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गाँव की माटी चन्दन-चन्दन

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सुनो दद्दा! मैंने कहीं सुना है कि तुम अक्सर अपने गाँव आते-जाते रहते हो! ये बहुत अच्छा करते हो भैया। वैसे भी इस शहरी कंक्रीट में रहते-रहते बहुत पाँव बहुत तपते हैं। सच कहें तो भैया , अब तो बस गाँव यादों में ही बचा है लेकिन जब हमने गाँव छोड़ा था उस समय गाँव की छवि जैसी थी बस वैसी की वैसी मेरी आँखों में आज भी बसी है। उसी को याद करते हुए अक्सर मैं उसकी बात करने का मौका तलाशती रहती हूँ। जब मैं अपने गाँव की बात करती हूँ तो मेरे बच्चे मुँह दबाकर हँसते हैं। बच्चों की जात परिंदों की ,  सोचकर उन्हें माफ़ कर देती हूँ। डिब्बों वाले घरों में रहने वाले शहरी बच्चे क्या जानें ताल मखानों की कहानियाँ और नीम की निबोलियाँ। उनसे पुरवा हवा के झौंकों के आनंद को पूछने पर वे अपने ए.सी. का राग अलापते हैं। महानगरीय बचपन बिलकुल महसूस नहीं कर सकता कि जब हम छोटे थे तब हरियाला सावन कैसे झूमकर गाँव में आता था। बड़े ताल पर सहेलियों के साथ भुजरियाँ सिराने का सुख आज के मोबाइल में भुजरियों की इमोजी भेजने वाले बच्चे क्या जाने कि लोग कितने अपनेपन से एक-दूसरे के गले मिलकर दुआएँ लेते और देते थे। अरे भैया! अपनी राम कहानी में हम त