कितनी कैदें
वे पीले पत्तों वाले तुर्श दिन थे। उमानिकेतन गाल फुलाए बच्चे जैसा दिख रहा था।
कभी अम्मा और बाबू के साथ मोहन भैया, माधव, मिन्नी दीदी और मैं, उसके रहवासी थे। मोहन भैया इलाहाबाद पढ़ने चले गए। हम बहनों की शादी हो गई। माधव अकेले बाबू का घर गुलज़ार किए था। हम चार भाई-बहनों में… मोहन भैया और मैं, अम्मा की तरह से थे। दीदी और माधव ने बाबू की शक्ल, अम्मा का रंग पाया था, साँवला।
हम भाई-बहनों पर अम्मा का दाय, बाबू से अधिक था। पर इस बात से बाबू इत्तिफ़ाक नहीं रखते थे। वे कहते– “आदमी हो या औरत दिमागदार को ही मान-सम्मान मिलता है। और मिलना भी चाहिए।”
बाबू के हिसाब से अम्मा इस मामले में थोड़ी पिछड़ गयी थीं। हम लोगों में दिमाग बाबू की देन थी। अम्मा अक्सर कहती थीं। बाबू का दिमाग़दार होना,उन्हें ख़ासा मोहता था। सुख-सुविधाओं के अंबार के बीच, उनका माथा गर्व से उठा रहता। इस बात का कतई अफ़सोस नहीं रहा उन्हें कि—दिन का एक भी पहर वे अपने मन से ख़र्च करने की अधिकारी नहीं थीं। पैसे खरचने की बात तो तारे तोड़ने जैसी ही रही...।
मतलब बाबू के दिमाग़ी दबदबे में अम्मा इतना सिमट गयीं… इतना सिमट गयीं कि अपना आत्मविश्वास ही खो बैठीं। ऐसा मुझे लगता रहा, अम्मा को कतई कोई मलाल नहीं रहा था।
बाबू, ईश्वर और धर्म में गहरी आस्था रखने वाले इंसान थे। मनु-स्मृति के गहन अध्येयता और प्रवक्ता के रूप में भी, उन्हें देखा जा सकता था।
परम्परावादी बाबू, पीढ़ियों से चली आई प्रथाओं में इंच भर भी बदलाव पसंद नहीं करते। और अम्मा के हाथ से बाबू की टहल के साथ दिन-रात के काम नहीं छूटते। फिर भी, उन्हें लगता कि वे समाज में प्रचलित धारणाओं के विपरीत सोच रखने वाली,अनोखी स्त्री हैं। बेटी-बेटा में अंतर नहीं समझतीं। वह बात अलग होगी—कि हम बहनों के आगे अम्मा जताती ही रहतीं… कि भाइयों से ज्यादा वे हमें चाहती हैं। दीदी को अम्मा पर भरोसा भी था। मुझे हमेशा लगता—अम्मा, बाबू की आँखों से दुनिया देखती हैं। उन्हीं की जुबान बोलती हैं।
लेकिन अम्मा...का रुख बदलने लगा था। उनका दुःख भले अज्ञात लग रहा था हमें। मगर अम्मा अब पिघलने लगी थीं। इस बार उन्होंने दीदी का एडमिशन बी.ए में करवाने की सोची और दीदी को उमानिकेतन बुलाया लिया। अम्मा की चहेती दीदी..! सब कुछ अच्छा हो जाएगा की आशा लिए आ भी गयी थी।
मुझे याद है—दीदी की ससुराल का परिवार,उनकी शादी के बाद ही बिखर गया था। नन्हीं पौध को उखाड़कर सीधे कंकडों पर रोप दिया गया था। सास-ससुर छह महीने के अंतर से गुजर गये। जेठ-देवर अलग अपनी घर-गृहस्थी में रम गये। दीदी के पति के बारे में बस इतना ही…सप्ताह में सिर्फ मंगलवार को जीजा शराब नहीं पीते। उसी एक दिन के सहारे अपने और बेटी के जीवन की सुंदर कल्पना कर बैठी थी दीदी। जीजा की कर्कशता, आवारापन, निष्ठुरता, निष्क्रियता शायद अब अम्मा को भी सालने लगी थी।
”समय चूकि पुनि का पछताने,का वर्षा जब कृषि सुखाने।” अम्मा की सहृदयता मुझे कुछ यूँ ही लग रही थी। दीदी के सुनहरे भविष्य की चाहना थी या वर्षों से अपनी आत्मा पर धरे अपराध-बोध के पत्थर से वे निजात पाना चाहती थी…? समझ नहीं आ रहा था। माँ बन चुकी दीदी को पढ़ाई की ओर मोड़ना, दीदी की जरूरत से ज्यादा अम्मा का महत्त्वाकांक्षी उपक्रम लग रहा था।
कभी-कभी मुखरित शब्द भी अपना मंतव्य दूर तक नहीं पहुँचा पाते, जितना कृत्य….।
मुझे हमेशा से लगता आ रहा था– अगर ‘वह एक दिन’ मिन्नी दीदी के जीवन में नहीं आया होता, तो दीदी कहीं किसी अच्छे पद पर काम कर रही होती। बाबू की तरह दिमागदार तो थी ही। सलीकेदार भी थी वह। लेकिन बिजलियाँ पूछकर कब गिरती हैं….
बात उन दिनों की है, जब मैं कक्षा आठ में और दीदी नौवीं कक्षा में पढ़ रही थी।
मोबाइल चलन में नहीं था। घरों में काले-सफ़ेद टीवी थे। बिजली अथिति की तरह आती-जाती। मेरे घर में दीपक की रोशनी में रात का स्वागत हो रहा था। अम्मा की निगरानी में हम बहनों को रेडियो सुनने का, आदेश था। टीवी का महत्व घर में बिल्कुल नहीं था। दूरदर्शन देखकर बच्चे बिगड़ जाते हैं। बाबू मानते थे। माने, बाबू ने अपनी इज़्ज़त हम बच्चों के हाथों में सौंप रखी थी।
रोज की तरह उस दिन भी…उमानिकेतन के मेहराबदार आँगन में पत्थर के कोयले दहक रहे थे। वहीं पास में हम भाई-बहनों के लिए चटाई बिछी थी। अम्मा अँगीठी से बड़े-बड़े फुल्के उतार रही थीं और बाबू की आहट लेती जा रही थीं। हम लोग खाने को उतावले थे। बाबू की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी देर से बाबू भी पहुँच गये।
थालियाँ लगाकर अम्मा कनखियों से बाबू का मन टटोलने लगीं। उन्हें बाबू अनमने लग रहे थे। हम सब चुपचाप खाना खाने लगे। मोहन भैया, बाबू का मुँह ताक रहे थे। बाबू, किसी से नहीं बोले। रात का पहला पहर, सन्नाटे में गुजरता रहा….।
बाबू के हाव-भाव से गुस्सा टपक रहा था। हम लोग कुछ समझ पाते, उन्होंने कहा– खा चुके हो– तो तुम लोग सो जाओ..। बाबू का कहा—‘ब्रम्ह वाक्य जनार्दनम’ सब झटपट उठ गए।
अम्मा-बाबू में बातें शुरू हुईं और गहन होती चली गयीं। मेरे कमरे तक आवाज़ें आ रही थीं। साफ़ कुछ समझ नहीं पड़ रहा था। मैंने खिड़की खोलकर सुनना चाहा। लालटेन की रोशनी में मेरी परछाईं दीवार पर बनने लगी। बाबू को अहसास न हो जाये—मैं उनकी बातें सुन रही हूँ, पीछे हट गयी। थोड़ी देर में जब गालियाँ बरसने लगीं तो कलेजा काँप उठा।
अनुमान और नियंत्रण के परे, दीदी बिस्तर पर अडोल पड़ी रही। मैं देर तक झगड़े को समझने की कोशिश करती रही। जब उलझन बढ़ी, तो बरांडे में, खम्भे की ओट लेकर खड़ी हो गयी।
बाबू की आँखों से झरती भर्त्सना अम्मा बर्दाश्त न कर सकीं। वे रोने लगीं। बाबू, थाली में हाथ धोकर बैठक में उठ गये। अपने कमरे में जाकर अम्मा ने भी साँकल चढ़ा ली। तिरस्कार खायी अम्मा की हालत मुझे छील रही थी। मैंने दौड़कर उनका दरवाज़ा थपथपाया, दरवाजा खुला नहीं…। बहुत रात तक मैं सोचती रही– आख़िर बात क्या होगी? पर लड़ाई का सिरा हाथ नहीं लगा। करवटें बदलते-बदलते हम दोनों बहनें सो गयीं।
सुबह उठी तो अम्मा के सामने जाकर खड़ी हो गई। वह सुबह हमेशा जैसी नहीं थी। रेडियो पर भजन नहीं बज रहे थे। अम्मा गुनगुना नहीं रही थीं। एक दो गौरैयाँ आँगन में फुदक रही थीं। लग वे भी, उदास और सुस्त रही थीं।
अम्मा का चेहरा चूल्हे की बुझी राख जैसा लग रहा था। ऑंखें लाल टमाटर…। रात भर रोने से उनकी शक्ल, पानी में पड़ी फूली रोटी जैसी दिख रही थी।
"क्या हुआ अम्मा ?" मैंने पूछा।
"कुछ नहीं। महारानी जाग गईं..?”
“कौन महारानी…?”
“..तुम्हारी बहन..।"
अम्मा ने मिन्नी दीदी के लिए तंज कसा। उनके लहजे ने मुझे बता दिया। रात का झगड़ा, दीदी को लेकर हुआ था…। मन बैठ गया। चढ़ते अक्टूबर की खुनक भोर छाती में बर्फीली ठिठुरन भरने लगी।
"दीदी छत पर धूप में पढ़ने चली गयी हैं।" अम्मा का मन शांत बना रहे, मैंने कहा।
"उनसे कहो पढ़ाई-लिखाई बंद करें। परांठा बनाएँ आकर। बाबू दुकान पर जा रहे हैं। हो गयी पढ़ाई-लिखाई। हैं ही नहीं वो इस लायक….। चौका बर्तन करें। सड़ें घर में।"
अम्मा आग उगल रही थीं। रविवार का दिन था। उनकी आँख से ओझल नहीं हो सकती थी। अंदाजा लगाती रही कि असल में बात क्या है..? क्यों उपेक्षित नज़रों से दीदी को देखा जा रहा है…?
हालाँकि पराये घर जाने के बाबत, हम दोनों को लगातार घर के काम सिखाये जा रहे थे। मगर उस दिन मिन्नी दीदी को अम्मा ने लगभग सारे काम सौंप दिए थे। खुद खाट पर पड़ीं सुबकती रहीं। दोहरी मार की मारी दीदी, घायल चिड़िया की तरह तड़पती रही। मेरे पास ऐसा कोई मरहम नहीं था, जिससे दीदी की पीड़ा कम हो सके। सिवाय इसके—कि अम्मा का मन जल्दी से बदले और घर में शान्ति और चैन पसर जाए। लेकिन अम्मा और दीदी के बीच आत्मीयता का पुल टूटता रहा। जिसे दीदी बचा लेना चाहती थीं, अम्मा नहीं। उनकी कर्कशता सहना आसान नहीं था। पहली बार आत्मीय अनुबंधों को टूटते हुए देख रही थी।
सहमी हुई शाम उमानिकेतन की महराब पर फिर उतरी। कुछ मिनटों में धुंधलका गहराकर छा गया। तुलसी-चौरे पर दीया धर, अम्मा फिर हुँकारी। दीदी को दुत्कारते हुए कहा–”संझबाती कर और रात का खाना बना।” खुद गीले आटे-सी एक कोने में पसर कर बिसूरने लगीं।
दीदी ने लालटेन जलाई। मैं उसे बैठक में टांग आयी। उसके बाद लैंप का शीशा साफ़ करने को उसने उठाया। लैम्प का शीशा पता नहीं कैसे उसके हाथ से फिसलकर गिरा और चूर-चूर हो गया।
बस, अम्मा को ऐसे ही किसी मौके की तलाश थी। दहाड़ते हुए चारों खाने दीदी पर बरस पड़ीं।
“ध्यान कहाँ रहता है, बेशर्म लड़की का। आवारा लड़कियों की संगत में मजा आने लगा है इसे…? मेरा नाम मिट्टी में मिलाएगी..? स्त्री जाति पर कलंक पोतेगी। इसे स्कूल पढ़ने के लिए भेजा था। ये तो तफरीह काटने लगी….। तेरी वजह से आज हमें, वह सब सुनना पड़ा… जो अभद्र है, फूहड़ है, स्त्री के लिए गाली है। मर्याद का हनन है। बस, तू अब बैठ घर में….। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। तुझे तो मैं जिन्दा ही मार डालूँगी….। समझ क्या रखा है तूने…?”
अम्मा की आक्रोशित आँखें मेरी ओर घूमीं—-“प्रतिभा तू भी कान खोलकर सुन ले…. मोहन और माधव के साथ ही स्कूल जायेगी। और लौटकर चुपचाप घर आएगी। नहीं तो पैर तेरे भी तोड़े जायेंगे। इस कलमुँही को आदर्श मत मान बैठना।…नाशपीटियों मेरी जिंदगी खुली क़िताब-सी पड़ी है, फिर भी मरने का शौक चढ़ा है ?”
उस दिन मुझे बहुत ताज्जुब हुआ—मतलब अम्मा ने बेबसी का लबादा खुद नहीं ओढ़ा। उन्हें सरेआम दबोचा गया था। अम्मा, उस आम की तरह पक चुकी थीं, जिसका छिलका हरा रहकर कच्चे होने का भ्रम देता है। वे अपनी ही लगी सहला रही थीं। मगर दीदी, उनके द्वारा उलीचे अंगारों में जल रही थी। मैं, बाबू दूकान से जल्दी घर न लौट आयें, की प्रार्थना किए जा रही थी।
अम्मा की जली-कटी सुनते-सुनते मेरे कान जब लाल हो गये..। तो मेरी मुट्ठियाँ भिंच गयीं– आख़िर हम बहनों ने किसका क्या बिगाड़ा है? खाना, पीना, कपड़े, जूते, स्कूल, सोना-जागना सब में समझौते ही तो करती आ रही हैं। फिर भी जीने का हक़ नहीं….? हम दोनों क्या जानवर हैं?
सोचकर मुझे दीदी के मौन पर गुस्सा आने लगा। मैं अम्मा से कुछ बोलने के लिए सोच ही रही थी…. तब तक मिमियाती आव़ाज में दीदी बोली। “मैंने क्या किया है अम्मा? क्यों चिढ़ रही हैं आप ?” और बिल्ली की झपेटी छिपकली की तरह धप्प से जमीन पर पसर गयी।
तूने क्या किया है..! ये मत पूछ…! ये पूछ, कि क्या नहीं किया ? बंसीपुरा से साइकिल खींचकर कोई ऐसे ही तो नहीं चला आएगा। मगर बात ये होगी..! नहीं सोचा था। नाक के नीचे गुल खिलेंगे और मुझे पता भी नहीं चलेगा? क्या सोचा था तूने…?”
“...........”
अम्मा, वाल्मीकि के घायल क्रौंच-सी तड़प रही थीं। मिन्नी दीदी अहल्या बनती जा रही थी। मैं, न गौतम बन पाने में समर्थ थी, न इंद्र ,न ही चंद्रमा और न ही राम…! मेरी हालत बलि के बकरे जैसी थी।
"कुल्टा की औलाद कुल्टा नहीं होगी तो क्या होगी?” तेरे बाप ने मुझे बोला। मुझे..! सुन रही है तू। जीवन में पहली बार इतना बुरा सुनना पड़ा। कहते हुए अम्मा फट पड़ीं।
पता चला, अम्मा ‘कुल्टा’ लफ्ज से नफ़रत करती हैं। बाबू ये बात जानते हैं। अम्मा को कसने में बाबू ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। मुझे दोनों ही हतोत्साहित लगने लगे। अपनी-अपनी ग्रंथियों के मारे…। जिस शब्द का अर्थ दीदी समझ ही नहीं पा रही थी…वही शब्द अम्मा के अस्तित्व को छील रहा था। ‘कुल्टा’ शब्द को परे धकेलकर वे बेदाग बचना चाह रही थीं। पर बिंध चुकी थीं। ‘कुल्टा’ शब्द की अनुगूँज से, अपना जीवन उन्हें मृत लगने लगा था।
थोड़ी देर में अम्मा का शरीर मलेरिया के मरीज-सा काँपने लगा। वे फूट-फूट कर रो पड़ीं। जिस पर मुझे क्रोध और दीदी को डर लग रहा था। उनके दर्द की हिलोरें हम दोनों को भिगोने लगी थीं।
“अम्मा, कुल्टा की मानी क्या है…? बाबू ने क्यों कहा कुल्टा…? तुम तो स्कूल भी नहीं गयीं, और न ही जा सकती हो। दीदी जाती है। अब वह स्कूल क्यों नहीं जायेगी…?"
मैंने अम्मा से पूछा। दीदी सहमी थी। उसे लगा, मैं अम्मा का अपमान कर रही हूँ। दीदी विकल हो काँपने लगी। अम्मा नरमाहट से कहने लगीं—
तुम दोनों जानों क्या—दर्द होता क्या है? क्या होता आत्मा की दुत्कार! कल, हमारे घर साँझ नहीं उतरी थी…अपमान चलकर आया था– नत्थूलाल कह रहा था— “राठौर साहब आपकी पुत्री ने अंजाने ही गलत लड़कियों की संगत पकड़ ली है। आपने कह रखा था, छोकरी पर निगाह रखना…। बताने चला आया। बाद में मत कहना कि नत्थूलाल ने बताया नहीं। आखिर मैंने वचन दिया था….। माधवी शहर की घूमी-फिरी लड़कियों में से एक है। अपनी मिन्नी एक निहायत सीधी-सादी लड़की…। पाँव फिसल न जाए…। अपनी इज्जत सम्हालो महाराज।”
अम्मा को लगा— नत्थूलाल बाबू को आगाह करने नहीं…उनकी बेइज्जती करने आया था। आँखों में आँखें डालकर, वह दीदी को चरित्रहीन कहकर चला गया और बाबू की मूँछ झुक गयी, अम्मा का स्त्रीत्व जख्मी हो गया। मैंने दीदी की ओर देखा….माधवी के नाम से दीदी भी झेंप गयी। माधवी एक दरोगा की लड़की थी। कुछ समय पहले ही दीदी की कक्षा में आई थी। देखने में गोरी-चिट्टी माधवी में सम्मोहन गजब का था। कुछ शहरी नखड़े, आभिजात्यपन की खुशबू भी थी। भाषा का तराशा हुआ मुखर अंदाज। देखते ही देखते वह सबके केंद्र में आती चली गयी। कौन नहीं, उसका मित्र बनना चाहता था। लड़के-लड़कियों को तो छोड़ दो… कम उम्र के अध्यापक, क्लर्क आदि सब में… उसे अपना बना लेने की होड़-सी लगी थी। मगर माधवी अपने में स्थिर थी। स्थिर ही बनी रही। बस हँसती दिल खोलकर थी। उसका हँसना ही उसका दुश्मन था और अब दीदी का भी….मुझे मालूम था।
“अम्मा, माधवी के साथ घूमने में बुराई क्या है?” मैंने दबी जुबान में पूछा।
“अच्छा,आज माधवी के साथ घूमेगी। कल उसके दोस्तों के संग। परसों से ये खुद यार खोजती फिरेगी और आवारा होकर जीते जी मुझे मार डालेगी। हमारी इज्जत तो हुई न मटियामेट।”
"अम्मा, माधवी अच्छी लड़की है। थोड़ा हँसती ज्यादा है।" दीदी ने रोते हुए कहा।
“बस ठीक है। वह जैसी है बनी रहे। मगर तू घर में बैठ…। सीख घर के काम। अगले वर्ष ब्याह कर हम भी छुट्टी पायें। क्यों जान खपानी..।”
उस दिन से अम्मा ने दीदी के साथ अटूट अनबोला ठान लिया। बाबू कोठी तक सीमित हो गए। उन्होंने हम दोनों बहनों के साथ, अम्मा के कहीं भी आने-जाने पर पाबंदी लगा दी। हँसना, बोलना, पूछना, बताना, कहना, सुनना… सब कुछ बंद। सबके जीवन में अजीब किस्म का खालीपन भरने लगा।
दिन, हफ्ते, महीने मानसिक रुग्णता में निकलते चलते जा रहे थे। दीदी के मन में विद्रोह क्यों नहीं उठता…? क्यों वह अत्याचारों का प्रतिकार नहीं करती…? क्यों उसने घर की चौहद्दी में मट्टी पलीद करना स्वीकार लिया ? उसका मन कुंठित होता जा रहा। असुन्दर। भौंथरा। दीदी अपमान के घाट उतार दी गयी।
दोनों भाइयों के साथ मैं स्कूल जाने लगी। स्कूल से लौटती, दीदी भीगी चिड़िया-सी मुझे ताकती मिलती। मन दर्द से कराह उठता। वह मेरे लिए खाना परोस लाती। पलंग के कोने में सिमट कर बैठ जाती। हम दोनों, घंटों एक-दूसरे को देखते रहते…बोलने की हिम्मत न जुटा पाते।
अम्मा-बाबू की बेरुखी, दीदी से सही नहीं जा रही थी। वह अपने को निरीह और बेइज्जत मान बैठी थी।
दीदी का जीवन घर से गौशाला तक दौड़ने में बीतने लगा था। दुःख और अपमान की खदेड़ी दीदी के नाखूनों में कालिख भर चुकी थी। गाय का दूध निकालने से,हाथ के अँगूठों में लाल-लाल गाँठे उभर आई थीं। फिर भी दीदी के प्रति हिंसक वाक्य प्रहारों में अम्मा,अपने मन की ठंडक खोज रही थीं। बाबू ने आँखों पर पलकों के पर्दें डाल रखे थे। मजाल उस दिन के बाद, हम बहनों की ओर बाबू ने आँख उठाकर देखा हो।
घर की दीवारों पर महापुरुषों के कोट्स, गीता के श्लोक चिपका दिए गए। जिनका अर्थ, न मुझे पता, न दीदी को। फिर भी किसी दिन कोई शब्द आँख पर ऐसा चढ़ता कि दिनभर कानों में चीखता रहता। अर्थ समझ के परे तब भी बना रहता।
नौवीं कक्षा में, दीपावली की छुट्टियों में दीदी को नज़र कैद हुई…जो बारहवीं तक अनवरत चली। परीक्षा देने भर के लिए घर के किवाड़ खुलते रहे।
मानो दीदी ने जीवन को अपने भीतर आने से रोक दिया था। ऐसा नहीं—दीदी के दुःख से मौसम बदले नहीं, वसंत आया नहीं। सब कुछ हो रहा था। बस, दीदी ने जीना छोड़ दिया था। पीलिया की मरीज जैसी दीदी, न चोटी करती, न साफ़ कपड़े पहनने का मन होता उसका।
कभी ज्यादा हँसती। कभी पूरा दिन रोती। वह अपने को भूलना चाहती थी। उसका अल्हड़पन शोक में डूब चुका था। उसके आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ चुकी थीं। किसी के सामने या तो बिलकुल नहीं बोलती या बहुत ज्यादा बोल जाती। अम्मा को लगता वे अपमान सह रही थीं, दीदी की वजह से।
दीदी प्लस टू की परीक्षा दे चुकी थी। उनकी शादी की सुगबुगाहट चालू थी। मैंने अम्मा से कहा,”दीदी को कॉलेज पढ़ने भेजा जाए। शादी न की़ जाए। दीदी के जीवन में जैसे भी जीवन्तता आ सके, हमें प्रयास करने होंगे। अम्मा कुछ नहीं बोली। एक दिन दोपहर में मैंने कहा—
“अम्मा, दीदी के बारे में अगर अब आपने बाबू से नहीं बोला…तो मैं घर छोड़ दूँगी। नहीं रहूँगी ऐसे घर में, जहाँ स्त्री का न मान है, न सम्मान…। स्त्री चौका बर्तन के लिए ही जन्म नहीं लेती…झूठी तोहमत को सही मानते हुए गलना कहाँ की बहादुरी है? दीदी को भी जीने का अधिकार है। आपको भी। मुझे भी। दुनिया की सारी स्त्रियों को। जरा सोचो अम्मा…!”
अम्मा मेरे जिद्दीपन से वाक़िफ थीं। कुछ ढीली पड़ीं। लेकिन बाबू के डर से जल्दी ही लड़कियों के लिए कॉलेज जाने के फायदे कम, खतरे ज्यादा बताने लगी थीं।
फिर एक दिन मैंने दिनभर खाना नहीं खाया। अम्मा, का मन पसीजा। वे बाबू के पास गईं।
आभास था मुझे, मगर इतना नहीं। दीदी के बाबत अम्मा के मुँह से कुछ शब्द सुनते ही, भाई-भतीजों के साथ बाबू, उन पर बरस पड़े।
“मिन्नी अगर कहीं जायेगी तो सिर्फ अपनी ससुराल। देहरादून में एक घर देखा है। शादी का मुहूर्त पंडित से छंटवाने जा रहा हूँ। बस उसके ब्याह की तैयारी करो।
अम्मा अवाक थीं। एक बार फिर से वे घायल हुई थीं। कुछ महीनों के बाद जून में दीदी की शादी कर दी गयी। दीदी, अपनी विदाई में अम्मा के गले मिलीं जरूर लेकिन आँसू उनकी आँख से एक भी नहीं टपका था। ये बात अम्मा को खल गई। “ऐसे भी लडकियाँ सासुरें जाती हैं? ब्याह के बाद माँ-बाप को छोड़ने में कितना कलेजा दुखता है। मिन्नी को तनिक भी दुःख न हुआ..।” बार-बार पछताई सी अम्मा बोल उठतीं।
कौन समझाता उन्हें…! प्रेम की आँच बुझाई तो अम्मा ने ही थी। प्रेम, पिघलकर दीदी की आँख भिगोता कैसे…कैसे एक बेटी अधीर हो जाती? जब उसे इंसान ही न समझा गया हो।
मुझे लगा—जो हुआ ठीक ही हुआ। बाबू की कारावास से दीदी को राहत तो मिली। लेकिन नहीं…, मैं गलत थी।बत्तीस गुण मिलकर दीदी, छोटी जेल से तबादला होकर, बड़ी जेल पहुँचाई गई थी….।
कुछ वर्षों के बाद, उसके जीवन में वैदेही भी आ गयी। आत्मीयता तो मिली उसमें, लेकिन दीदी की हालत गरीब कैदी-सी होती चली गयी। मैंने उसकी आँखों में झाँकने की जब भी कोशिश की, मरुस्थलीय बिराने के सिवा, कुछ न दिखा मुझे।
समय की अनुशंसा में प्रेम की मंशा पाले, मेरी प्यारी अम्मा, दीदी की तार-तार ओढ़नी पर हमदर्दी की फुलकारी काढ़ना चाह रही थीं। उसी के बाबत, दीदी को देहरादून से बुला लिया गया था। और चाची के भाई (जो एक डिग्री कालेज में पढ़ा रहे थे) को बुला भेजा था। उनकी मदद से अम्मा, अपनी बड़ी बिटिया मिन्नी का एडमिशन बी.ए. में करवा देना चाह रही थीं।
अम्मा के हरकारे पर मामाजी प्रॉस्पेक्टस के साथ घर आए। दीदी के सर्टिफिकेट आदि चैक कर, फ़ीस के लिए उन्होंने कहा– पाँच हजार रुपयों का खर्च आ सकता है। इंतजाम थोड़ा ज्यादा रखना जिज्जी…। पैसे की बात पर अम्मा चुप साध गयीं। दीदी ने कहा— उसके पास पाँच हजार रुपये हैं। मामाजी समझा-बुझा कर लौट गए। अम्मा को राहत मिली…। मगर बाबू खासे नाराज हो गये। और काफी दिनों तक नाराज बने रहे। उन्हें न अपनी लड़की के जीवन का मोल था, न ही पढ़ाई का। दीदी ने बाबू का हर फ़ैसला खूंटे में बँधी गाय की तरह स्वीकारा था। आगे भी कुछ भी हो सकता था।
उस दिन अम्मा का मन खुशनुमा बना रहा। दीदी भी कुछ खुश-सी दिखीं। उन्होंने वैदेही को बेबात नहीं कूटा-मारा। देर रात तक बातें होती रहीं। माधव कह रहा था– मिन्नी दीदी कुछ ज्यादा ही सीधी हैं। अपना हक कभी नहीं माँगा। कभी कहता–दीदी ने खुद ही नहीं चाहा पढ़ना। कुछ करने वाले को भला कौन रोक सका है? मेरी ओर ताकते हुए कहता–अब प्रतिभा दीदी को ही देखो, कहाँ रोक पाए बाबू…।
मुझे हँसी-सी आई उस पर। कहना चाहा—हर कोई एक जैसा नहीं होता। दीदी सीधी थी। उसका सीधापन, दुश्मन बन गया उसका। जिस उम्र में उसके पाँवों में बेड़ियाँ डाल दी गई थीं। कोई और लड़की रही होती तो घर में बैठकर नाक-कान काट लेती। कहना तो बहुत था…पर सुनेगा कौन…? चुप रह गयी।
फॉर्म भरने की तारीख़ का इंतज़ार हो रहा था। अम्मा ने दीदी के साथ विद्यालय जाने के लिए मुझे नियुक्त किया था। वैदेही को सम्हालने की जिम्मेदारी खुद ले ली थी।
एक दिन दोपहर में बाबू दुकान से जल्दी लौट आये। आकर अम्मा से पाँच हजार रुपये की माँग करने लगे। कहने लगे, उनका कोई ख़ास आदमी बड़ी मुसीबत में फँसा है। उसे पाँच हजार की सख्त जरूरत है। अम्मा ने मना किया। बाबू ने तुरंत याद दिलाया–"तुम भूल रही हो….? मिन्नी के पास रखे हैं…। जरूरत होगी, लौटा देंगे, अभी लाओ..। देर मत करो। आदमी अगर आदमी के काम नहीं आएगा तो…!”
जिसका मुझे अंदेशा था, वही हुआ। पैसे समेटकर बाबू ले गये। मिन्नी दीदी का एडमिशन अगली साल के लिए…फिर अगली… और फिर हर बार अगली साल की गर्मियों के लिए टाला जाता रहा…।
दीदी के जीवन में घटनाएँ नहीं, दुर्घटनाएँ घटती रहीं। समझाइश में उसे, सब कुछ हँसकर सहन करने की नसीहतें मिलती रहीं। दीदी, बेज़ार रोते-रोते मायके आती रही और ज़ार-ज़ार चुप्पी समेटे ससुराल लौटती रही। मैं अपनी और उसकी हताशा समेटे आती-जाती रही। कुछ सालों के बाद उमानिकेतन मैं अकेले जाती रही। दीदी ने बिना किसी घोषणा-डुगडुगी बजाये बाबू का घर त्याग दिया था। जान अम्मा भी रही थीं, दोनों भाई और बाबू भी… पर सब मौन बने रहे।
दिन, हवा की तरह गुजरते रहे। मोहन भैया ने अपने चार अफेयरों के बाद शादी के लिए हांमी भरी, तो बलैयाँ लेते हुए बाबू! बड़ी बहू ब्याह लाए। मोहन भैया ने फ़ोन पर बताया—”माधव किसी लड़की के चक्कर में पड़ चुका है। बाबू कुछ कहते नहीं…। इसलिए मैंने भी कुछ भी कहना छोड़ दिया है।”
अच्छी बात है– मोहन भैया ने भी कभी दीदी के बारे में नहीं सोचा। पितृभक्ति में डूबा इंसान कर भी क्या सकता था। मेरे अपने उसूल थे। कायम रहे। एक विद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के रूप में मेरी नियुक्ति हो चुकी थी। मैंने दीदी को विस्तार से चिट्ठी लिखी थी। लिखा था— “प्यारी दीदी, जीवन के प्रति बस, एक बार और विश्वास जुटा लेना। दुःख भरे दिन बीत चुके हैं।” मेरी चिट्ठी का जवाब नहीं मिला था। उतावली में मैंने मंसूबा बना लिया—इस बार गर्मियों की छुट्टियों में देहरादून जाऊँगी।
मैं अपनी नौकरी दीदी की आँखों से देख रही थी।
एक दिन सुबह आँख खुलते ही उदसी मेरे कलेजे में आ बैठी। कॉलेज पहुँची मगर मन विचलित ही बना रहा। स्टाफरूम में बैठी रही। दो पीरियड पढ़ाए। मन अधीर बना रहा। खाली घंटे में…अम्मा को फ़ोन लगा दिया। पता चला बाबू और मोहन भैया देहरादून गए थे। दीदी की हालत गम्भीर है। गुस्सा बहुत आया–किसी ने मुझे बताने की भी जरूरत नहीं समझी।
अम्मा की हिचकियाँ थम नहीं रही थीं। मैंने उनका फ़ोन काटकर भैया को लगा दिया। पता चला, दीदी देहरादून के ट्रामा सेंटर में मृत्यु से लड़ रही है। मेरे दिमाग ने सोचना बंद कर दिया। हाथ-पाँव जम गए। बस एक ही बात खटक रही थी।
“अब क्या होगा इस नौकरी का? क्या करूँगी इसका…? मेरी कामयाबी पर कौन ख़ुश होगा…?”
मैं बड़बड़ा रही थी। रो रही थी। स्टाफरूम में खलबली मच गयी। आनन-फानन चित्रा मैम ने चार दिन की छुट्टी साइन करवा दी। जयंती ने ऑनलाइन बस का टिकट अरेंज कर दिया। सुकेश वर्माजी बस स्टैंड तक मुझे छोड़ गए। घर में इत्तिलाह कर मैं देहरादून के लिए रवाना हो गयी।
हिचकोले खाती बस। भरी-भरी रुआँसी मैं। दीदी के अतीत को खखोलने लगी। रेसा-रेसा उनकी फटी चदरिया में…कहीं भी… कभी भी… उसके हिस्से ख़ुशी खड़ी नहीं मिली।
रात में अस्पताल पहुँची। अस्पताल का उदास गलियारा। दिसम्बर की ठंड। सनसनाती बर्फीली हवाएँ। शॉल को सिर से लपेट लिया। मैं दीदी के रूम में पहुँचना चाहती थी। रास्ते में खड़ी स्ट्रेचर से भिड़ गई। एक महीन चीख वातावरण में थर्राहट घोल गई। बाबू ने घूमकर देखा। वे प्रतिक्षालय में बैठे थे। पहले मन हुआ़ कि बाबू से लिपट जाऊँ। फिर सोचा…बाबू की वजह से दीदी की ये हालत है। ठिठक गयी।
“कमरा नम्बर 204” बाबू भी मुझे देखकर इतना ही बोले।
मैं आगे बढ़ गई। कमरे में जाकर देखा। दीदी बिस्तर से चिपक चुकी थी। इसीलिए लम्बे समय से उनसे बात नहीं हो सकी थी। बोतल से टप टप टपकता सलाइन वाटर कलाई में घुपी सुई से, अंदर जा रहा था। साँवले चेहरे पर बड़ी-बड़ी भूरी पुतलियों वाली आँखें कोटरो में सिमट चुकी थीं। हाथ पाँव साँवले से काली लकड़ी बन चुके थे। पास में कुर्सी पर तोंद निकाले, उजड़े चमन, वैदेही के पापा बैठे थे। मेरा मन नमस्ते करने का भी नहीं हुआ़। नहीं की…।
मैं वैदेही को खोजने लगी थी। रात गहरा चुकी थी। अस्पातल में मरीज़ों की निराशाओं में घुली दवाईयों की गंध, मन मलिन बना रहा था।
थोड़ी देर में बाबू के साथ डॉक्टर अंदर आया। दीदी की आँखें, हथेली और नब्ज़ देखकर कहने लगा…मरीज़ घोर अवसाद में चल रही थीं। बाद में दिमागी बुखार की चपेट में भी आ गयीं। अब….! लेकिन चमत्कार की उम्मीद हमेशा बनी रहती है। डॉक्टर चला गया। वैदेही के पापा के साथ बाबू भी बाहर निकल गए।
मैंने झुककर मिन्नी दीदी को आवाज़ दी। उसका माथा सहलाया। दीदी नहीं बोली। न आँखें खोली। बस आँखों के किनारों से दो बूँद आँसू ढुलक पड़े। हाथ की उँगलियाँ काँपी। मैंने हाथ उठाकर चूम लिया। बचपन में हम एक-दूसरे हाथ चूम-सूँघकर लड़ा करते थे— दीदी कहती, मेरे हाथ से आम्म की खुशबू आती है। और मैं कहती नहीं, बाबू की तरह से…। दीदी खिलखिला पड़ती, कहती—नहीं बाबू की खुशबू किसी और के नहीं, उसकी देह से आती है। जीवन की असहायता पर मन किलस उठा था।
थोड़ी देर में मोहन भैया वैदेही को साथ लिए अंदर आए। मुझे अचानक देखकर, हालचाल पूछने लगे। मेरा मन बोलने का था नहीं। वे भी चुपचाप बैठ गए। वैदेही के ऊपर समय की कुटिलता साफ़ दिख रही थी। वैदेही मुझसे लिपट गयी। लगा, जैसे दीदी मेरे गले आ लगी हो।
अस्पताल का समय बड़ा जटिल और उबाऊ होता है। आँसू बहकर सूख चुके होते हैं। आशा-निराशा के बीच झूलते हम सब निढाल हो रहे थे।
हम सब मूक दीदी के बेड के चारों ओर बैठ गये। रात डरावनी सीटियाँ बजाती हुई जान पड़ रही थी। भैया खाने का इंतजाम करने चले गये। बाबू बोले। “मिन्नी, तुम्हारी बिटिया को अपने साथ मेरठ ले जा रहा हूँ। वैदेही की चिंता बिल्कुल मत करना। जब ठीक हो जाना, आकर ले जाना।”
कहते हुए, बाबू के अंदर अपनेपन की जरा-सी भी हलचल नहीं हुई। न आँखों में नमी उतरी और न ही आवाज़ कोमल हुई। वे कठोर और निश्चिंत थे। अपने अधिकारों में तने हुए। उन्होंने फ़र्ज़ अदायगी की एक मिशाल पेश की थी…! जो मुझे नागवारा गुजर रही थी।
बाबू के इस रूप से मैं अनभिज्ञ थी। दबी जुबान से नर्सें कह रही थीं—दीदी कुछ घंटों की मेहमान हैं। ये जानते हुए भी आत्मीयता का थोथा आश्वासन देकर, आखिर बाबू क्या साबित करना चाहते थे? सिवाय अपनी आत्मा की अदालत में खुद की मुक्ति के अलावा..? जो भी हो। मैंने रुमाल पकड़े हाथ से अपना मुँह दबा लिया।
दीदी की दशा के ज़िम्मेदार बाबू थे। फिर ये ड्रामा…? मुझे कुछ कहते नहीं बना। उठकर मैं बाहर कैंटीन की ओर चली गयी। सोचा एक चाय पीकर थोड़ी थकान कम हो..। चाय अभी ख़त्म भी नहीं हुई थी, मोहन भैया दौड़ते हुए आए।
“दीदी चली गईं।”
“क्या….! चली गई दीदी..? किससे पूछकर..? किसके बारे में सोचूँगी अब ? कौन इतना आत्मीय बनेगा कि अपनी आत्मा ही दे दे बरतने को। और उफ़ तक न करे ? तीस-पैंतीस वर्षों का साथ दीदी ने यूँ झटक दिया…?”
पहली बार भैया मुझे गले लगाकर हूककर रोए। भैया का हाथ थामे मैं वहाँ पहुँची, जहाँ सब थे, बस दीदी नहीं थी। वीरानियाँ पैरों में लिपट गयीं। दुःख के बड़े से डिब्बे में अकेले लुढ़कती रही। चीखती रही। खाली होती रही।
रात ढलान पर थी। अगला दिन चाक पर चढ़ने वाला था।
मैंने देहरादून से लौटने का निर्णय लिया। और बिना कुछ कहे, बस स्टैंड के लिए निकल पड़ी। बाबू देख रहे थे। बोले नहीं। वैदेही के लिए एक बेचैनी मुझे खाए जा रही थी। संकल्प-विकल्प लिये मैं बस स्टैंड पहुँच गई। दिल्ली वाली बस खड़ी थी। कन्डेक्टर सवारियों को बुला रहा था। पहाड़ों की चोटियों से उतरकर, ठंडी हवा कंपकपाहट घोल रही थी। मैंने टिकट लिया… रात भर से जागी थी। बैठते ही,आँखें बंद कर सीट से टिक गयी।
थोड़ी देर में मुझे बेहोशी-सी आने लगी। दीदी की स्मृतियों में डूबने-उबरने लगी। मेरी धड़कन, कान तक सुनाई दे रही थी। सन्नाटों की परतें भेदती एक डबडबाई…महीन टभकती पुकार अवचेतन में उभरी।….वैदेही! मेरी आँख खटाक से खुल गयी। बिना सोचे-समझे तुरंत मैं बस से उतर पड़ी।
आव देखा न ताव, दीदी के घर के लिए एक ऑटो बुक किया। और लौट पड़ी। मैं चाह रही थी ऑटो उड़कर सीधे वहाँ पहुँचा दे, जहाँ दीदी की ज़िन्दा निशानी ब्याकुल, मेरी राह देख रही होगी।
“बाबू कहते हैं— वैदेही उनके साथ मेरठ जायेगी। पहले मिन्नी अब वैदेही…! नहीं…बिल्कुल नहीं, ऐसा होने नहीं दूँगी..! क्योंकि मैं जानती हूँ—धारणाएँ प्रार्थनाओं से नहीं बदलतीं। जिस उम्र में बाबू ने दीदी के जीवन को रौंदा था…वैदेही उसी उम्र में चल रही है। तौबा तौबा..! वैदेही मेरे साथ जायेगी, किसी और के नहीं। मेरे साथ …मेरे साथ।”
“मैडम, पहुँच गये…। यही पता बताया था न..?”
ऑटो विद्यानिवास के सामने खड़ा था। मैंने उतरकर चालक को पैसे दिए। अंदर जाकर देखा। मुझे फिर से देखकर बाबू और भैया विस्मय से भर गये। वैदेही के पापा ने दारू चढ़ा रखी थी। बे-परवाह बाहर-भीतर डोल रहे थे। घर करुण क्रंदन से भरा था। दीदी का अंतिम श्रृंगार किया जा रहा था। वैदेही सहमी-सी एक कोने में खड़ी, सिसक रही थी। पहले सोचा–सीधा लड़की का हाथ थामूँ और घर से निकल पडूँ लेकिन वैदेही की ओर से सोचा तो लगा दीदी की अर्थी उठने के बाद ही निकलूँ।
दीदी की सवारी अनंत यात्रा पर चल पड़ी। मैंने अपना अंतिम प्रणाम उसे निवेदित किया। और वैदेही का हाथ थामकर, बाहर निकल पड़ी। भैया मेरे पीछे दौड़े।
“मत रोको मोहन, प्रतिभा बहुत जिद्दी है। वह मानेगी नहीं।” बाबू ने भैया कोअपने पास लौटा लिया होगा।
बस स्टैंड पहुँचकर मैंने दो टिकिट खरीदे। हम दिल्ली के लिए बस में सवार हो गये…। ये सोचकर…वैदेही मिन्नी दीदी का पर्याय…और मेरा गुरूर बनकर रहेगी। बस सड़क पर दौड़ने लगी थी। मैं एक खौल दबाए बैठी थी। वैदेही मेरे कंधे पर सिर टिकाए रह-रहकर फफक रही थी। मेरे हाथ उसे थपक रहे थे, मन चीत्कार रहा था। मैंने वैदेही को रोने से नहीं रोका।
किसी अपने को खोकर मन देर तक उसे खोजता है….! मिन्नी दीदी का अस्तित्व हम दोनों में विलीन होता जा रहा था।
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(कहानी - “कितनी कैदें” समकालीन भारतीय साहित्य के मार्च-अप्रैल अंक में प्रकाशित है.
बहुत ही मार्मिक कहानी, पढ़कर मन बहुत भारी हो गया। कुछ लोगों की किस्मत ईश्वर गहरी स्याही से लिखता है। जीवन का हर पल पीड़ा से भरपूर। आपकी कलम पात्रों की अन्तर्वेदना को दिखाने में पूरी तरह से सक्षम रही है। आपको बधाई एक सशक्त कहानी हेतु।
ReplyDeleteअत्यंत मार्मिक कहानी
ReplyDeleteक्या कहूं इस कहानी की प्रशंसा में ना जाने!
ReplyDeleteकल्पना जी ने एक एक शब्द चुनकर कहानी बुनी है। मन अंत तक कहता रहा काश मिन्नी दीदी बच जाए। उसका जीवन संवर जाए।
कहानी मार्मिकता की हदें लांघती लगती है । कहीं किसी एक पल भी, पाठक का ध्यान भटकने का दुस्साहस नहीं करता।।
क्या दोष था उस निरीह लड़की का ?बस यही कि वह एक आज्ञाकारी बेटी थी।
उफ आंख भर आई ।
इस बेहतरीन कहानी के लिए मैं कल्पना जी को हार्दिक बधाई प्रेषित करती हूं।
ऐसी और भी कहानियां आप लिखती रहें ये शुभकामनाएं भी देती हूं।