Posts

Showing posts from January 11, 2023

मान्यताओं की आँच

Image
चित्र : अनुप्रिया  " आओ संतो! आज कहाँ से सूरज निकल पड़ा ?" धनक सिलाई मशीन रखे कपड़े सिल रही थी , बोली। " अरे जिज्जी! मरने की भी फुरसत ना मेरे कों। ” संतो ने बिटिया का कुरता धनक की ओर बढ़ाते हुए कहा। " ऐसी कहाँ से नोटों की पौ फट पड़ी है तेरे घर जो व्यस्त हो गयी ?" धनक ने सुई में धागा डालते हुए कहा। “ जिज्जी , मेरी सास नाती की मेंड उठावे गंगा जी नाहवे जा री है। ” संतो ने साफई दी।   " सास जा रही है ?” “ हाँ जिज्जी! ”  “ तो तूने क्यों उठना-बैठना तज दिया ?” धनक ने खरखराते हुए मशीन चला दी। " जिज्जी सो तो तुम सही कह रही हों लेकिन मेरी सास के प्राण मायके में बसते हैं। बस दाल , अचार , बड़ी , पापड़ बना-बनाकर मर री हूँ मैं। " संतो ने साड़ी का पल्ला सिर पर सहेजते हुए कहा।   " इसका मतलब तेरी सास मायका घूमने जा रही है। " मुस्कुराते हुए धनक ने तंज कसा। " हाँ जिज्जी , ऐसा ही समझ…। " " तो सास से भी थोड़ा बहुत काम ले लिया कर संतो। " " ना जिज्जी उनके छोरा से तो आप मिली ही हों ?" “ हाँ तो। " "

चिड़िया का कहना सुनो

Image
" सदियों से चली आ रही परंपराओं में से बेजान परंपरा की  एक सूखी पत्ती  निकालकर फेंक सको, और अपनी पसंद की हरी पत्तीनुमा जाग्रत परंपरा जोड़ सको तो आओ , बुनें घोंसला अपने लिए। " चिड़िया ने कहा। " किसी को भी लग सकता है कि मनुष्य घोंसले में रहता है। लेकिन नहीं , वह अपने हाथ से बनाए घोंसले में नहीं , अपितु अपने मन के द्वारा विचारों से बने घोंसने में नितांत अकेला रहता है। उस घोंसले को बनाते हुए वह कितना विचलित या तटस्थ रहा , उसके बोलने - बताने और आचार-विचार प्रकट करने से वह दिखता है। ईंटों के मकान से निकलकर आदमी कहीं छिप भी सकता है लेकिन विचारों में प्रकट होकर छिपना मुश्किल है। " चिड़िया आसमान की ओर देखकर बुदबुदाई। " आओ , पुरानी घिस चुकी परंपराओं को पुनर्नवा कर नई परंपराएं गढ़ें। " चिड़िया का कहना, डाल ने सुना , सुना पेड़ , फूल , फल , आकाश , सूरज और मौसम ने। चिड़िया की करनी और कथनी में समानता भी थी लेकिन मनुष्य विकास वाला खरगोश पकड़ने की जल्दी में दिखा। ***