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न समय ठहरता है, न हम!

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समय की परिधि में हँसी , ख़ुशी , डर और निरंकुशता के सारे उवाच वास करते हैं। इस के बावजूद हमारे पास यदि तेजस वक्त हो , तो गाढ़े से गाढ़े अँधेरे भी पल में नष्ट हो सकते हैं। दिनों , महीनों और घंटों से बना वक्तपुंज ' एकवर्ष ' किसी रसवंती जीवनदायनी नदी से कम नहीं होता है। इसके अपने दो तट होते हैं। जिन्हें हम दिन-रात कहते हैं। जैसे इतिहास हमें बताता है कि नदी के किनारों पर ही हमारी मानवीय सभ्यताओं ने जन्म लिया ; उसी प्रकार हमारे जीवन के सारे सुख-दुःख रैन-दिवस रूपी तटों पर ही लगातार उगते और विसर्जित होते रहते हैं। इन्हीं तटों के माध्यम से वर्ष के उस पार पहुँचे बिना जीवन का अर्थपूर्ण निस्तार समझना हमारे लिए असंभव है। हम मनुष्य आगत वर्ष के प्रारम्भ में सिर्फ़ जीवन की सुखद संकल्पना मात्र कर सकते हैं। उसको सच में आनन्दमय बनाने में समय के घर्षण से उत्पन्न ऊर्जा लिए जब मौसम और ऋतुओं की पक्षधरता लयबद्ध हो क्रमिक हमारे आँगन में विकसित होती है , तब हम उसे मुकम्मल रूपाकार होते देख पाते हैं। और जब तक सुख-दुःख का अनुभव हमें हो , तब तक उसके अंतस   में क्षरण का बीज अंकुरित हो उठता है। हम न चाहते हुए भी