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Showing posts from October 17, 2021

"कलर ऑफ़ लव"

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    " आओ कृति का आवरण बाँचें!" वंदना गुप्ता जी का उपन्यास छप कर आ चुका है। उपन्यास में बंद वंदना के वंदनीय विचार विमर्श के साथ-साथ "ज्ञानपीठ प्रकाशन हाउस" की गुनगुनाहट समेटे हुए भावपूर्ण शब्द हमसे आपसे मुखातिब होने को आतुर हैं। तो चलिए उनको पढ़ा जाए..... आवरण के कत्थई रंग धरातल पर पीला-पीला दूज का चांद सोहना दिख रहा है। वहींं पास में कुछ वर्णमाला के अक्षर भी फैले हुए दिख रहे हैं। वैसे भी हम जो कार्य करते हैं उसकी किरचें हमारे इर्दगिर्द चिपकी रह ही जाती हैं। हम चतुर बनकर कितना भी अपने किए के चिह्न हटाने की कोशिश करें लेकिन बतौर ए सबूत कुछ न कुछ हमारे हाथ से छूट ही जाता है। छिप-छिप कर पढ़ती लिखती स्त्री के हाथ से ज्ञान के कुछ मोती फिसल ही जाते हैं। इस आवरण पर वही दिख रहा है। बिटिया को वर्णमाला सिखाते हुए मां के हाथ से कुछ वर्ण यहां छूट गए हैं। शब्द सदैव सुंदर हैं । खैर , गुजरी हुई बीसवीं सदी की जनानी सिसकियां जमींदोज होने के बावजूद गाहे बगाहे हमारे कानों में एक टीस उत्पन्न कर ही जाती हैं। गए वक्त की स्त्रियों ने अपने प्रेमी पति को ," आओ तुझे चांद पर ले जा

"एक सपना लापता"

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" आओ आवरण बांचे" में डॉ.भावना शेखर जी की कृति..... "एक सपना लापता" सपनों का मरना अर्थात जीवन से त्वरा का सिमट कर मृतप्राय हो जाना है। जीवन से पुलक का नष्ट हो जाना है। कोमल कांत वस्तुओं और मनोभावों का ठोस हो जाना होता है। खैर , यहां देखने की बात ये है कि भावना जी सपना मरने या टूटने की बात नहीं कह रही हैं। वे कह रही हैं कि सिवा एक सपने के बाकी सपने उनके पास खुशी के रूप में सुरक्षित हैं और उनके पास जो सपने हैं वे उन्हें सब ओर से हराभरा और सुंदर भी रख रहे हैं। लेकिन कोई एक सपना था जो न चाहते हुए भी लापता हो गया है। क्या लापता होने वाला सपना मूडी , जिद्दी या सनकी था ? या बेहद भावुक और नरम दिल था जो दुनियावी हेर फेर से परे होकर डोल रहा था इसलिए गुमराह होकर रास्ता भटक गया ? कुछ नहीं पता। ये तो कृति को पढ़कर ही जाना जा सकेगा। लापता हुआ सपना कितना रोचक और महत्वपूर्ण था उसकी बिना पर अब वह ढूंढा जायेगा। फिलहाल मुझे शीर्षक बहुत अच्छा लगा ...... किताब मिलने पर बताऊंगी कि सपना स्त्री , पुरुष , बच्चा या किसी विद्यार्थी का था जो लापता हो गया है। वैसे दुआ तो यही करती हूं

अन्तस_की_खुरचन

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" आओ आवरण बांचें" में आज यतीश कुमार जी की नव काव्य कृति अन्तस _ की _ खुरचन खुरचन आह! हलवाई खुरचन के पैसे अलग रख कर अपनी गुड़िया के लिए जादुई पेंसिल ले जाता है। सब्ज़ी वाला खुरचन की सब्ज़ी के पैसों से पान खरीद कर खाता है। मां भी खुरचन खाकर कटोरी भर रबड़ी का स्वाद ले लेती है। पैसे के लेनदेन में भी खुरचन का बड़ा महत्त्व है। खुरचन शब्द का आशय है सम्पूर्ण के बाद मिलने वाला अतिरिक्त तात्विक सुख। खुरचन शब्द ने मुझे खासा आकर्षित किया। बचपन में कटोरी भर रबड़ी खाने से जितना संतोष नहीं मिलता था उससे कहीं ज्यादा आन्नदानुभूति कढ़ाई के किनारों पर लगी दूध की कड़ी कड़ी परत को जब मां खुरचने बैठती थी तब उस खुरचन पर दादी की भी निगाह होती थी और भाई बहनों की भी। जिसे प्राप्त हो पाती थी वही तृप्त होता था बाकी ललचाता कुढ़ता रह जाता था। खैर , यतीश जी यहां कोई खीर और रबड़ी की खुरचन की बात नहीं कह रहे हैं। वे तो अन्तस चेतना में उत्पन्न हुए काव्यरस की बात कर रहे हैं। जिसमें कविताएं पकाई जाती हैं। समझने की बात तो ये है कि हमारे आपके सामने जो काव्य कृति आने वाली हैं उसमें काव्यात्मक उबलन या हल्कापन नही

सुबह ऐसे आती है

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सुबह का आना एक शाश्वत प्रक्रिया है। उसके लिए न कोई दरवाज़ा खोलता है और न ही कोई सूरज को उठाकर मुंडेर पर रखता है। चाहे कितना भी कुहासा क्यों न क्षितिज के छज्जों से लटका हो परंतु भोर अपनी कोहनी से उसे ठेल कर धरती पर झम्म से कूद ही पड़ती है। हमारे जीवन में भी कुछ ऐसे ही दृश्यों का प्रकटन होता है। कुछ स्वयं से कुछ किसी की प्रेरणा के द्वारा। कहने का तात्पर्य ये है कि हमारे मस्तिष्क के पास भी विचारों की सुबहें और शामें होती हैं। कुछ अन्यथा और कुछ बेहद ज़रूरी। कुछ सार्थक कुछ निरर्थक। हमारे रोजमर्रा के जीवन में कितने भी घनघोर बुरे विकार विचार बनकर मन में एक सघन संध्या का निर्माण क्यों न करें लेकिन सकारात्मक विचारों वाली सुबह हमें उबार ही लेती है। दमघोंटू भावनाओं के आंगन में मुस्कुराहट वाली सुबह कहीं न कहीं से खिल ही पड़ती है। अंजू शर्मा जी ने अपनी कहानियों में कुछ इन्हीं भावों को स्थान दिया है। वे कह रही हैं कि कितना भी कोई क्यों न ये कहता रहे कि समय बदल गया है। आज के दिन लुहार की भट्टी जैसे होते हैं। न दिन का पता चलता है न रात का। सब का सब बुरे वक्त के कुचक्र में आ कर फंस गया है। गांधीम

शब्दों का देश

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  आवरण कथा  " आओ आवरण बाँचें" में # राकेश _ मिश्र जी की नव लोकार्पित कविता पुस्तक # शब्दों _ का _ देश के आवरण और शीर्षक चयन पर कुछ बातें की जाएं। नदियों का देश , पहाड़ों का देश , वृक्षों का देश , पठारों का देश , बर्फ़ का देश आदि आदि वे स्थान प्राकृतिक संपदाओं में निर्दिष्ट किए हुए स्थान होते हैं। उक्त किसी भी देश के आगे लगे हुए विशेषण शब्द को पढ़कर हम आराम से जान लेते हैं कि उस देश में नदी , पहाड़ , वृक्ष , पठार , बर्फ़ की भरमार होगी। कोई भी कोना उक्त उपादानों से रिक्त न होगा। अब यदि बात करें "शब्दों का देश" तो त्वरित उपर्युक्त की तरह ही ख्याल आता है कि जैसे प्राकृतिक उपादानों के देश को धरती माता अपने अंचल में समेटे हुए हैं वैसे ही शब्दों के देश को मानव मन सम्हाले रहता है। शब्दों का देश बाहर नहीं मनुष्य के भीतर सजता है। शब्द मानव मन की डालियों पर लगते हैं। वहीं लगे-लगे वे पकते भी और सड़ते भी हैं। शब्दों के प्रकार से शायद ही कोई अनभिज्ञ होगा। जिसके हिस्से में जैसे शब्द फल आते होंगे वही उसके स्वाद को ठीक से बता पाता होगा। बस कच्चे और सड़े शब्द फल किसी के भी हिस्