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अभिभूत है जीवन मेरा

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  पिता पेड़ की वह फुनगी हैं  जिसको हमने छू ना पाया ।।   झुक आते हैं सूरज-चन्दा नम नदिया के शीतल जल पर लेकिन पिता नहीं झुक पाते ममता के गीले इस्थल पर   आकाशी गंगा के वासी उनका पता नहीं मिल पाया ।।   चट्टानें भी ढह जातीं जब उग आती है उन  पर धनिया उनका मन हीरे का टुकड़ा बुद्धि बनी है चालू बनिया    रही पूजती ख़ामोशी को  फिर भी दर्शन न हो पाया ।।   मेरे भीतर हैं वे हर पल फिर भी उनको ढूंढ न पाई कौन घड़ी में विधना तूने  ऐसी अनगढ़  भीत उठाई    अभिभूत है जीवन मेरा उसने पाया उनका साया ।। ***