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माँ करुणा की गीता है तो पिता सबलीकरण की भागवत

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किस्सा पत्रिका का ‘सिर्फ पिता’ अंक जब मेरे पास आया तो अनामिका ‘शिव’ की इस पहल पर मन मुग्ध हो गया। हालाँकि ये हो सकता है, और बराबर हो सकता है कि अनामिका जी का मन पिता के प्रति अपार श्रद्धा से भरा हो। आपके अनुभव में पिता देवतुल्य हों और ये भी हो सकता है कि उन जैसा अनुभव आम तौर पर बेटे-बेटियों के पास न भी हो। फिर भी उन्होंने जो पिता तत्व की विराटता के प्रति अपनी श्रद्धांजली अर्पित की है, उसे देखकर उनकी उदारता पर स्त्रियोचित गर्व का सुखद एहसास हो रहा है। इस अंक को पढ़ने से पहले इसके आवरण पर मेरी दृष्टि गयी। जिस तरह से सम्पादक मंडल ने ‘सिर्फ़ पिता’ अंक के कलेवर को बाँधने के लिए जिस प्रकार के आवरण चित्र की कल्पना की, वह सराहनीय है। कम शब्दों में यदि कहना चाहूँ तो प्राकृतिक पवित्र पाँच तत्वों का पुंज ही किसी बच्चे को पिता के रूप में प्राप्त होता है। पिता के व्यक्तित्व को और कोई चित्र शायद ही इतना उद्घोषित कर पाता। अब बात करूँ किस्सा की संपादक अनामिका को पत्रिका का एक अंक 'पिता विशेषांक' के रूप में ही क्यों निकालना पड़ा? उन्हें तमाम जद्दोजहद और नकार के साथ पिता को क्यों लिखवाना पड़ा? क्या