"कलर ऑफ़ लव"

  


"आओ कृति का आवरण बाँचें!"

वंदना गुप्ता जी का उपन्यास छप कर आ चुका है। उपन्यास में बंद वंदना के वंदनीय विचार विमर्श के साथ-साथ "ज्ञानपीठ प्रकाशन हाउस" की गुनगुनाहट समेटे हुए भावपूर्ण शब्द हमसे आपसे मुखातिब होने को आतुर हैं। तो चलिए उनको पढ़ा जाए.....

आवरण के कत्थई रंग धरातल पर पीला-पीला दूज का चांद सोहना दिख रहा है। वहींं पास में कुछ वर्णमाला के अक्षर भी फैले हुए दिख रहे हैं। वैसे भी हम जो कार्य करते हैं उसकी किरचें हमारे इर्दगिर्द चिपकी रह ही जाती हैं। हम चतुर बनकर कितना भी अपने किए के चिह्न हटाने की कोशिश करें लेकिन बतौर ए सबूत कुछ न कुछ हमारे हाथ से छूट ही जाता है। छिप-छिप कर पढ़ती लिखती स्त्री के हाथ से ज्ञान के कुछ मोती फिसल ही जाते हैं। इस आवरण पर वही दिख रहा है। बिटिया को वर्णमाला सिखाते हुए मां के हाथ से कुछ वर्ण यहां छूट गए हैं। शब्द सदैव सुंदर हैं ।

खैर, गुजरी हुई बीसवीं सदी की जनानी सिसकियां जमींदोज होने के बावजूद गाहे बगाहे हमारे कानों में एक टीस उत्पन्न कर ही जाती हैं। गए वक्त की स्त्रियों ने अपने प्रेमी पति को,"आओ तुझे चांद पर ले जायें" गाते तो सुना लेकिन दोनों ही अपने कथन को यथार्थ का जामा नहीं पहना सके। स्त्री बहुत देर देर तक सजी धजी इंतज़ार में बैठी रही। क्योंकि उसके साथ जब-जब चांद की बातें हुईं तब-तब स्त्री को उसे छूने की गहरी लालसा जागती रही लेकिन उसे मिला टूटा तारा भी नहीं। इस प्रकार गहरी अर्थहीनता ने उसके अंदर अनकहा उद्घोष रचा।

सदी बदली, समय बदला उसके साथ स्त्री के विचारों ने भी बदलना शुरू किया। रुचिकर बदलाव की हिलोरें स्त्री की चेतना में त्वरा उत्पन्न करने लगीं। चांद की चाहत और प्रबल होती गई। होती भी क्यों नहीं? चांद पर जाना मतलब अभीष्ठ सुख को प्राप्त होना। हल्का होकर ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठ जाना। मतलब स्थूलता को त्याग कर सूक्ष्म सुख को अंगीकार कर लेना। बौद्धिकता को प्राप्त हो जाना।

गहरे मंथन के बाद स्त्री से प्रगटी मां ने विचार किया कि भले उसको कुछ अद्भुत करने का अवसर नहीं मिला तो क्या वह अपनी पुत्री को चांद से वंचित नहीं रहने देगी। और एक रात कुछ अनकहा घटा। स्त्री ने बेटी के पिता को सोता छोड़, पुत्री को साइकिल पर बैठा सड़क पर सर्राटे में दौड़ने लगी। पहले वह गुब्बारे वाली दुकान पर गई उसने गुब्बारे खरीदे क्योंकि वह गुब्बारों के उड़ने की ताकत "हीलियम" गैस के बारे में पढ़ चुकी थी। उसने साइकिल के हैंडिल में उनको बांध लिया और सीधे यमुना एक्सप्रेस वे से होते हुए क्षितिज की ओर पैडल मार दिया।

बेटी डर गई। उसने कहा,"मां वापस लौट चलो। पापा जाग जाएंगे तो क्या कहेंगे मां?"

"........."

मां मौन थी। वह अपनी दृष्टि से चांद को ओझल नहीं होने देना चाहती थी। नतीज़ा पवन भी उसके साथ हिलमिल बहने लगी। रात की शीतलता उसके कलेजे में ठंडक भरने लगी। चारों दिशाओं में प्रेमिल कम्पन होने लगा। जिसकी ऊर्जा उन दोनों को ऊर्जित करने लगी। लेकिन सायना समुद्र पेट में दबाए बैठा स्त्री के दुक्खों का ज्वारभाटा उन दोनों की ओर अवरोध रूप में उछालने लगा। मां बनी स्त्री ने उसे आँखें दिखाईं और सिरे से नकार दिया। बेटी से भी कहा कि उसकी ओर देखे ही नहीं। उसने चांद को छूने का अमिट निर्णय ले लिया था।

उसने अपने जीवन की सारी अड़चनों की पोटली बनाकर सिंधु में उछाल दी थी। जैसे दादियां अपने प्यारे पोतों पर दस का सिक्का वार कर चलती ट्रेन से यमुना में फेंक देती थी। कुल मिलाकर स्त्री ने अपनी बेटी को चांद पर पहुंचाना ही था सो कुछ रातों का कठिन अभ्यास और मौन सफ़र करते हुए एक दिन दोनों चांद पर पहुंच जाती हैं। स्त्री अपनी होने की भव्यता में निहाल होकर कहती है।

"कलर ऑफ़ लव"

"पापा आओ तुम्हें चांद पर ले आयें।"

भावुक बेटी अपने पिता को पुकारती है। अब पिता यदि स्वीकारेगा वजूद बेटी का तो उसका भी स्वागत होगा चांद पर। अस्तु! वन्दना जी और अनुप्रिया को ढेर सारी शुभकामनाएं!

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