न समय ठहरता है, न हम!

समय की परिधि में हँसी, ख़ुशी, डर और निरंकुशता के सारे उवाच वास करते हैं। इस के बावजूद हमारे पास यदि तेजस वक्त हो, तो गाढ़े से गाढ़े अँधेरे भी पल में नष्ट हो सकते हैं। दिनों,महीनों और घंटों से बना वक्तपुंज 'एकवर्ष' किसी रसवंती जीवनदायनी नदी से कम नहीं होता है। इसके अपने दो तट होते हैं। जिन्हें हम दिन-रात कहते हैं। जैसे इतिहास हमें बताता है कि नदी के किनारों पर ही हमारी मानवीय सभ्यताओं ने जन्म लिया; उसी प्रकार हमारे जीवन के सारे सुख-दुःख रैन-दिवस रूपी तटों पर ही लगातार उगते और विसर्जित होते रहते हैं। इन्हीं तटों के माध्यम से वर्ष के उस पार पहुँचे बिना जीवन का अर्थपूर्ण निस्तार समझना हमारे लिए असंभव है। हम मनुष्य आगत वर्ष के प्रारम्भ में सिर्फ़ जीवन की सुखद संकल्पना मात्र कर सकते हैं। उसको सच में आनन्दमय बनाने में समय के घर्षण से उत्पन्न ऊर्जा लिए जब मौसम और ऋतुओं की पक्षधरता लयबद्ध हो क्रमिक हमारे आँगन में विकसित होती है,तब हम उसे मुकम्मल रूपाकार होते देख पाते हैं। और जब तक सुख-दुःख का अनुभव हमें हो, तब तक उसके अंतस  में क्षरण का बीज अंकुरित हो उठता है। हम न चाहते हुए भी सनातन सत्यसंसार क्षण भंगुर हैको सही मानने पर विवश होते हुए फिर एक नये वर्ष की आवभगत में आगे बढ़ जाते हैं।

इन्हीं संकल्पों और विकल्पों के बीच गया वर्ष 2020 हमारी झोली में आया था। हमेशा की तरह इस साल से भी हमें अनेक अपेक्षाएँ थीं। लंबी-चौड़ी उम्मीदों की फ़ेहरिस्तें थीं लेकिन अनदेखा-अंजाना-सा साल 'दो हज़ार बीस' अपनी मुट्ठियों में आपदा के खनकते सिक्के लिए हमारे आँगनों में अवतरित हुआ। हमारे सामने डर के अंबार लग गये। मानवीय जीवनचर्या चरमराकर ध्वस्त होने लगी। जीवन-मृत्यु के संस्कारवान सारे नियम और मनुष्यों द्वारा बनाई गयी सारी रीतियाँ-नीतियाँ समय की धार में बहने पर आमादा हो गयीं। वैज्ञानिक युग के ताक़तवर प्राणी को एक बार फिर ईश्वरीय शक्ति ने चकमा दे दिया। जो लोग उन्नति की होड़ में अपनों को पीछे छोड़कर अकेले-अकेले आगे भागे जा रहे थे,उनकी दैनंदिन पर अचानक लगाम लग गयी। सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं में तालाबंदी जैसी मुश्किलें अंगदी कदम की भांति आ धमकी। रोजनदारी पर अपना जीवन यापन करने वाले मानवों के रूप में मानवता अकुलाकर चकनाचूर हो उठी। हम चाह कर भी किसी की मदद न कर सके। हमारी कई पीढ़ियों ने मृत्यु का भयानक तांडव जो इतिहास में दर्ज हुआ था, देखा-सुना था; वो प्रत्यक्ष हो गया। मृत शरीरों के ढेर पर ढेर लग गये। जिसे देख-देखकर जिन्दगी के पसीने छूट गये। हमारी आशा ने सिरे से हाथ खड़े कर दिए। और हम डरावनी निराशा भरी दहशत में जीने के लिए मजबूर हो गये।

कहने को हमारे पास धन-दौलत, बिजली,मोबाइल और उसके लिए डेटा था,हम ग्लोबल गाँव के वासी थे फिर भी भयानकता के चंगुल में बुरी तरह से फँस चुके थे। सभ्यता-विकास को हमने टूटकर बिखते हुए देखा। नैतिक,धार्मिक,राजनैतिक,समाजिक,आर्थिक एवं सांस्कृतिक मोर्चों पर छोटे से जीवाणु का हिंसक हमला हुआ,तोटिकाऊ विकासके नाम पर जो काम किये जा रहे थे जिनके कारण मनुष्य अपनी मनुष्यता की गुहा छोड़ अनाप-सनाप पर्यावरण से खिलवाड़ करता जा रहा था, वे विनाश के मुहाने पर खड़े थे। बिना प्रकृति के सहसम्बन्ध के भला हम संरक्षित कैसे रह सकते थे। राजनीति के अर्थशास्त्र ने हमारे जीवन के शास्त्र का विध्वंस कर दिया और हम हाथ पर हाथ धरे सदमे से उजड़े घरों को देखते रह गये । 

जिन लोगों ने अपनों को हँसते-खेलते अचानक खोया उनके लिए ये साल एक काला अध्याय बन गया। उनके घावों पर हमदर्दी का मरहम आने वाले कई साल जब लगाते रहेंगे तब भी शायद उनके गहरे घाव भरने में समय लग जाएगा। इस बात को जब-जब सोचती हूँ तो तलवों में झुनझुनी-सी उठने लगती है। मन व्याकुलता की सीमा तक चला जाता है लेकिन हर चीज़ के दो पहलू होते हैं, तो गये वर्ष के पास भी उसका दूसरा पहलू था। उसके इशारे जो लोग कैद भर हुए थे, उनके लिए वर्ष 2020 ने, लिया कम,दिया ज़्यादा है क्योंकि इस रोगिल समय ने जिन लोगों को घर से बाहर निकलने पर पाबन्दी लगाई तो जिंदगी की पेचीदगी में छूटे शौकों को उन्हें पूरा करने का अवसर मिल गया। और इसी बिना पर जो व्यक्ति पहियों से कभी नहीं उतरता था, उसे एक लंबा स्थायी विराम मिला। बच्चों ने अपने पिता के उपहारों के साथ-साथ पिता के समूचे व्यक्तित्व को जाना-पहचाना एवं महसूस किया। वहीं पिता ने भी चौबीसों घंटे घर में रहते हुए शिशु-पालन में लीन रहने वाली उस माँ को देखा जो शिशु की देखभाल में कठिन से कठिन गतिविधियों को निभाते हुए भी उसकी पत्नी का रोल ख़ुशी-ख़ुशी अदा करती थी। संवेदनशील और पितृसत्ता से मुक्त हृदय वाले पिताओं ने आगे बढ़कर अपनी पत्नी के साथ गृह कार्यों में पूरे मन से भागीदारी निभायी। वहीं बूढ़े माता-पिता को उनके बच्चे हँसते-बोलते,खाते-पीते और काम करते अपने ही सामने दिखे। वहीं ये भी देखने में आया कि जो पुरुष पितृसत्ता से भरे हुए थे उन्होंने इस कोरोना काल में घर में तांडव भी खूब मचाया। जिसके फलस्वरूप कई महिलायें तलाक की अर्जी लिए कोर्ट तक पहुँच गयीं। वहीं शाहीन बाग़ में अविचल धरने पर बैठीं महिलाओं को भी पेंडमिक वर्ष ने बुरी तरह से हिलाकर रख दिया, तो वहीँ अपने समाज में कुविचारी तबके ने अपने सगे रिश्तों की बच्चियों-किशोरियों को अनचाही शारीरिक छेड़-छाड़ कर उनको मनोरोगी बना दिया। जिसकी बात कहते हुए सर झुकता है लेकिन कोई पुख्ता नतीजा नहीं दिखता। समय अच्छा आ जाएगा लेकिन जिनके साथ ये घटना घट गयी होगी वो बच्ची कब तक स्वयं को संतुलित कर सकेगी। कहना हमेशा मुश्किल रहा है। खैर!

जहाँ ये सब हो रहा था वहीं कुछ अच्छा भी घट रहा था। घर-खर्च बेहतर ढंग से चलाने के लिए नौकरियाँ करतीं महिलाएँ अब घर बैठकर नौकरी की ज़िम्मेदारी पूरी करने में लगी थीं। हाँ, तकनीकी तौर पर अक्षम महिलाओं को काफ़ी मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा लेकिन महिला जगत में प्रसिद्ध कहावतजब ओखली में सर रख ही दिया है, तो चोटों से क्या डरनावाली नीति ने उन्हें ख़ासा हौंसला दिया। शिक्षा के क्षेत्र में इस साल को तकनीकी समृद्धता के तौर पर गिना जाएगा। घर में रहते हुए नौकरी के साथ-साथ कई माँओं ने बच्चों को जन्म दिया और अपनी कच्ची ममता को लोरी गा-गाकर रुचि से पकाया भी। उन माँओं के चेहरों पर गया साल ढेरों मुस्कुराहटें छोड़ गया जो अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए कभी आया के हाथों का आसरा ताकती थीं तो कभी बेबी-क्रेच में छोड़कर उनके बेहतर कल के लिए काम पर जाती थीं। उन्होंने अपनी भावुकता और संवेदना मिलाकर बच्चे को मालिश कर-करके उसकी किलकारियों में जीवन के अबोध रूप को देखा और सराहा भी।

जो बचपन भोर होते ही आँखें मलते हुए बसों में सवार हो शहर की सडकों पर दौड़ने लगता था; उसको भरपूर नींद लेने का अवसर मिला। दादी-नानी के मन की साधें पूरी हुईं। उनकी परियों वाली कहानियाँ घरों में गूँज उठीं। सभी ने सुबह को अपने-अपने आँगन में अपनों के साथ उतरते देखा और साँझ को कॉफी के साथ विदा होते देखकर अपने बचपन के गाँव,खेत और लोगों को याद किया। प्रकृति का जादू पशु-पक्षियों के सिर चढ़कर बोलने लगा। सुबह की सैर के दौरान सिंदूरी आसमान पर फुद्कू चिड़ियों के झुण्ड के झुण्ड उड़ते देखे गये, तो वहीं स्वच्छ हवा को तरस गये प्राणों को कोमलता से शुद्ध वायु ने सहेजा। उन महिलाओं ने भी गये वर्ष की खूब सराहना की जो काम से घर लौटती थीं, तो उनका बच्चा उन्हें एक अंगुल बड़ा ही मिलता था। ऐसी भावुक माँओ ने इस दौर में अपने बच्चे को गोद में लेकर बढ़ते हुए देखा। वे माता-पिता भी हर्षित हुए जो अपनी उपस्थिति से वंचित बच्चों को अन्यथा उपहारों से लादे रहते थे और जाने-अनजाने उनके बच्चे अपव्ययता के चंगुल में फँस जाते थेl उन माता-पिताओं ने अपने किशोर और किशोरियों के साथ अपना अमूल्य समय साझा कर अभिभावकीय दायित्व प्रेम से निभाया।

गये साल ने तरह-तरह के खेल खेले। उन खेलों की जद में वे पति-पत्नी भी आ गए को अधिक काम के ज़ोर में रहते हुए एक-दूसरे की बुराइयाँ-अच्छाइयाँ या तो देख ही नहीं पाते थे या वे यूँ ही दबी-छिपी रह जाती थीं, वे खुलकर सामने आ गईं। कहीं इसके नुकसान हुए, तो कहीं फायदे। कहीं शादियां टूटीं,तो कहीं इस संक्रामक समय ने बिनानी सीमेंट के जोड़ की तरह रिश्तों को जोड़ने का काम किया। कुल मिलाकर इस समय ने हमारे धैर्य को और पुख़्ता बनाया है। अपने लोगों के व्यवहार का आकलन करने का अवसर दिया है। जो समय की कमी का रोना रो-रोकर अपना काम चला लेते थे; उन रिश्तेदारों की ख़ासी पोल खोली है। जिन दीवारों को हम ताले में बंद कर दिन,सप्ताह और महीनों के लिए चले जाते थे, उनके साथ रुकने का समय मिला तो दीवारों ने हमें थोड़ा और सलीके से रहना सिखाया और हमारे होने को सार्थक बनाया है।

'दो हजार बीस' दमदार सालों में अपना नाम दर्ज करवा गया है जिसने हमारे व्यक्तित्व को रुपये में चार अठन्नी बनाने वाले 'मोड' से निकाल कर जीवन की वास्तविकता से रू-ब-रू कराया है। एथलीट जैसी भागी-भागी-सी जिंदगी को जब स्थिरता मिली तो उससे जुड़े कई अहम विषय चिंतन के धरातल पर आ गये। वैज्ञानिकता की आड़ में पिस रहे हमारे जीवन मूल्य थोड़े-से ऊपर उठे,तो हमें जीवन की सच्चाई साफ-साफ़ दिखने लगी। कई दबी-ढँकी कुंठाएँ धराशायी  हो गईं। जिन विषयों में कोई सार्थकता नहीं होती थी लेकिन हमें प्रिय थे। उन विषयों को मन भले नकार देता था लेकिन हमारे अहम की चिमटी ने मजबूती से पकड़ा हुआ था। उस चिमटी का मुँह खोलने का अवसर गये साल ने हमें दिया है। जहाँ हमें गुंजाईश लगी, वहाँ के लिए हमारे मन ने खूब प्रयत्न किए और सफलता पाई क्योंकि वक्त यदि विपुल है,तो हम ही उसकी विपुलता के अनुयाई हैं।

तेज़ गति के आदी जीवन के सामने बेजोड़ रोड ब्रेकर आ गया। वह छटपटाया तो बहुत लेकिन छलाँग नहीं लगा पाया और ऐसे हमारा खिलंदड़ापन कैद में ख़ुशी मनाने पर निर्भर हो गया। गये साल नेशेयर एंड केयरवाले नारे की धज्जियाँ उड़ा दीं। हम भारतीय परंपरा में जीवन तलाशने लगे। समय अपने आवरण को शायद ऐसे ही सजाता और सँवारता है। हम तो कठपुतली हैं। 

कुल मिलाकर यदि कहा जाए कि जो ३६५ दिनों का समूह एक वर्ष के रूप में हमें मिलता है उसमें हमारे जीवन के अनेक नये-पुराने विशेषांक प्रकाशित होते हैं, तो ग़लत न होगा। हाँ, इतना जरूर है कि जीवन के तमाम प्रकाशित घटनाओं-दृश्यों में आपका अपना ही संपादन मूल्यवान होता है। आपके जीवन-निबन्धों को कई भाषाओं के अनुवादक हाथों हाथ लेना चाहते हैं; आपकी भूरिभूर प्रशंसा भी करना चाहते हैं लेकिन उन अनुवादकों के चयन में भी किसी और की नहीं अपितु हमारी दृष्टि ही काम करती है क्योंकि अनुवादक यदि कच्चा हुआ, तो वह हमारी भावनाओं को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर ही नहीं सकेगा और आपके जीवन को कोई भी रस लेते हुए सुचारु रूप से उचित लय में नहीं पढ़ सकेगा। जीवन के इस लिखे-अलिखे में अनेक प्रसंग ऐसे भी होते हैं जिन्हें हम न देखना चाहते हैं और न ही सुनना। गया वर्ष २०२० इसी बात को सत्यापित करता हुआ-सा जान पड़ता है

साल कितने भी आएँ-जाएँ किंतु हमारी तटस्थतता और अनुभव ही हमारे काम आते है। वैसे तो सालों के आवागमन में ही हमारी जिन्दगी निहित होती है। इसी घमासान में आपको कई प्रकार के व्यक्तियों का सामना भी करना पड़ता है। उन व्यक्तियों में प्रशंसक,विदूशक,स्तुतिगान या बुराई करने के ठेकेदार भी मिलेंगे लेकिन उस स्थिति में भी हमारे सुखी-दुखी होने में उनकी नहीं हमारी  बुद्धि की प्रामाणिकता पर ही सवाल उठाया जाएगा क्योंकि मनुष्य स्वयं अपने जीवन का संस्थापक, प्रकाशक, अनुवादक,संपादक और सम्वाददाता होता है। वह जिस प्रकार से खुद को लोकार्पित करना चाहे कर सकता है। न समय ठहरता है,न हम! कितनी भी चालाकी से हम काम क्यों न करें लेकिन हमारे जीवन का एक तनाव बिंदु निश्चित होता है। हम अपनी तमाम सफलता और असफलताओं के साथ उसी के इर्दगिर्द थरथराते रहते हैं और हमारी इसी थरथराहट में नये-पुराने साल सहर्ष आते-जाते रहते हैं।

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