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शिक्षा कहती है .....

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  जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गयी स्त्री के कार्य क्षेत्र से अवगत मेरी माँ ने कराया। माँ का गहराई से मानना था कि स्त्री का दायरा समस्त भूखंड है और हर काम में उसकी भागीदारी निहित है। ऐसा कोई काम नहीं, जिसके लिए उन्होंने न अपने आप को सीखने से रोका और न ही मुझे ये बताया कि ये तुम्हारा काम नहीं और ये तुम्हारा ही काम है। वे परिधि का मान अपने प्राणों जितना रखते हुए सभी से यानी  कि चाहे स्त्री हो या पुरुष सभी से खुले मन से बात करती थीं। समानता से बात करते हुए खुद को संरक्षित किये रहना उनका सहज स्वभाव था, जो मेरे भीतर भी शायद बह आया है। वे हमेशा कहती थीं कि,"स्त्री को अपने शरीर के बाहर रहकर खुद को मनुष्य बनाए रखना होगा ।" इस समझ के प्रति श्रद्धा भी  उन्हीं की देन है। स्त्री आज़ादी में शिक्षा को वे बहुत बड़ा टूल मानती थीं।   चित्र को देखते हुए- सही मायने में स्त्री की आज़ादी यहीं से शुरू होती है। जिस दिन स्त्री खड़िया पट्टी उठा लेती है , उस दिन से उसके मन के बाहर-भीतर उजाला होना शुरू हो जाता है। उसके आसपास एक ऐसा दर्पण अवतरित होता है जिसमें वह सभ्यता की परछाइयों को देखना शुरू कर देती ह