह की उपेक्षा” का ज़िक्र किया — क्या आपको लगता है कि यह स्त्री लेखन के प्रति पूर्वग्रह था, या स्वतंत्र स्वभाव और असहमति के कारण? क्या आज की युवा लेखिकाएँ इस परिस्थिति से अधिक मुक्त हैं?


सु.के: मुझे उपेक्षा का अहसास होता है। आपको क्या लगता है? उपेक्षा करने के लोगों के पास कारण होंगे, मैं क्या कहूँ। मैं तो अपना काम कर रही हूँ। 


क.म.: आपने उस समय के प्रेम को ‘कॉमरेड भाव’ और समाज-सजग दृष्टि से देखा। आज के युवा प्रेम को आप किस रूप में देखती हैं? क्या वह अधिक निजता की ओर मुड़ा है या कुछ और?



आज के युवा ज्यादा व्यावहारिक हैं। वे भावुकता से कम ही परिचालित होते हैं। यह समय की मांग भी है और बदलते समय का सूचक भी। आम लोगों में निजता बढ़ी है, समाज हाशिए पर आया है, पर यह भी सही है कि हर युग में ऐसे कुछ लोग सदा होते हैं, जो समाज की अंतरात्मा को जगाए रखते हैं। वे प्रेम भी करते हैं और सामाजिक-राजनैतिक रूप से सचेत भी होते हैं। मैं ऐसे कई लोगों को जानती हूँ। ऐसे ही लोग हमारी आशाओं-आकांक्षाओं के संबल हैं। हमारी तुलना में आज की पीढ़ी के सामने ज्यादा चुनौतियाँ हैं। अवसर बहुत ज्यादा हैं, पर पारस्परिक विश्वास व सहानुभूति में कमी आई है। यह दौर बहुत कठिन दौर है, जिसमें मानवीयता को बचाए रखना भी एक चुनौती है। मुझे आज के युवाओं पर गर्व भी होता है और उन से सहानुभूति भी होती है। 




क.म.: आपने कहा “मैं मूलतः कवि हूँ”। क्या कविता आपके लिए जीवन से संवाद का माध्यम है, या स्वयं से साक्षात्कार का? कविता में शब्द चुनने की आपकी सजगता किस आंतरिक अनुशासन से आती है?


सु.के.:  कविता मेरे लिए स्वयं से साक्षात्कार व सामाजिक सोचों से जिरह का माध्यम है। कविता मेरे मनुष्य भाव को जाग्रत करती है, मुझे संवेदनशील व सक्रिय बनाए रखती है। संश्लिष्ट विधा  होने के कारण कविता शब्दों के चयन के प्रति सावधानी व संयम का पाठ भी पढ़ाती है।कविता में न केवल शब्द महत्त्वपूर्ण होते हैं बल्कि उनका संयोजन भी। फिर उसमें अर्थ व्यंजित करने के लिए भी कवि को सोचना पड़ता है। कविता सपाटबयानी नहीं होती।बिंब आदि के चयन में ध्यान जरूरी है। कविता की परंपरा बहुत सुदीर्घ है, इसीलिए मैं बहुत विनीत भाव से ही इस विधा का आह्वान करती हूँ। ध्यान की तरह। मेरे लिए कविता साहित्य का अन्यतम रूप है, और इसीलिए एक रचना में मैंने स्वयं कहा है- मैंने ठान लिया है कि मैं वह सब करूंगी/ जिसे मान लिया था कि मैं कर नहीं सकती/ मसलन कविता करना...( मैंने ठान लिया है)। एक अन्य कविता में मैंने अपनी रचनाप्रक्रिया को इन शब्दों में रखा है- सृजन के बीहड़ों में मैंने कदम रखा/कई सालों बाद/टो..टो कर..(संतुलन)। ये दोनों कविताएँ मेरे संग्रह “याज्ञवल्क्य से बहस” में संकलित हैं। मेरे हिसाब से कविता में कवि के सामाजिक आग्रहों को पानी में मिले नमक या चीनी की तरह होना चाहिए, उसे तेल की तरह तिरना नहीं चाहिए। मैं उसी को साधने की कोशिश करती हूँ।पढ़ने को देखती व सुनती भी हूँ और देखे-सुने को पढ़ने की कोशिश करती हूँ।  



क.म.: माद्री, हिडिंबा, माधवी — आपके कई रचनात्मक पात्र पुराकथाओं से आते हैं। इन स्त्रियों में आपको कौन-सी सर्जनात्मक बेचैनी या शक्ति दिखाई देती है? क्या इन्हें आप समकालीन स्त्री की गूंज मानती हैं?


सु. के: महाभारत मेरा प्रिय ग्रंथ है। मुझे पढ़ने में खूब आनंद आता है। चमत्कृत करने वाली कृति है। अब रही स्त्रियों की बात। मुझे इन स्त्रियों की कामनाओं व पीड़ा में आज की स्त्री के स्वर सुनाई पड़ते हैं। मैं बस इतना करती हूँ कि उनके मन उठ रहे भावों व सवालों को शब्द दे दूँ और समय की नदी में संवाद का एक पुल बना दूँ।



क.म.: आपने स्पष्ट कहा कि लेखकीय समझ से कोई समझौता नहीं किया। क्या कभी ऐसा क्षण आया जब कोई समझौता आसान रास्ता लगने लगा हो — और आपने फिर भी कठिन राह को चुना हो?



सु.के.: मेरे मन में समझौते की बात आती ही नहीं। मुझे लगता है कि ऐसा करना ज्ञान परंपरा से बिटरेयल है। अपने मन की हत्या है! रचते हुए मैं अपने ब्रह्मांड की प्रजापति होती हूँ! 


क.म.: आज की दुनिया पहचान की अनेक परतों से घिरी है — जाति, धर्म, वर्ग, लिंग। इस समय में एक लेखक की ‘स्वतंत्र पहचान’ को बनाए रखना कितना कठिन है? आपकी अपनी रचनात्मक पहचान किन बुनियादों पर टिकी है?


सु.के.: मेरी दृष्टि में साहित्य रचना का मूल प्रस्थान ही मनुष्य व उसकी स्थितियों को समग्रता में देखना है। इसी के साथ यह भी सही है कि हम जिस अस्मिता से संबद्ध होते हैं, स्वभावतः उसके बारे में अधिक गहराई से जानते हैं, उसी तरह जैसे पहनने वाला पाँव ही जानता है कि जूता कहाँ काट रहा है। और वह दर्द कैसा है। तो सबसे आसान है अपनी अस्मिता को आधार बना कर लिखना। उसमें सच्चाई भी होती है, अतः उसे कहना नैतिक भी लगता है। किंतु उस पहचान की पूरी सच्चाई तो कोई एक जान ही नहीं सकता। उदाहरण के तौर पर मैं एक स्त्री हूँ, शहरी मध्यवर्गीय स्त्री, पढ़ी-लिखी ख़ुदमुख़्तार भी हूँ। दलित नहीं हूँ। साथ ही लेखिका हूँ। अब जरा देखिए केवल स्त्री होने भर से मैं कैसे कह सकती हूँ कि मैं पूरी तरह से ग्रामीण, आर्थिक रूप से निर्भर, दलित स्त्री के सारे संघर्षों को जानती हूँ। अगर कुछ जानती हूँ तो पढ़ने-सुनने या काम के जरिए। पर वह सारा दर्द तो मेरा अपना अनुभव नहीं है न। यहाँ साहित्य की समग्र दृष्टि व परकाया-प्रवेश की उसकी क्षमता काम में आती है। तो अगली बात मैं यह कहूँगी कि वह तो सब पर लागू होती है। एक गरीब किसान के दर्द को जानने में भी और दीगर बातों में भी। तो हम अपना दायरा कम क्यों करें। क्यों “पितृसत्ता-पितृसत्ता” इतना जपें कि वह ब्रह्म की तरह नाम-रूपहीन निर्गुण हो जाए। पितृसत्ता को हर स्थिति में ठोस रूप से अभिव्यक्त करना जरूरी है। केवल एक शब्द कहने से काम न चलेगा। साहित्य का तो काम ही है, सब को भाव व रूप प्रदान करना। कभी कभी मुझे पितृसत्ता एक बड़े कंटेनर-सा लगता है, या ब्रैकेट सा, जिसमें सब कुछ भर दो। इतना बड़ा कर दो, कि कोई चीज़ समय पर मिले ही ना और वह बेमानी हो जाए। दरअसल साहित्य की चुनौती ही है कि वह पात्रों व स्थितियों को परत दर परत खोले और हर चीज को उजागर करे, ताकि लोग कह उठे, ऐसा तो हमने सोचा ही न था। एक नई दृष्टि मिली। और यह उजागर करना कोई लेख लिखना या निबंध लिखना नहीं है, बल्कि कथा या कविता के ढांचे में मनुष्य को उकेरना है। इसी के साथ मैं यह भी कहूंगी कि स्त्री के इर्द-गिर्द रह रहे पुरुषों के भी संघर्ष, हैं, उनके प्रति भी जागरूक व संवेदनशील होना पड़ेगा। स्त्री और पुरुष एक दूसरे से मुँह-मोड़े नहीं खड़े कि हरदम विरोध की ही स्थिति होगी। वे समाज की संश्लिष्ट इकाई हैं।


अतः कई बार लड़ाई मिलकर लड़नी पड़ती है। और मेरा मानना यह भी है कि अपना हक हर हाल में लड़ कर नहीं लिया जा सकता। कई उपाय करने पड़ते हैं। बहुतों को साथ लेकर चलना पड़ता है। साम दाम दंड भेद, ये बातें निर्थरक नहीं है। इन सबके बाद ही सहूलियतें मिलती हैं, अवसर मिलते हैं। यहाँ मुझे मन्नू भंडारी की कहानी “नई नौकरी” बेसाख्ता याद आ रही है। पुरुष पात्र किसी भी बात को एक बार बोलता है। वह मुतमईन है कि उसकी बात सुनी जाएगी और स्त्री बार बार बोलती है फिर भी आश्वस्त नहीं। क्योंकि उसमें आत्मविश्वास की कमी है। उसे लगता है कि उसका या तो विरोध होगा, या उसकी बात अनसुनी कर दी जाएगी। हमें अपनी बात प्रभावी ढंग से कहने की कला सीखनी पड़ेगी। एक सम्यक दृष्टि विकसित करनी पड़ेगी। तभी हमारी मुक्ति संभव है। और सच कहें तो हमारी मुक्ति के बिना पुरुष भी कैद बाहर नहीं। उसे बार बार अपने संस्कारों को प्रश्नांकित करने की जरूरत है और हमें उसे खुदमुख्तार मनुष्य बनाने की जरूरत। यह नहीं हो सकता कि हम उसकी रोजमर्रा की सारी जरूरतें ऐसे पूरी करें कि वह बेड के बाहर ताउम्र बबुआ बना रहे। तब तो जान लीजिए कि पितृसत्ता की सबसे बड़ी पोषक ऐसी ही औरतें होती हैं, जो कहती हैं कि हमारे उनको तो यह भी पता नहीं कि रसोई का दरवाजा कौन-सा है। यह पुरुष की स्त्री पर निर्भरता नहीं बल्कि स्त्री को गुलाम बना देना है। यहाँ याद कीजिए सुधा अरोड़ा की मारक कहानी- एक औरत तीन बटा चार या मेरी ही एक कविता- बहाने से जीवन जीती है औरत! हमें डंके की चोट जीवन जीना है, बहाने से नहीं।हमें ऐन सूरज की नाक के नीचे घर बना देना है और वह भी हमारा घर, जिसमें बराबरी का मेरा हिस्सा है, बराबरी की मेहनत भी!  तो निष्कर्षतः यह बात कि मुझे द्रौपदी पर कविता लिखनी है तो कर्ण पर भी, धृतराष्ट्र और भीष्म पर भी, देखूँ तो सही कि उनके मन में क्या है और मुझे अपना शतरंजी पासा कैसे फैंकना है! कोई रोना-धोना नहीं, रोने से जीवन बोझ बन जाता है और मुझे तो उड़ना है पूरे आकाश में! 




क.म.: आपने कहा कि अब आपकी स्थिति “स्वांतःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा” जैसी है — क्या आपको लगता है कि यही सच्चा साहित्य है, या फिर समाज के हस्तक्षेप और बदलाव की जिद भी लेखन का अनिवार्य पक्ष है?


सु. के : स्वांतः सुखाय से मेरा मतलब समाज निरपेक्ष, अपने आसपास की  समस्याओं से मुँह मोड़कर केवल अपने विकास के लिए लिखना कतई नहीं है। मेरा तो सारा लेखन, सारी सामाजिक सक्रियता यही बतलाती है कि मेरा हिमालय इसी समाज के भीतर है, कहीं दूर उत्तर में स्थित नहीं है। मेरी मुक्ति तो इसी समाज में कुछ सार्थक काम करते हुए होगी। हस्तक्षेप व बदलाव की जिद ही मुझे राह छोड़ने नहीं देती। यही मेरा धर्म है और यही कर्म! इसी से मेरी पहचान है! 


क.म. बहुत धन्यवाद आपने अपना कीमती समय दिया .





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